अथ नीचसंज्ञा । सूर्यांदीनां जगुर्नीचं स्वोच्चभाद्यच्च सप्तमम् । राहोस्तु कन्यकागेहं मिथुन स्वोच्चभ स्मृतम् ॥१०१॥
अथ मृलत्रिकोणम् । सिंहो वृषभमेषौ च कन्याधन्वतुलाघटा : । रव्यादीनां क्रमान्मूकलत्रिकोणा राशय : स्मृता : ॥१०२॥
अथ तिथ्यादीनां बलम् । तिथिरेकगुणा वारो द्विगुणस्त्रिगुण च भम् । योगश्वतुर्गुण : पंचगुणं तिथ्यर्द्धसंज्ञकम् ॥१०३॥
ततो मुहूर्तो बलवास्ततो लग्न बलाधिकम् । लग्नं कोटिगुणं विद्यादूग्रहवीर्यबलान्चितम् ॥ तस्मात्सर्वेषु कार्येषु लग्नवीर्यं विलोकयेत् ॥१०४॥
अथ षड्वर्ग : । विलग्नहोराद्रेष्काणनवांशद्वादशांशका : । त्रिंशांशश्चेति ष्डवर्गास्ते सौम्यग्रहजा : शुभा : ॥१०५॥
अथ लग्नादीनां लक्षणानि । त्रिंशद्भागात्मकं लग्गं होरा तस्यार्द्धमुच्यते । लग्नत्रिभागो द्रेंष्काणो नवमाशो नवांशक : ॥१०६॥
द्वादशांशी द्वादशांशस्त्रिशांशस्त्रिंशदंशक : । लग्नराशिपति : खेटो गृहेश : परिकीर्तित : ॥१०७॥
( नीचसंज्ञा ) सूर्यादि ग्रहोके पूर्व कहे हुए उच्चस्थानोंसे सातवां ७ स्थान क्रमसे नचिका स्थान जानना चाहिये ॥१०१॥
( मूलत्रिकोणसंज्ञा ) सूर्य सिंहका मूल त्रिकोणी है और चंद्रमा वृषका , मंगल मेषका , बुध कन्याका , गुरु धनका , शुक्र तुलाका , शनैश्वर कुंभका मूल त्रिकोणी होता है ॥१०२॥
( तिथ्यादिबल ) तिथिमें एक १ गुण है , वारमें २ गुण , नक्षत्रमें ३ गुण , योगमें ४ गुण , करणमें ५ गुण हैं ॥१०३॥
और करणसे पूर्वोक्त मुहूर्त्त बलवान् हैं , उससे लग्न बलवान् है तथा ग्रहोंके बलवीर्यसहित लग्न होवे तो करोड गुण समझना , इसवास्ते संपूर्ण कार्येमें लग्नका बल देखना चाहिये ॥१०४॥
( षडूवर्गसंज्ञा ) लग्न १ , होरा २ , द्रेष्काण ३ , नवांशक ४ , द्वादशांश ५ , त्रिंशाशक ६ , यह षडूवर्ग हैं सो शुभग्रहका शुभ जानना चाहिये ॥१०५॥
( लग्न आदिका लक्षण ) तीस ३० अंशका लग्न होता है और पंदरह १५ अंशका होरा जानना , दश १० अंशका द्रेष्काण होता है और लग्नके नौवें ९ हिस्सेको नवाशक कहते हैं ॥१०६॥
लग्नके बारहवें १२ हिस्सेको द्वादशांशक और तीसवें ३० हिस्सेकी त्रिंशांशक जानना चाहिये और लग्नकी राशिके पतिको गृहेश कहते हैं ॥१०७॥
अथ होरासंज्ञा । होरयोरोजराशौ तु रवींदू क्रमश : पती । समराशौ तु चन्द्राकौं होरेशौ क्रमशी वदेत् ॥१०८॥
अथ द्रेष्काणसंज्ञा । द्रेष्काण आद्यो लग्नस्य द्वितीय : पंचमस्य च । द्रेष्काणस्य तृतीयस्तु लग्न नवमराशिषु ॥१०९॥
अथ नवांशसंज्ञा । मेषे नवांशा मेषाद्या वृषे च मकरादिका : ॥ मिथुने च तुलाद्या : स्यु : कर्कटे कर्कटादिका : ॥११०॥
मेषाद्यी च धनु : सिंहौ कन्यैणौ मकरादिकौ । तुलाद्यौ तुलकुम्भौ च कर्काद्यौ मीनवृश्चिकौ ॥ गोतुलायुग्मकन्यानां नवांशा : शुभदा : स्मृता : ॥१११॥
अथ द्वादशांशम् । लग्नस्य द्वादशांशस्तु स्वराशेरेव कीर्त्तित : ॥११२॥
( होरासंज्ञा ) विषम राशिमें प्रथम सूर्यकी होरा तदनंतर चंद्रमाकी होरा जानना और समराशिमें प्रथम चंद्रमाकी होरा फिर सूर्यकी होरा होती है ॥१०८॥
( द्रेष्काण संज्ञा ) लग्नके ३० अंशोंमेंसे प्रथम दश अंशतक द्रेष्काण हो तो लग्नका स्वामी द्रेष्काणका अधिपति होता है और दूसरा द्रेष्काण २० अंशतक हो तो पंचमस्थानका पति द्रेष्काणका अधिपति होता है । यदि तीसरा द्रेष्काण ३० अंशतक हो तो नवमका स्वामी द्रेष्काणपति होता है परंतु शनि , सूर्य , मंगलका द्रेष्काण अशुभ है ॥१०९॥
( नवांशक कथन ) मेषलग्नमें मेषसे लेके नवांशक जानना और वृषमें मकरसे लेके , मिथुनमें तुलासे जानना और कर्कमें कर्कसे , सिंहमें तथा धनमें मेषसे जानना , कन्यामें और मकरमें मकरसे , मकरसे , तुला तथा कुंभमें तुलासे , मीनवृश्चिकमें कर्कसे लेके नवांशक जानना चाहिये परंतु संपूर्ण नवांशोंमें वृष २ , तुला ७ , मिथुन ३ , कन्या ५ के नवांशक शुभकार्यमें श्रेष्ठ हैं ॥११०॥१११॥
( द्वादशांश कथन ) लग्नके तीस अंश और बारहवें १२ हिस्सेका नाम द्वादशांश है सो यह द्वादशांश पापग्रहोंका अशुभ है ॥११२॥
अथ लग्नविचार : । तत्रादौ लग्ननामानि । मेषो वृषोऽथ मिथुनं कर्क : सिंहश्च कन्यका । तुलाऽथ वृश्चिकी धन्वी मकर : कुम्भमीनकौ ॥११३॥
अथ लग्नज्ञानम् । यस्मिन् राशौ यदा सूर्यस्तल्लग्नमुदये भवेत् । तस्मात्सप्तमराशिस्तु अस्तलग्नं तदुच्यते ॥११४॥
अथ लग्नस्पष्टीकरणम् । सूर्य़स्य राश्यंशमानकेष्ठे घटयादिकं स्वेष्टघटीयुतं यत् । तत्तुल्यकेष्ठे तु गतांशयुक्तं लग्नं प्रवाच्यं सुधियाऽतिसौख्यम् ॥११५॥
अथ लग्नानां घटिकाप्रमाणम् । तिस्त्रो ३ मोने च मेषे च घट : पंच श्रुति : २५ पला : चतस्त्रश्व ४ वृषे कुम्भे पला : प्रोक्ताश्व षोडश १६॥ मिथुने मकरे पंच ५ घटिका विंशति : २० पला : । पंच ५ ककें च चापे च शशिदेवेदा : ४१ पला : स्मृता : ॥११६॥
घटिका : पंच ५ सिंहेऽलौ द्वयं वेदा : ४२ पला : स्मृता : । कन्यायां च तुले पंच ५ पलाश्वन्द्रस्तथाऽग्नय : ३१ ॥११७॥
अथ द्वितीय : प्रकार : । वस्वेकपक्षा २१८ वसुधेषुपक्षा २५१ स्त्रिव्योमरामा ३०३ गुणवेदरामा : ३४३ । सप्ताब्धिरामा ३४७ वसुरामरामा : ३३८ क्रमेण मेषादिपलाश्व ज्ञेया : ॥११८॥
( लग्नविचार ) मेष १ , वृष २ , मिथुन ३ , कर्क ४ , सिंह ५ , कन्या ६ , तुला ७ , वृश्चिक ८ , धन ९ , मकर १० , कुंभ ११ , मीन १२ , यह १२ लग्न हैं ॥११३॥
( लग्नज्ञानम् ) जिस राशिपर सूर्य होवे सो ही लग्न सूयोंदयके समय आता है और उसी लग्नसे सातवें लग्नमें सूर्यका अस्त होता है ॥११४॥
( लग्न स्पष्ट करनेकी रीति ) सूर्यकी राशिका जितना अंश गया हुआ हो उतनेही अंशका सारणीके कोष्ठमें अंक देखना फिर उसी अंकके नीचे और लग्नके सामने जो अंक हैं उन अंकोंमें इष्टकी घडी पलसहित रीतिमुजब मिला देवे फिर ६० का भाग देवे जो शेष अंक रहे सो सारणीके कोष्ठमें जहां मिले तहांही देखे जितने अंशके नीचे जिस लग्नके सामने अंक हो उसी लग्नका गत अंश बुद्धिमानको जान लेना चाहिये ॥११५॥
( लग्नोंकी घटी ) मीन १२ मेष १ की तीन ३ घटी २५ पल हैं , वृष २ कुंभ ११ की चार ४ घटी १६ पल हैं , मिथुन ३ मकर १० की पांव घटी २० पल हैं , कर्क ४ धन ९ की पांच घटी ४१ पल हैं . सिंह ५ वृश्चिक ८ की पांच घटी ४२ पल हैं और कन्या ६ तुला ७ की ५ घटी ३१ पल जानना ॥११६॥११७॥
( दूसरा प्रकार ) मीन , मेषकी २१८ पल हैं , वृष , कुंभकी २५१ पल हैं , मिथुन , मकरकी ३०३ पल हैं , कर्क , धनकी ३४३ पल हैं , सिंह , वृश्चिककी ३४७ पल हैं , और कन्या , तुलाकी ३३८ पल जानना ॥११८॥
अथ तन्वादिद्वादशभावसंज्ञा ॥ तनु १ धनं २ सहोत्थाख्यं ३ सुहर्त् ४ पुत्रा ५ ऽरि ६ योषित : ७ । निधनं ८ धर्म ९ कर्मा १० य ११ व्यया १२ भावास्तनो : क्रमातु ॥११९॥
अथ केंद्रादि संज्ञा । केंद्र १ । ४ । ७ । १० पणफरं २ । ५ । ८ ११ चापोक्लीमं ३ । ६ । ९ । १२ लग्नात्पुन : पुन : । नवमं ९ पंचमं ५ स्थानं त्रिकोणं परिकीर्तितम् ॥१२०॥
त्रि ३ दशै १० कादशं ११ षष्टं ६ प्रोक्तं चोपचयाह्वयम् । यामित्रं सप्तमं ७ द्यूनं द्यूतं च मदनाभिधम् ॥१२१॥
रि : फंतु द्वादशं १२ ज्ञेयं दुश्विक्यं स्यात्तृतीयकम् ३ । चतु रस्त्रं तुरीया ४ ष्ट ८ संख्यं रंध्र ८ मथाष्टमम् ॥१२२॥
अथ ग्रहहष्टिज्ञानम् । यामित्रमे ७ द्दष्टिफलं समग्रं स्वपादहीनं चतुरस्त्रयो ४ । ८ श्च । त्रिकोणयो ९ । ५ र्द्दष्टिफलार्द्धमाहुर्दुश्चिक्य ३ संख्ये दशमे १० चं पादम् ॥१२३॥
फलं विशेषं प्रवदाम्यथातो भौमस्य पूर्णं चतुरस्त्र ४ । ८ के स्यात् । फलं च जीवस्य तथा त्रिकोणे ९ । ५ पूर्णं शने : स्याद्दशमे १० तृतीये ३ । स्वाक्रांतभात्सप्तमभे समस्तं फलं द्दगुत्थं निखिलग्नहाणाम् ॥१२४॥
अथ दिनलग्नज्ञानम् । छाया १ पादै २ रसो ६ पेतैरेकविंशच्छतं १२१ भजेत् । लब्धांके घटिका ज्ञेया : शेषांके च पला : स्मृता : ॥१२५॥
अथ रात्रिलग्नज्ञानम् ॥ सूर्यभान्मौलिभं मण्य सप्त ७ हीनं च शेषकम् । द्विगुणं च द्वि २ हीनं च गता रात्रि : स्फुटा भवेत् ॥१२६॥
इति श्रीरत्नगढनगरनिवासिना पंडितगौडश्रीचतुर्थीलालशर्मणा
विरचित मुहूर्त्तप्रकाशेऽद्भुतनिबन्धे प्रथमं संज्ञाप्रकरणम् ॥१॥
( तन्वादिद्वादश भाव ) तनु १ , धन २ , सहज ३ , सुहृत् ४ , सुत ५ , रिपु ६ , जाया ७ , मृत्यु ८ , धम ९ , कर्म १० , आय ११ , व्यय १२ , यह १२ भावोंके नाम हैं ॥११९॥
( केंद्रादिसंज्ञा ) लग्न १ , चतुर्थ ४ , सप्तम ७ , दशम १० इनकी केंद्र संज्ञा है । और दूसरे २ , पांचवें ५ , आटवें ८ , ग्यारहवें ११ की पणफर संज्ञा है । तीसरे ३ , छठे ६ , नौवें ९ , बारहवें १२ की आपोक्लीम संज्ञा है । और नौदें ९ , पांचवें ५ की त्रिकोण संज्ञा कहते हैं ॥१२०॥
तीसरे ३ , दशवें १० , ग्यरहवें ११ , छठे ६ स्थानकी उपचयसंज्ञा है । और जामित्र , द्यून द्यूत , मदन , यह ४ नाम सातवें स्थानके हैं ॥१२१॥
रि : फ नाम बारहबें १२ स्थानका है । दुश्विक्य नाम तीसरे ३ स्थानका है । और चतुरस्त्र , तुरीयाष्ट , रंघ्र यह तीन नाम आठर्वे ८ स्थानके हैं ॥१२२॥
( ग्रहद्दष्टिज्ञान ) यामित्र नाम सातवं स्थानमें सम्पूर्ण ग्रहोंकी पूर्ण द्दष्टि होती है । और चौर्थ ४ , आठवे ८ त्रिपाद द्दष्टि है । नौवें ९ , पांचवें ५ द्विपाद द्दष्टि और तीसरे ३ , दशवें १० एकपाद द्दष्टि जाननी चाहिये ॥१२३॥
( विशेषद्दष्टिका विचार ) चौथे ४ , आठवें ८ मंगलकी पूर्ण द्दष्टि । नौवें ९ , पांचवें ५ बृहस्पतिकी पूर्ण द्दष्टि होती है । और तीसरे ३ , दशवें १० शनिकी पूर्ण द्दष्टि जाननी चाहिये । और अपने स्थित हुए स्थानसे सातवें सम्पूर्ण ग्रहोंकी पूर्ण द्दष्टि होती है ॥१२४॥
( दिनलग्नज्ञान ) प्रथम अपने शरीरकी छाया अपने पगोंसे मापना , फिर उस छायामें छ : मिलाना , अनन्तर १२१ का भाग देना जो अंक प्राप्त हो सो घटी जानना और शेष बचे सो पल जानना चाहिये ॥१२५॥
( रात्रिलग्नज्ञान ) सूर्यके नक्षत्रसे रात्रिमें मस्तकके उपरके नक्षत्र तक गिनना , फिर उसमेंसे सात ७ घटाके दूना करना , फिर दो २ घटाना जो शेष अंक बचे उतनी घटी रात्रि गई जानना ॥१२६॥
इति श्रीमुहूर्त्तप्रकाशे भाषाटीकायां प्रथमं संज्ञाप्रकरणम् ॥१॥