श्रीसीतारामभ्यां नमः
(बालकाण्ड)
रेफ आत्मचिन्मय अकल, परब्रह्म पररूप ।
हरि-हर-अज-वन्दित-चरन, अगुण अनीह अनूप ॥१॥
बालकेलि दशरथ-अजिर, करत सो फिरत सभाय ।
पदनखेन्दु तेहि ध्यान धरि विचरत तिलक बनाय ॥२॥
अनिलसुवन पदपद्मरज, प्रेम सहित शिर धार ।
इन्द्रदेव टीका रचत, कवितावली उदार ॥३ ॥
बन्दौं श्रीतुलसीचरन नख, अनूप दुतिमाल ।
कवितावलि-टीका लसै कवितावलि-वरभाल ॥४ ॥
बालरूप की झाँकी
१ अवधेसके द्वारें सकारें गई सुत गोद कै भूपति लै निकसे ।
अवलोकि हौं सोच बिमोचनको ठगि-सी रही, जे न ठगे धिक-से ॥
तुलसी मन-रंजन रंजित-अंजन नैन सुखंजन-जातक-से ।
सजनी ससिमें समसील उभै नवनील सरोरुह-से बिकसे ॥
पग नूपुर औ पहुँची करकंजनि मंजु बनी मनिमाल हिएँ ।
नवनील कलेवर पीत झँगा झलकै पुलकैं नृपु गोद लिएँ ॥
अरबिंदु सो आननु रूप मरंदु अनंदित लोचन-बृंग पिएँ ।
मनमो न बस्यो अस बालकु जौं तुलसी जगमें फलु कौन जिएँ ॥
२ तन की दुति स्याम सरोरुह लोचन कंचकी मंजुलताई हरैं ।
अति सुंदर सोहत धूरि भरे छबि भूरि अनंगकी दूरि धरैं ॥
दमकैं दँतियाँ दुति दामिनि-ज्यौं किलकैं कल बाल-बिनोद करैं ।
अवधेसके बालक चारि सदा तुलसी-मन-मंदिरमें बिहरैं ॥
बाललीला
कबहूँ ससि मागत आरि करैं कबहूँ प्रतिबिंब निहारि डरैं ।
कबहूँ करताल बजाइकै नाचत मातु सबै मन मोद भरैं ॥
कबहूँ रिसिआइ कहैं हठिकै पुनि लेत सोई जेहि लागि अरैं ।
अवधेसके बालक चारि सदा तुलसी-मन-मंदिरमें बिहरैं ॥
३ बर दंत की पंगति कंदकली अधराधर-पल्लव खोलनकी ।
चपला चमकैं घन बीच जगैं छबि मोतिन माल अमोलनकी ॥
घुँघुरारि लटैं लटकैं मुख ऊपर कुंडल लोल कपोलनकी ।
नेवछावरि प्रान करै तुलसी बलि जाउँ लला इन बोलनकी ॥
पदकंजनि मंजु बनीं पनहीं धनुहीं सर पंकज-पानि लिएँ ।
लरिका सँग खेलत डोलत हैं सरजू-तट चौहट हाट हिएँ ॥
तुलसी अस बालक-सों नहि नेहु कहा जप जोग समाधि किएँ ।
नर वे खर सूकर स्वान समान कहौ जगमें फलु कौन जिएँ ॥
४ सरजू बर तीरहिं तीर फिरैं रघुबीर सखा अरु बीर सबै ।
धनुहीं कर तीर, निषंग कसें कटि पीत दुकूल नवीन फबै ॥
तुलसी तेहि औसर लावनिता दस चारि नौ तीन इकीस सबै ।
मति भारति पंगु भई जो निहारि बिचारि फिरी उपमा न पबै ॥
धनुर्यज्ञ
छोनी में के छोनीपति छाजै जिन्है छत्रछाया छोनी-छोनी छाए छिति आए निमिराजके ।
प्रबल प्रचंड बरिबंड बर बेष बपु बरिबेकों बोले बैदेही बर काजके ॥
बोले बंदी बिरुद बजाइ बर बाजनेऊ बाजे-बाजे बीर बाहु धुनत समाजके ।
तुलसी मुदित मन पुर नर-नारि जेते बार-बार हेरैं मुख औध-मृगराजके ॥
५ सियकें स्वयंबर समाजु जहाँ राजनिको राजनके राजा महाराजा जानै नाम को ।
पवनु, पुरंदरु, कृसानु, भानु, धनदु-से, गुनके निधान रूपधाम सोमु कामु को ॥
बान बलवान जातुधानप सरीखे सूर जिन्हकें गुमान सदा सालिम संग्रामको ।
तहाँ दसरत्थकें समत्थ नाथ तुलसीके चपरि चढ़ायौ चापु चंद्रमाललामको ॥
मयनमहनु पुरदहनु गहन जानि आनिकै सबैको सारु धनुष गढ़ायो है ।
जनकसदसि जेते भले-भले भूमिपाल किये बलहीन, बल आपनो बढ़ायो है ॥
कुलिस-कठोर कूर्मपीठतें कठिन अति हठि न पिनाकु काहूँ चपरि चढ़ायो है ।
तुलसी सो रामके सरोज-पानि परसत ही टूट्यौ मानो बारे ते पुरारि ही पढ़ायो है ॥
६ डिगति उर्वि अति गुर्वि सर्ब पब्बै समुद्र-सर ।
ब्याल बधिर तेहि काल, बिकल दिगपाल चराचर ॥
दिग्गयंद लरखरत परत दसकंधु मुक्ख भर ।
सुर-बिमान हिमभानु भानु संघटत परसपर ॥
चौंके बिरंचि संकर सहित, कोलु कमठु अहि कलमल्यौ ।
ब्रह्मंड खंड कियो चंड धुनि जबहिं राम सिवधनु दल्यौ ॥
लोचनाभिराम घनस्याम रामरूप सिसु, सखी कहै सखीसों तूँ प्रेमपय पालि, री ।
बालक नृपालजूकें ख्याल ही पिनाकु तोर यो, मंडलीक-मंडली-प्रताप-दापु दालि री ॥
जनकको, सियाको, हमारो, तेरो, तुलसीको, सबको भावती ह्वैहै, मैं जो कह्यो कालि , री ।
कौसिलाकी कोखिपर तोषि तन वारिये, री राय दशरत्थकी बलैया लिजै आलि री ॥
७ दूब दधि रोचनु कनक थार भरि भरि आरति सँवारि बर नारि चलीं गावती ।
लीन्हें जयमाल करकंज सोहैं जानकीके पहिरावो राघोजूको सखियाँ सिखावतीं ॥
तुलसी मुदित मन जनकनगर-जन झाँकतीं झरोखें लागीं सोभा रानीं पावतीं ।
मनहुँ चकोरीं चारु बैठीं निज निज नीड चंदकी किरनि पीवैं पलकौ न लावतीं ॥
नगर निसान बर बाजैं ब्योम दुंदुभीं बिमान चढ़ि गान कैके सुरनारि नाचहीं ।
जयति जय तिहुँ पुर जयमाल राम उर बरषैं सुमन सुर रूरे रूप राचहीं ॥
जनकको पनु जयो, सबको भावतो भयो तुलसी मुदित रोम-रोम मोद माचहीं ।
सावँरो किसोर गोरी सौभापर तृन तोरी जोरी जियो जुग-जुग जुवती-जन जाचहीं ॥
८ भले भूप कहत भलें भदेस भूपनि सों लोक लखि बोलिये पुनीत रीति मारिषी ।
जगदंबा जानकी जगतपितु रामचंद्र, जानि जियँ जोहौ जो न लागै मुँह कारखी ॥
देखे हैं अनेक ब्याह, सुने हैं पुरान बेद बूझे हैं सुजान साधु नर-नारि पारिखी ।
ऐसे सम समधी समाज न बिराजमान, रामु-से न बर दुलही न सिय-सारिखी ॥
बानी बिधि गौरी हर सेसहूँ गनेस कही, सही भरी लोमस भुसुंडि बहुबारिषो ।
चारिदस भुवन निहारि नर-नारि सब नारदसों परदा न नारदु सो पारिखो ।
तिन्ह कही जगमें जगमगति जोरी एक दूजो को कहैया औ सुनैया चष चारखो ।
रमा रमारमन सुजान हनुमान कही सीय-सी न तीय न पुरुष राम-सारिखो ॥
९ दूलह श्रीरघुनाथु बने दुलही सिय सुंदर मंदिर माहीं ।
गावति गीत सबै मिलि सुंदरि बेद जुवा जुरि बिप्र पढ़ाहीं ॥
रामको रूप निहारति जानकी कंकनके नगकी परछाहीं ।
यातें सबै सुधि भूलि गई कर टेकि रही पल टारत नाहीं ॥
परशुराम-लक्ष्मण-संवाद
भूपमंडली प्रचंड चंडीस-कोदंडु खंड्यो, चंड बाहुदंडु जाको ताहीसों कहतु हौं ।
कठिन कुठार-धार धरिबेको धीर ताहि, बीरता बिदित ताको देखिये चहतु हौं ॥
तुलसी समाजु राज तजि सो बिराजै आजु, गाज्यौ मृगराजु गजराजु ज्यों गहतु हौं ।
छोनीमें न छाड्यौ छप्यो छोनिपको छोना छोटो, छोनिप छपन बाँको बुरुद बहतु हौं ॥
१० निपट निदरि बोले बचन कुठारपानि, मानी त्रास औनिपनि मानो मौनता गही ।
रोष माखे लखनु अकनि अनखोही बातैं, तुलसी बिनीत बानी बिहसि ऐसी कही ॥
सुजस तिहारें भरे भुअन भृगुतिलक, प्रगट प्रतापु आपु कह्यो सो सबै सही ।
टूट्यौ सो न जुरैगो सरासनु महेसजूको, रावरी पिनाकमें सरीकता कहाँ रही ॥
गर्भके अर्भक काटनकों पटु धार कुठारु कराल है जाको ।
सोई हौं बूझत राजसभा 'धनु को दल्यौ' हौं दलिहौ बलु ताको ॥
लघु आनन उत्तर देत बड़े लरिहै मरिहै करिहै कछु साको ।
गोरो गरूर गुमान भर यो कहौ कौसिक छोटो-सो ढोटो है काको ॥
११ मखु राखिबेके काज राजा मेरे संग दए, दले जातुधान जे जितैया बिबुधेसके ।
गौतमकी तीय तारी, मेटे अघ भूरि भार, लोचन-अतिथि भए जनक जनेसके ॥
चंड बाहुदंड-बल चंडीस-कोदंडु खंड्यो ब्याही जानकी, जीते नरेस देस-देसके ।
साँवरे-गोरे सरीर धीर महाबीर दोऊ, नाम रामु लखनु कुमार कोसलेसके ॥
काल कराल नृपालन्हके धनुभंगु सुनै फरसा लिएँ धाए ।
लक्खनु रामु बिलोकि सप्रेम महारिसतें फिरि आँखि दिखाए ॥
धीरसिरोमनि बीर बड़े बिनयी बिजयी रघुनाथु सुहाए ।
लायक हे भृगुनायकु, से धनु-सायक सौंपि सुभायँ सिधाए ॥
(इति बालकाण्ड)
अयोध्याकाण्ड
वन-गमन
१२ कीरके कागर ज्यों नृपचीर, बिभूषन उप्पम अंगनि पाई ।
औध तजी मगवासके रूख ज्यों पंथके साथ ज्यों लोग लोगाई ॥
संग सुबंधु, पुनीत प्रिया, मनो धर्मु क्रिया धरि देह सुहाई ।
राजिवलोचन रामु चले तजि बापको राजु बटाउ कीं नाईं ॥
कागर कीर ज्यों भूषन-चीर सरीरु लस्यो तजि नीरु ज्यों काई ।
मातु-पिता प्रिय लोग सबै सनमानि सुभायँ सनेह सगाई ॥
संग सुभामिनि, भाइ भलो, दिन द्वै जनु औध हुते पहुनाई ।
राजिवलोचन रामु चले तजि बापको राजु बटाउ कीं नाईं ॥
१३ सिथिल सनेह कहैं कौसिला सुमित्राजू सों, मैं न लखी सौति, सखी! भगिनी ज्यों सेई है ।
कहै मोहि मैया, कहौं-मैं न मैया, भरतकी, बलैया लेहौं भैया, तेरी मैया कैकेई है ॥
तुलसी सरल भायँ रघुरायँ माय मानी, काय-मन-बानीहूँ न जानी कै मतेई है ।
बाम बिधि मेरो सुखु सिरिस-सुमन-सम, ताको छल-छुरी कोह-कुलिस लै टेई है ॥
कीजै कहा, जीजी जू! सुमित्रा परि पायँ कहै, तुलसी सहावै बिधि, सोई सहियतु है
रावरो सुभाऊ रामजन्म ही तें जानियत, भरतकी मातु को कि ऐसो चहियतु है ॥
जाई राजघर, ब्याहि आई राजघर माहँ राज-पूतु पाएहूँ न सुखु लहियतु है ।
देह सुधागेह, ताहि मृगहूँ मलीन कियो, ताहू पर बाहु बिनु राहु गहियतु है ॥
गुह का पादप्रक्षालन
१४ नाम अजामिल-से खल कोटि अपार नदीं भव बूढ़त काढ़े ।
जो सुमिरें गिरि मेरु सिलाकन होत, अजाखुर बारिधि बाढ़े ॥
तुलसी जेहि के पद पंकज तें प्रगटी तटिनी, जो हरै अघ गाढ़े ।
ते प्रभू या सरिता तरिबे कहुँ मागत नाव करारे ह्वै ठाढ़े ॥
एहि घाटतें थोरिक दूरि अहै लौं जलु थाह देखाइहौं जू ।
परसें पगधूरि तरै तरनी, घरनी घर क्यों समुझाइहौं जू ॥
तुलसी अवलंबु न और कछू, लरिका केहि भाँति जिआइहौंजू ।
बरु मारिए मोहि, बिना पग धोएँ हौं नाथ न नाव चढ़ाइहौं जू ॥
१५ रावरे दोषु न पायनको, पगधूरिको भूरि प्रभाउ महा है ।
पाहन तें बन-बाहन काठको कोमल है, जलु खाइ रहा है ।
पावन पाय पखारि कै नाव चढ़ाइहौं, आयसु होत कहा है ।
तुलसी सुनि केवटके बर बैन हँसे प्रभु जानकी ओर हहा है ॥
पात भरी सहरी, सकल सुत बारे-बारे, केवटकी जाति, कछु बेद न पढ़ाइहौं ।
सबू परिवारु मेरो याहि लागि, राजा जू, हौं दीन बित्तहीन, कैसें दूसरी गढ़ाइहौं ॥
गौतमकी घरनी ज्यों तरनी तरैगी मेरी, प्रभुसों निषादु ह्वै कै बादु ना बढ़ाइहौं ।
तुलसीके ईस राम, रावरे सों साँची कहौं, बिना पग धोँएँ नाथ, नाव ना चढ़ाइहौं ॥
१६ जिन्हको पुनीत बारि धारैं सरपै पुरारि, त्रिपथगामिनि जसु बेद कहैं गाइकै ।
जिन्हको जोगींन्द्र मुनिबृंद देव देह दमि, करत बिबिध जोग-जप मनु लाइकै ॥
तुलसी जिन्हकी धूरि परसि अहल्या तरी, गौतम सिधारे गृह गौनो सो लेवाइकै ।
तेई पाय पाइकै चढ़ाइ नाव धोए बिनु, ख्वैहौं न पठावनी कै ह्वैहौं न हँसाइ कै ॥
प्रभुरुख पाइ कै, बोलाइ बालक घरनिहि, बंदि कै चरन चहूँ दिसि बैठे घेरि-घेरि ।
छोटो-सो कठौता भरि आनि पानी गंगाजूको, धोइ पाय पीअत पुनीत बारि फेरि-फेरि ॥
तुलसी सराहैं ताको भागु, सानुराग सुर बरषैं सुमन, जय-जय कहैं टेरि टेरि ।
बिबिध सनेह-सानी बानी असयानी सुनि, हँसै राघौ जानकी-लखन तन हेरि-हेरि ॥
वन के मार्ग में
१७ पुरतें निकसी रघुबीरबधू धरि धीर दए मगमें डग द्वै ।
झलकीं भरि भाल कनीं जलकी, पुट सूखि गए मधूराधर वै ॥
फिरि बूझति है, चलनो अब केतिक, पर्नकुटी करिहौ किते ह्वै?
तियकी लखि आतुरता पियकी अँखियाँ अति चारु चलीं जल च्वै ॥
जलको गए लक्खनु, हैं लरिका परिखौ, पिय! छाँह घरीक ह्वै ठाढ़े ।
पोंछि पसेउ बयारि करौं, अरु पाय पखारिहौं भूभुरि-डाढ़े ॥
तुलसी रघुबीर प्रियाश्रम जानि कै बैठि बिलंब लौं कंटक काढ़े ।
जानकीं नाहको नेहु लख्यो, पुलको तनु, बारि बिलोचन बाढ़े ॥
१८ ठाढ़े हैं नवद्रुमडार गहें, धनु काँधे धरें , कर सायकु लै ।
बिकटी भृकुटी, बड़री अँखियाँ, अनमोल कपोलन की छबि है ॥
तुलसी अस मूरति आनु हिएँ, जड! डारु धौं प्रान निछावरि कै ।
श्रम सीकर साँवरि देह लसै, मनो रासि महा तम तारकमै ॥
जलजनयन , जलजानन जटा है सिर, जौबन-उमंग अंग उदित उदार हैं
साँवरे-गोरेके बीच भामिनी सुदामिनी-सी, मुनिपट धारैं, उर फूलनिके हार हैं ॥
करनि सरासन सिलीमुख, निषंग कटि, अति ही अनूप काहू भूपके कुमार हैं ।
तुलसी बिलोकि कै तिलोकके तिलक तीनि रहे नरनारि ज्यों चितेरे चित्रसार हैं ॥
१९ आगें सोहै साँवरो कुँवरु गोरो पाछें-पाछें, आछे मुनिबेष धरें, लाजत अनंग हैं ।
बान बिसिषासन, बसन बनही के कटि कसे हैं बनाइ, नीके राजत निषंग हैं ॥
साथ निसिनाथमुखी पाथनाथनंदिनी-सी, तुलसी बिलोकें चितु लाइ लेत संग हैं ।
आनँद उमंग मन, जौबन-उमंग तन, रूपकी उमंग उमगत अंग -अंग है ॥
सुन्दर बदन, सरसीरुह सुहाए नैन, मंजुल प्रसून माथें मुकुट जटनि के ।
अंसनि सरासन, लसत सुचि सर कर, तून कटि मुनिपट लूटक पटनि के ॥
नारि सुकुमारि संग, जाके अंग उबटि कै, बिधि बिरचैं बरूथ बिद्युतछटनि के ।
गोरेको बरनु देखें सोनो न सलोनो लागे, साँवरे बिलोकें गर्ब घटत घटनि के ॥
२० बलकल-बसन, धनु-बान पानि, तून कटि, रूपके निधान घन-दामिनी-बरन हैं ।
तुलसी सुतीय संग , सहज सुहाए अंग, नवल कँवलहू तें कोमल चरन हैं ॥
औरै सो बसंतु, और रति, औरै रतिपति, मूरति बिलोकें तन-मनके हरन हैं ।
तापस बेषै बनाइ पथिक पथें सुहाइ, चले लोकलोचननि सुफल करन हैं ॥
बनिता बनी स्यामल गौरके बीच, बिलोकहु, री सखि! मोहि-सी ह्वै ।
मगजोगु न कोमल, क्यों चलिहै, सकुचाति मही पदपंकज छ्वै ॥
तुलसी सुनि ग्रामबधू बिथकीं, पुलकीं तन, औ चले लोचन च्वै ।
सब भाँति मनोहर मोहनरूप अनूप हैं भूपके बालक द्वै ॥
२१ साँवरे-गोरे सलोने सुभायँ, मनोहरताँ जिति मैनु लियो है ।
बान-कमान, निषंग कसें, सिर सोहैं जटा, मुनिबेष कियो है ॥
संग लिएँ बिधुबैनी बधू, रतिको जेहि रंचक रुपु दियो है ।
पायन तौ पनहीं न, पयादेंहि क्यों चलिहैं, सकुचात हियो है ॥
रानी मैं जानी अयानी महा, पबि-पाहनहू तें कठोर हियो है ।
राजहुँ काजु अकाजु न जान्यो, कह्यो तियको जेहिं कान कियो है ॥
ऐसी मनोहर मूरति ए, बिछुरें कैसे प्रीतम लोगु जियो है ।
आँखिनमें सखि! राखिबे जोगु, इन्हैं किमि कै बनबासु दियो है ॥
२२ सीस जटा, उर- बाहु बिसाल, बिलोचन लाल, तिरीछी सी भौहैं ।
तून सरासन-बान धरें तुलसी बन-मारगमें सुठि सोहैं ॥
सादर बारहिं बार सुभायँ चितै तुम्ह त्यों हमरो, मनु मोहैं ।
पूँछत ग्रामबधू सिय सों, कहौ, साँवरे-से सखि! रावरे को हैं ॥
सुनि सुंदर बैन सुधारस-साने सयानी हैं जानकीं जानी भली ।
तिरछे करि नैन, दै सैन तिन्हैं समुझाइ कछू मुसुकाइ चली ॥
तुलसी तेहि औसर सोहैं सबै अवलोकति लोचनलाहु अलीं ।
अनुराग-तड़ागमें भानु उदैं बिगसी मनो मंजुल कंजकलीं
२३ धरि धीर कहैं, चलु, देखिअ जाइ, जहाँ सजनी! रजनी रहिहैं ।
कहिहै जगु पोच, न सोचु कछू, फलु लोचन आपन तौ लहिहैं
सुखु पाइहैं कान सुनें बतियाँ कल, आपुसमें कछु पै कहिहैं ।
तुलसी अति प्रेम लगीं पलकैं, पुलकीं लखी रामु हिए महि हैं ॥
पद कोमल, स्यामल-गौर कलेवर राजत कोटि मनोज लजाएँ ।
कर बान-सरासन, सीस जटा, सरसीरुह-लोचन सोन सुहाएँ ॥
जिन्ह देखे सखी! सतिभायहु तें तुलसी तिन्ह तौ मन फेरि न पाए ।
एहिं मारग आजु किसोर बधू बिधुबैनी समेत सुभायँ सिधाए ॥
२४ मुखपंकज, कंजबिलोचन मंजु, मनिज-सरासन-सी बनी भौहैं ।
कमनीय कलेवर कोमल स्यामल-गौर किसोर, जटा सिर सोहैं ॥
तुलसी कटि तून, धरें धनु बान, अचानक दिष्टि परी तिरछौहैं ।
केहि भाँति कहौं सजनी! तोहि सों मृदु मूरति द्वै निवसीं मन मोहैं ॥
वन में
प्रेम सों पीछें तिरीछें प्रयाहि चितै चितु दै चले लै चितु चोरैं ।
स्याम सरीर पसेउ लसै हुलसै 'तुलसी' छबि सो मन मोरैं ॥
लोचन लोल, वलै भृकुटी कल काम कमानहु सो तृनु तोरै ।
राजत रामु कुरंगके संग निषंगु कसे धनुसों सरु जोरैं ॥
२५ सर चारिक चारु बनाइ कसें कटि, पानि सरासनु सायकु लै ।
बन खेलत रामु फिरैं मृगया, 'तुलसी' छबि सो बरनै किमि कै ॥
अवलोकि अलौकिक रूपु मृगीं मृग चौंकि चकैं, चतवैं चितु दै ।
न डगैं, न भगैं जियँ जानि सिलीमुख पंच धरैं रति नायकु है ॥
बिंधिके बासी उदासी तपी ब्रतधारी महा बिनु नारि दुखारे ।
गौतमतीय तरी 'तुलसी' सो कथा सुनि भे मुनिबृंद सुखारे ॥
ह्वैहैं सिला सब चंदमुखीं परसें पद मंजुल कंज तिहारे ।
कीन्ही भली रघुनायकजु! करुना करि काननको पगु धारे ॥
(इति अयोध्याकाण्ड)
अरण्यकाण्ड
मारीचानुधावन
२६ पंचवटीं बर पर्नकुटी तर बैठे हैं रामु सुभायँ सुहाए ।
सोहै प्रिया, प्रिय बंधु लसै, 'तुलसी' सब अंग घने छबि छाए ॥
देखि मृगा मृगनैनी कहे प्रिय बैन , ते प्रीतमके मन भाए ।
हेमकुरंगके संग सरासनु सायकु लै रघुनायकु धाए ॥
(इति अरण्यकाण्ड)
किष्किण्धाकाण्ड
समुद्रोल्लङ्घन
जब अङ्गदादिनकी मति-गति मंद भई, पवनके पूतको न कूदिबेको पलु गो ।
साहसी ह्वै सैलपर सहसा सकेलि आइ, चितवत चहूँ ओर, औरनि को कलु गो ॥
'तुलसी' रसातलको निकसि सलिलु आयो, कोलु कलमल्यो, अहि-कमठको बलु गो ।
चारिहू चरनके चपेट चाँपेँ चिपिटि गो, उचकें उचकि चारि अंगुल अचलु गो ॥
(इति किष्किन्धाकाण्ड)
सुन्दरकाण्ड
अशोकवन
२७ बासव-बरुन बिधि-बनतें सुहावनो, दसाननको काननु बसंतको सिंगारु सो ।
समय पुराने पात परत, डरत बातु, पालत लालत रति-मारको बिहारु सो ॥
देखें बर बापिका तड़ाग बागको बनाउ, रागबस भो बिरागी पवनकुमारु सो ।
सीयकी दसा बिलोखि बिटप असोक तर, 'तुलसी' बिलोक्यो सो तिलोक-सोक-सारु सो ॥
माली मेघमाल, बनपाल बिकराल भट, नीकें सब काल सींचैं सुधासार नीरके ।
मेघनाद तें दुलारो, प्रान तें पियारो बागु, अति अनुरागु जियँ जातुधान धीर कें ॥
'तुलसी' सो जानि-सुनि, सीयको दरसु पाइ, पैठो बाटिकाँ बजाइ बल रघुबीर कें ।
बिद्यमान देखत दसाननको काननु सो तहस-नहस कियो साहसी समीर कें ॥
लंकादहन
२८ बसन बटोरि बोरि-बोरि तेल तमीचर, खोरि- खोरि धाइ आइ बाँधत लँगूर हैं ।
तैसो कपि कौतुकी देरात ढीले गात कै-कै, लातके अघात सहै, जीमें कहै, कूर हैं ॥
बाल किलकारी कै-कै, तारी दै-दै गारी देत, पाछें लागे, बाजत निसान ढोल तूर हैं ।
बालधी बढ़न लागी, ठौर- ठौर दीन्ही आगी, बिंधिकी दवारि कैधौं कोटिसत सूर हैं ॥
लाइ- लाइ आगि भागे बालजाल जहाँ तहाँ, लघु ह्वै निबुक गिरि मेरुतें बिसाल भो ।
कौतुकी कपीसु कूदि कनक-कँगूराँ चढ्यो, रावन-भवन चढ़ि ठाढ़ो तेहि काल भो ॥
'तुलसी' विराज्यो ब्योम बालधी पसारि भारी, देखें हहरात भट, कालु सो कराल भो ।
तेजको निधानु मानो कोटिक कृसानु-भानु, नख बिकराल, मुखु तेसो रिस लाल भो ॥
२९ बालधी बिसाल बिकराल, ज्वालजाल मानो लंक लीलिबेको काल रसना पसारी है ।
कैधौं ब्योमबीथिका भरे हैं भूरि धूमकेतु, बीररस बीर तरवारि सो उघारी है ॥
'तुलसी' सुरेस-चापु, कैधौं दामिनि-कलापु, कैधौं चली मेरु तें कृसानु-सरि भारी है ।
देखें जातुधान-जातुधानीं अकुलानी कहैं, काननु उजार यो, अब नगरू प्रजारिहै ॥
जहाँ-तहाँ बुबुक बिलोकि बुबुकारी देत, जरत निकेत, धावौ, धावौ लागी आगि रे ।
कहाँ तातु-मातु, भ्रात-भगिनी, भामिनी-भाभी, ढोठा छोटे छोहरा अभागे भोंडे भागि रे ॥
हाथी छोरौ, घोरा छोरौ, महिष-बृषभ छोरौ, छेरी छोरौ, सो वैसो जगावै, जागि, जागि रे ।
'तुलसी' बिलोकि अकुलानी जातुधानीं कहैं, बार-बार कह्यौं, पिय! कपिसों न लागि रे ॥
३० देखि ज्वालाजालु, हाहाकारु दसकंध सुनि, कह्यो, धरो, धरो, धाए बीर बलवान हैं ।
लिएँ सूल-सेल, पास-परिघ, प्रचंड दंड, भाजन सनीर, धीर धरें धनु-बान हैं ॥
'तुलसी' समिध सौंज, लंक जग्यकुंडु लखि, जातुधानपुंगीफल जव तिल धान हैं ।
स्रवा सो लँगूल, बलमूल प्रतिकूल हबि, स्वाहा महा हाँकि हाँकि हुनैं हनुमान हैं ॥
गाज्यो कपि गाज ज्यौं, बिराज्यो ज्वालजालजुत, भाजे बीर धीर , अकुलाइ उठ्यो रावनो ।
धावौ, धावौ, धरौ, सुनि धाए जातुधान धारि, बारिधारा उलदै जलदु जौन सावनो ॥
लपट- झपट झहराने, हहराने बात, भहराने भट, पर यो प्रबल परावनो ।
ढकनि ढकेलि, पेलि सचिव चले लै ठेलि, नाथ! न चलैगो बलु, अनलु भयावनो ॥