संज्ञाप्रकरणम् - श्लोक ४५ ते ६३

अनुष्ठानप्रकाश , गौडियश्राद्धप्रकाश , जलाशयोत्सर्गप्रकाश , नित्यकर्मप्रयोगमाला , व्रतोद्यानप्रकाश , संस्कारप्रकाश हे सुद्धां ग्रंथ मुहूर्तासाठी अभासता येतात .


अथ भद्रा । दशम्यां च तृतीयायां कृष्णपक्षे परे दले । सप्तम्यां च चतुर्दश्यां विष्टि : पूर्वदले रसृता ॥४५॥

एकादश्यां चतुर्थ्यां च शुक्लपक्षे परे दले । अष्टम्यां पूर्णिमायां च भद्रा पूर्वदले स्मृता ॥४६॥

अथ भद्रावासस्तत्फलं च । मेषत्रयालिगे चन्द्रे भद्रा स्वर्लोकचारिणी । कन्याद्वये धनुर्युग्मे चन्द्रे श्वद्रा रसातले ॥४७॥

कुम्भे मीने तथा कर्के सिंहे चन्द्रे भुवि स्थिताभूर्लोकस्था सदा त्याज्या स्बर्गपातालगा शुभा ॥४८॥

( भद्राविचार ) कृष्णपक्षकी दशमो १० तृतीया ३ के परदल ( पिछाडीकी तीस घडियों ) में भद्रा रहती हैं और सप्तमी ७ चतुर्दशी १४ की पहली तीस घडियोंमें रहे ॥४५॥

शुक्लपक्षकी एकादशी ११ चतुथींके परभाग ( दूसरे भाग ) में और अष्टमी ८ पूर्णिमाके १५ पूर्व दलमें भद्रा जाननी चाहिये ॥४६॥

( भद्रावास और उसका फल ) मेष १ वृष २ मिथुन ३ वृश्चिक ८ के चंद्रमामें स्वर्गलोकमें भद्रा रहती है । कन्या ६ तु . ७ ध . ९ म . १० के चंद्रमामें पातालमें भद्रा रहती है ॥४७॥

कुं . ११ मी . १२ कर्क . ४ सिं . ५ के चंद्रमामें भूलोक ( पृथ्वी ) में भद्रा रहती है सो पृथ्वीमें रहनेवाली भद्रा शुभकाममें त्याज्य है और स्वर्ग , पातालमें रहनेवाली भद्रा शुभ है ॥४८॥

अथ भद्राया अंगविभागस्तत्फलं च । मुखे पञ्च ५ गले त्वेका १ वक्षस्यैकादश ११ स्मृदा : । नाभौ चतस्र : ४ षट ६ कटयां तिस्त्र : ३ पुच्छाख्यनाडिका : ॥४९॥

कार्यहानिर्मुखे मृत्युर्गले वक्षसि नि : स्वता । कटयामुन्नत्तता नाभौ च्युति : पुच्छे ध्रुवो जय : ॥५०॥

ज्ञेयं क्रमात्फलं विष्टरिदमगसमुद्भवम्‌ । कार्ये त्वावश्यके विष्टेर्मुखमात्रं परित्यजेत ॥५१॥

अथ भद्रापुच्छम्‌‍ । चतुर्थ्याश्वाष्टमे यामे प्रथमे चाष्टमीविने । एकाद - श्यास्तथा षष्ठे पूर्णिमायास्तृतीयके ॥५२॥

सप्तमे स्यातृतीयाया : सप्तम्यास्तु द्वितीयके । दशम्या : पंचमें यामे चतुर्दश्याश्वतुर्थके । प्रांते घटात्रयं पुच्छ भुभकार्ये भुभावहम्‌ ॥५३॥

अथ भद्रास्वरूपम्‌ । पुरा देवासुरे युद्धे शंशुकायाद्विनिर्गता । दैत्यघ्नी रासभास्या च विष्टिर्लांगूलिनी त्रिपात्‌ ॥५४॥

सिंहग्रीबा शवारूढा सप्तहस्ता कृशोदरी । अमरै : श्रवणप्रांते सा नियुक्ता शिवाज्ञा ॥५५॥

महोग्ना विकरालास्या पृथुदंष्ट्रा भयानका । कार्यघ्नो भुवमायाति वह्निज्वालासमाकुला ॥५६॥

( भद्राका अंगविभाग और उसका फल ) पहली ५ घडी भद्राकी मुखकी है । फिर १ घडी गलेकी है । ११ घडी वक्षस्थल ( छाती ) की है । ४ घडी नाभिकी है । ६ घडी कटीकी है । फिर ३ घडी अंतकी ( पुच्छकी ) जाननी ॥४९॥

मुखकी ५ घडियोमें शुभकार्य करनेसे कार्यका नाश होता है । गलेकी १ घडी मृत्यु करती है और छातीकी ११ घडियोंमें दरिद्रता होती है । कटीकी ६ घडियोंमें पागल हो जावे और नाभिकी ४ घडी नाशकारक हैं । पुच्छकी ३ घडी जयके अर्थात्‌ कार्यको सिद्ध करनेवाली हैं ॥५०॥

इस प्रकार क्रमसे भद्राके अंगकी घडियोंका फल जानके कार्य करे । यदि अतिही जरूरत हो तो भद्राके मुख मात्रकी ५ घडी ही त्याग देवे ॥५१॥

( भद्राके पुच्छकी घडी ) शुक्लपक्षमें चतुर्थी ४ के आठवें ८ पहरके अंतकी तीन घडी भद्राके पूँछकी हैं और अष्टमी ८ के प्रथम १ प्रहरके अंतकी ३ घडी भद्राके पूँछकी हैं । एकादशी ११ के छठे ६ पहरके अंतकी ३ घडी और पूर्णिमा १५ के तीसरे ३ प्रहरके अंतकी तीन ३ घडी पूँछकी जाननी चाहिये ॥५२॥

कृष्णपक्षमें तृतीया ३ के सातवें ७ पहरकी तीन ३ घडी और सप्तमी ७ को दूसरे २ पहरकी ३ घडी दशमी १० के पांचके ५ प्रहरके अंतकी ३ और चौदशके १४ के चौथे ४ प्रहरके अंतकी ३ घडी शुभकामोंके योग्य हैं ॥५३॥

( भद्रास्वरूप ) पूर्वकालमें देव दैत्योंके युद्धमैं महादेवजीके शरीर यह भद्रा ( देवी ) जत्पन्न हुई है । दैत्योंको मारनेके लिये गर्दभके मुख और लंबे पूंछसहित और तीन पैर ( पग ) युक्त उत्पन्न हुई है ॥५४॥

और सिंह जैसी ग्रीवा ,- मुर्देपर चढी हुई .- सात हाथ , और शुष्क पेटवाली , महाभयंकर , विकरालमुकी . पृथुदंष्टा . भयानक , कार्यको नाश करनेवाली अग्निकी ज्वालासहित देवोंकी भेजी हुई पृथ्वीपर उतरी है ॥५५॥५६॥

अर्थ भद्रापरिहार : । तिथे : पूर्वर्द्धजा राजौ दिने भद्रा परार्द्धजा । भद्रादोषो न तत्र स्यात्कार्ये त्वावश्यके सति ॥५७॥

शुक्ले तु वृश्विकी भद्रा कृष्णपक्षे भुजंगमा । सा दिवा सर्पिणी रात्रौ वृश्विकी चापरे जग : ॥ मुखं त्याज्यं तु सर्पिण्य वृश्विक्या : पुच्छमेव च ॥५८॥

अथ भद्राकृत्यम । वधवन्धविषाग्न्यस्त्रच्छेदनोच्चाटनादि यत्‌ ॥ तुरंगमहि - षाष्ट्रादिकर्म विष्टयां तु सिध्यति ॥५९॥

न कुर्यान्मंगलं विष्टयां जीवितार्थी कदाचन ॥ कुर्वन्नज्ञस्तदा क्षिप्रं तत्सर्वं नाशतां व्रजेत्‌ ॥६०॥

अथ दिवारात्रौ पंचदश मुहूर्त्ता : । दिवा मुहूर्त्ता रुद्राहि मित्रा : पितृवसूदकम्‌ ॥ विश्वे विधातृबह्येंद्रा इंद्राग्न्यसुरतोयपा : ॥६१॥

अर्य्यमा भागसंज्ञश्व विज्ञेया दश पंच च ॥ अह्न : पंचदशो भागो मुहूर्त्तोऽय तथा निशि ॥६२॥

ईशाजपादहिर्बुध्न्ययूपाश्चियमबह्नय : । धातृचंद्रादितोज्याख्य विष्णवर्कत्वष्ट्टवायव : ॥६३॥

( भद्रापरिहार ) तिथिके पूर्वार्द्धम अर्थात्‌ पहली तीस घडियोंमें होनेवाली भद्राका रात्रिंमें दोष नहीं है और तिथिके पश्वात्‌ भागमें अर्थात्‌ पिछाडीकी तीस घडियोंमें होनेवाली भद्रा दिनमें हो तो आवश्यक काममें दोष नहीं है ॥५७॥

( दूसरी रोतिसे परिहार ) शुक्लपक्षकी भद्रा वृश्चिकसंज्ञक है और कृष्णपक्षकी सर्पसंज्ञक है तथा कई आचार्योंके मतसे दिनकी भद्रा सर्पसंज्ञक है और रात्रिकी वृश्चिकसंज्ञक मानी है सो सर्पसंज्ञाके मुखकी ५ घडी और वृश्चिकसंज्ञाके पुच्छकी ३ घडी शुभकार्यमें त्याग देनी चाहिये ॥५८॥

( भद्राकृत्य ) भद्रामें वध , बन्धन , विष , अग्नि , शस्त्र , छेदन , उच्चाटन आदि निंदितकार्य , घोडा महिष , ऊँट आदिका दमन करना शुभदायक होता है ॥५९॥

परंतु शुभकामकी इच्छावालोंको भद्रामें शुभकार्य कदापि नहीं करना योग्य है , यदि मूर्खपनेसे करेना तो तत्काल ही कार्यसहित नाशा होवेगा ॥६०॥

( दिन रात्रि मुहूर्त्त ) रूद्र १ , अहि २ , मित्र ३ , पितृ ४ , वसु ५ , उदक ६ , विश्वेदेव ७ , विधाता ८ , ब्रह्म ९ , इंद्र १० , इन्द्राग्नि ११ , असुर १२ , वरुण १३ , अर्यमा १४ , भग १५। यही १५ मुहूर्त्त क्रमसे दिनमें आते हैं , और १ मुहूर्त्त दिनके पंदरहवें हिस्सेका होता है ॥६१॥६२॥

और रुद्र १ , अजैकपात्‌ २ , अहिर्बुध्न्य ३ , पूषा ४ , दस्त्र ५ , यम ६ , वह्नि ७ , धाता ८ , चन्द्र ९ , अदिति १० , गुरु ११ , विष्णु १२ , अर्क १३ , त्वष्टा १४ , वायु १५ यह १५ मुहूर्त्त क्रमसे रात्रिमें जानना ॥६३॥

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Last Updated : November 11, 2016

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