मूर्खलक्षणनाम - ॥ समास चौथा - भक्तिनिरुपणनाम ॥
इस ग्रंथराज के गर्भ में अनेक आध्यात्मिक ग्रंथों के अंतर्गत सर्वांगीण निरूपण समाया हुआ है ।
॥ श्रीरामसमर्थ ॥
नाना सुकृतों का फल । सो यह नरदेह केवल । उसमें भी भाग्य सफल । तभी सन्मार्ग मिले ॥१॥
नरदेह में विशेष ब्राह्मण । उस पर भी संध्या स्नान । सद्वासना भगवद्भजन । होता है पूर्व पुण्य से ॥२॥
भगवद्भक्ति यह उत्तम । उस पर भी सत्समागम । काल सार्थक यही परम । लाभ जानो ॥३॥
प्रेम प्रीति का सद्भाव । और भक्तों का समुदाब । हरिकथा महोत्सव । उससे प्रेम होता दुगुना ॥४॥
नरदेह मिला एक । कुछ करें सार्थक । जिससे प्राप्त हो परलोक । परम दुर्लभ जो ॥५॥
विधियुक्त ब्रह्मकर्म । अथवा दया दानधर्म । अथवा करें सुगम । भजन भगवंत का ॥६॥
अनुताप से करें त्याग । अथवा करें भक्तियोग । अन्यथा धरें संग । साधुजनों का ॥७॥
नाना शास्त्रों का करें मंथन । अथवा करें तीर्थाटन । अथवा करें अच्छे पुरश्चरण । पापक्षय के लिये ॥८॥
अथवा करें परोपकार । अथवा ज्ञान का विचार । निरुपण में सारासार । विवेक करें ॥९॥
वेदों की आज्ञा पालन । कर्मकांड उपासन । जिससे बनेंगे ज्ञान । के अधिकारपात्र ॥१०॥
काया वाचा मन । पत्र पुष्प फल जीवन । किसी एक भजन । से सार्थक करें ॥११॥
जन्म लेने का फल । कुछ तो करें सफल । ऐसा ना करे जो निर्फल । भूमिभार बनता ॥१२॥
नरदेह का उचित । कुछ करें आत्महित । यथाशक्ति चित्तवित्त । सर्वोत्तम से लगायें ॥१३॥
ये कुछ भी ना धरें मन में । वह मृतप्राय रहे जनों में । जन्म लेकर जननी को उसने । व्यर्थ ही कष्ट दिये ॥१४॥
नहीं संध्या नहीं स्नान । नहीं भजन देवतार्चन । नहीं मंत्र जप ध्यान । मानसपूजा ॥१५॥
नहीं भक्ति नहीं प्रेम । नहीं निष्ठा नहीं नियम । नहीं देव नहीं धर्म । अतिथि अभ्यागत ॥१६॥
नहीं सद्बुद्धि नहीं गुण । नहीं कथा नहीं श्रवण । नहीं अध्यात्मनिरूपण । सुना कभी ॥१७॥
नहीं भलों की संगति । नहीं शुद्ध चित्तवृत्ति । नहीं कैवल्य की प्राप्ति । मिथ्या मद से ॥१८॥
नहीं नीति नहीं न्याय। नहीं पुण्य का उपाय । नहीं परलोक का सहाय । युक्तायुक्त क्रिया ॥१९॥
नहीं विद्या नहीं वैभव । नहीं चातुर्य का भाव । नहीं कला नहीं लाघव । रम्य सरस्वती का ॥२०॥
शांति नहीं क्षमा नहीं । दीक्षा नहीं मैत्री नहीं । शुभाशुभ कुछ भी नहीं । साधनादिक ॥२१॥
शुचित नहीं स्वधर्म नहीं । आचार नहीं विचार नहीं । अरत्र नहीं परत्र नहीं । मुक्त क्रिया मन की ॥२२॥
कर्म नहीं उपासना नहीं । ज्ञान नहीं वैराग्य नहीं । योग नहीं साहस नहीं । देखे तो कुछ भी नहीं ॥२३॥
उपरति नहीं त्याग नहीं । समता नहीं लक्षण नहीं । आदर नहीं प्रीति नहीं । परमेश्वर प्रति ॥२४॥
परगुणों का संतोष नहीं । परोपकार में सुख नहीं । हरिभक्ति का अंश नहीं । अंतर्याम में ॥२५॥
ऐसे प्रकारों के जो जन । वे जीवित होकर भी प्रेतसमान । उनसे न करें भाषण । पवित्र जनों में ॥२६॥
पुण्यसामग्री की हो पर्याप्ति । उनसे ही होती भगवद्भक्ति । जिसकी जैसी करनी रहती । उन्हें वैसी ही प्राप्ति ॥२७॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे भक्तिनिरूपणनाम समास चौथा ॥४॥
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Last Updated : November 29, 2023
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