उस शव को घर पर लाकर व्याघ्र चर्म से उसे आच्छादित करे । फिर उसकी महापूजा कर उस पर बैठ कर जप करे । पद्मासन लगाकर जप करने स शीघ्र ही योगी बन जाता है इसमें संशय नहीं । इस प्रकार शवसिद्धि का प्रकार सम्पादन कर साधक जितेन्द्रिय और योगफल के अर्थ का ज्ञाता हो जाता है । मेरी आज्ञा से ऐसा साधक सिद्ध हो जाता है , शिवगण हो जाता है तथा जगत् का स्वामी बन जाता है ॥५९ - ६१॥
मरे हुए भूत सर्प , राजा और व्याघ्र के व्याघ्र के शव पर मूल , खड्ग , यष्टि , परडि ?, तलवार लेकर जप करे । हे नाथ ! सुरा पीने वाले जिस भैरवोपासक की सम्मुख युद्ध करते हुए मृत्यु हो गई हो उसे लाकर जप किया जा सकता है । उस पर कौलासन अथवा कमलासन (= पद्मासन ) से बैठकर महाविद्या के महामन्त्र का जप करे तो स्पष्ट रुप से महाविद्या के चिन्ह दिखाई पड़ने लगते हैं ॥६२ - ६४॥
शवसाधना में त्याज्य शव --- यदि साधक अपना कल्याण चाहे तो निम्न प्रकार के शवों को जप के लिए न ग्रहण करे। जिसकी कुव्याधि से मृत्यु हो , जो कोढ़ी हो , स्त्री - वश्य हो अथवा पतित होकर मरा हो , जो दुर्भिक्ष में मरा हो , उन्मत्त हो कर मरा हो , जो स्त्री पुरुष के लिङ्ग से रहित ( नपुंसक ) होकर मरा हो , हीनाङ्ग होकर मरा हो , पृथ्वी पर विचरण करने वाला वृद्ध तथा युद्ध में भागते हुए मरा हो अथवा जिसने जिस विचार से किसी की हत्या कर दी हो , ऐसे शव पर बैठकर जो जप करते हैं वे सब व्याघ्र के भक्ष्य हो जाते हैं , उन्हें प्रेत बाघ का रुप धारण कर खा जाते हैं ॥६५ - ६७॥
जो शव बासी हो गया हो , अश्व पर स्थित होकर मरा हो , अधिकाङ्ग हो , बुरे से बुरा पाप किया हो ब्राह्मण हो , गोबर पर स्थित हो , वीरमार्ग में रहने वाला हो , धार्मिक हो ऐसे शव का परित्याग कर देना चाहिए । स्त्रीजन का शव और योगी का शव इन्हें छोड़कर वीर साधन करना चाहिए । तब मन्त्रज्ञ मेरी आज्ञा से सिद्ध हो जाता है इसमें संशय नहीं ॥६९॥
तरुण , सुन्दर , शूर , मन्त्रवेत्ता , प्रकाश , से उज्ज्चल शव को ग्रहण कर उस पर जप करने से साधक सिद्ध हो जाता है , अन्यथा नही । मनुष्य के हृत्पद्म में कुल अथवा अकुंल सभी सिद्धियाँ रहती है । उन पर उन - उन आसनों से जप करने से सिद्धि होती हैं इसमें संशय नहीं । इसके अतिरिक्त एक अन्य प्रकार है । कोमलादि आसन पर स्थित रहने वाला सुधी साधक वायु को धारण करने से योगिराज हो जाता है ॥७० - ७२॥
अब मैं उस कोमलासन को कह्ती हूँ , मेरी बात सुनिए । जो बहुत बड़ा न हुआ हो ऐसा ६ महीने के भीतर का मरा हुआ बालक अत्यन्त कोमल कहा जाता है । उनके भेदों को कहती हूँ । गिरे हुए गर्भ वाला बालक महाशव कहा जाता है । उसे वाद्य के चमडे़ के ऊपर रख कर सुधी साधक जप करे ॥७३ - ७४॥
६महीने के बाद दश महीने की अवस्था वाले सुन्दर मुख वाले मरे बालक को जो आठवें गर्भ से उत्पन्न हो , उसे लाकर एक हाथ दो हाथ , अथवा चार वाले विशुद्ध आसन पर बैठकर उसका संस्कार तथा पूजन करे ॥७५ - ७६॥
पाँच वर्ष पूर्ण हो जाने पर साधक सर्वथा सर्वथा निर्भय हो जाता है । बिन यज्ञोपवीत हुए अथवा वीतोपनयन (?) वाला मग हुआ बालक भी कोमल कहा जाता है । हे नाथ ! अब गिरे हुए गर्भ वाले बालकों के विषय में होने वाले फलों को सुनिए । जिस पर एक संवत्सर पर्यन्त साधन करने से अणिमा आदि अष्टसिद्धियों की सिद्धि होती है ॥७७ - ७८॥
गर्भच्युत मरे हुए बालक के आसन पर बैठकर साधक महाविद्या के मन्त्र का जप करे तो उसे शीघ्र ही सिद्धि होती है इसमें विचार की आवश्यकता नहीं है । अब हे नाथ ! अन्य प्रकार से शव माहात्म्य का श्रवण कीजिए , जिसकी साधना से सिद्धि होती है । ऐसा साधक योगिराज बन कर मेरे पैर के नीचे निवास करता है ॥७९ - ८०॥
ठीक दश वर्ष बीत जाने पर जो किसी शुभ दिन में मरा हो साधक उसे शनिवार अथवा मङ्गलवार के दिन लकर सिद्ध करे । इस प्रकार के शव पर वीरासन लगाकर भद्रकाली मन्त्र का जप करे अथवा पद्मासन लगाकर जप करे तो वह निश्चित रुप से सिद्ध हो जाता है ॥८१ - ८२॥
शव के अकस्मात् प्राप्त होने पर उसकी साधना से होने वाले फल कहती हूँ , जो शवादि के साधन से प्राप्त होता है । सुन्दर १५ वर्ष की अवस्था वाला जो रणभूमि में मारा गया हो , ऐसे शव को लाकर वीरासन पर स्थित हो रात्रि के समय महाविद्या मन्त्र का जप ऐसा करने से खेचरी वायुपूरणी सिद्धि होती है । इस प्रकार से साधन करने वाले की धारणा शक्ति की सिद्धि होती है । ऐसे ही षोडश वर्षीय शव पर वीरासन से स्थित हो साधना करे तो पुरुष को सारी सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं । ऐसे शवेन्द्र साधन करने से साधक के हाथ में भोग और मोक्ष दोनों हो जाते हैं ॥८५ - ८६॥
इसी प्रकार क्रमशः पचास वर्ष तक की अवस्था वाले युद्ध में मरे हुए श्रेष्ठ शव को लाकर उसके ऊपर जो साधना करता है , वह निश्चित रुप से योगी हो जाता है । रण में मरे हुए शव को लाकर बड़ी सावधानी के साथ सिद्ध करना चाहिए । हे नाथ ! रण में मरे हुए शव के साधन से साधक इन्द्र के समान बलवान् हो जाता है ॥८७ - ८८॥
हे नाथ ! और भी सुनिए । यदि सम्मुख युद्ध में पट्टिश अस्त्र से कोई मर गया हो तो ऐसे शव को लाकर उस पर वीरेन्द्र साधक वीरासन से स्थित हो कर जप करे । हे महादेव ! उस शव को पूजा के लिए अपने घर पर देवालय में अथवा किसी निर्जन स्थान में स्थापित कर जप करना चाहिए ॥८९ - ९०॥
उस पर न केवल वीरासन अपितु योनिमुद्रासनादि अथवा पद्मासन लगाकर वायु को धारण करते हुए जप करे । ऐसा करने से ब्राह्मण साधक गुणी , पवित्र और योगी बन जाता है । युवावस्था वाले शव पर जप करने से सूक्ष्म वायु के धारण का ज्ञान हो जाता हो जाता है ॥९१ - ९२॥
शव साधन काल से लेकर साधक जो जो कर्म करता है उस कर्म की साधना से मनुष्य योगी तथा अमर हो जाता है ॥९३॥
आनन्दभैरवी ने पुनः कहा - कला - क्रिया का ज्ञानकर सूक्ष्म वायु धारण करना चाहिए । ऐसा वीराचार का विवेचन करने वाला वीर साधक भूमण्डल में विचरण करे ॥९४॥
अब हे शिवेन्द्र ! हे चन्द्रशेखर ! रण में मरे हुए शव की उत्तम क्रिया के माहात्म्य को सुनिए । पृथ्वी में डेढ़ हाथ नीचे खने हुएअ गढ़डे में विधिपूर्वक मन्दिर बनाकर उसमें शव स्थापन कर हे प्रभो ! माया मन में निम्न धारणा करे ॥९५ - ९६॥
आधार के अन्तर्गत रहने वाली जगत् की आधारभूता केवल मैं ही हूँ । मेरा कोई स्वामी नहीं है । यह सारा चराचर जगत सूक्ष्मरुप से मेरा ही है । मेरा साधक बहुत पुण्य वाला है । वह धर्म अर्थ , काम , मोक्ष का अधिकारी है । सरस्वीती रुप से मैं उसकी धात्री बनकर रक्षा करती हूँ ॥९७ - ९८॥
हे योगपरायण शम्भो ! केवल मेरा ज्ञान न होने से अपके द्वारा संसार बनाने के कारण लोग आप में मग्न हो जाते हैं , ऐसे जो आप हैं वही मैं भी हूँ । हे सदाशिव ! जिन पदार्थ समूहों में आप प्रसन्नता से निवास करते हो , उन - उन पदार्थों म्रें प्रसन्नता पूर्वक मौं भी निवास करती हूँ , इसमें संशय नहीं ॥९९ - १००॥
आप भी यही भावना करते हो , इसी हेतु से मैं भी आपको प्यारी हूँ , और काम क्रोधादि दोषों से वर्जित रहकर नित्य आपके वामाङ्ग में स्थित रहती हूँ ॥१०१॥
आनन्दभैरव ने कहा - हे भद्रे ! शवादि के साधन से क्या प्रयोजन है ? साधक यदि तुम्हारे चरण कमलों के मधु को पीकर उन्मत्त बना रहे ॥१०२॥
हे त्रैलोक्यपूजिते ! हे भीमे ! हे वाग्वादनस्वरुपिणि ! किस प्रकार शव साधन मात्र से साधक योगी बन जाता है उसे कहिए । आनन्द रस के लावण्य़ से युक्त मुखाम्बुज से मन्द हास्य करने वाली हे देवी ! साधक लोग योग के लिए जब योगी होते हैं , फिर किस प्रकार शव साधन करते हैं उसका फल कहिए ॥१०३ - १०४॥
आनन्द भैरवी ने कहा --- हे शङ्कर ! यद्यपि आप मेरे भक्त , हैं , मुझ शक्ति के जप में परायण हैं फिर भी शव भाव से शव के समान बनकर शव साधन करना चाहिए । शव साधन रात्रि में ही करे । दिने में कदापि न करे जो शव पर स्थिर रह गया वह मेरा भक्त है इसमें संशय नहीं ॥१०५ - १०६॥
शव के समान आकृति वाली वस्तु सदैव मेरे संतुष्टि का साधन है । मेरी आज्ञा पालन की योग्यता रखने वाला वीर साधक शव साधन करे । मैं जिस समय उसके पास जाती हूँ , उसी समय वह शिव स्वरुप बन जाता है । शरीर का सब कुछ त्याग देने पर अथवा प्रलय कर देने पर शवत्व प्राप्त होता है ॥१०७ - १०८॥
हे महेश्वर ! त्रैलोक्य पूजित मुझ देवी में जो साधक अपनी समस्त भावराशि समर्पित कर देता है और शवा का आश्रय ले लेता है , वह शिव है । हे कामिनी नाथ ! मैं पृथ्वी पर भक्त पर अधिकार रखती हूँ और शव की पीठ से उसका पालन करती हूँ इसमें संदेह नहीं ॥१०९ - ११०॥
पशुमारण के लिए जब शरीर उपस्थित किया जाता है तभी वह अहङ्कर त्याग देता है । इसी प्रकार सभी मरे हुए अपना अहङ्कार त्याग देते हैं वे किस हेतु के बल पर जीवित रहें । रण में प्राण त्याग करने वाला शवेन्द्र हमारी आहुति का महान् द्रव्य है । अतः उसको लाकर जो साधक उससे साधन करता है वह स्थिर रुप से मेरी भक्ति का अधिकारी हो जाता है ॥१११ - ११२॥
जो सर्वदा क्रोध करता है वही क्रुर है इसमें संशय नहीं । ऐसा विहवल ( क्रुर ) वीर साधक रात्रि में किस प्रकार शवा साधान करने में समर्थ हो सकता है ? । जिसका चित्त भय से विहवल है वहीं क्रोधी है इसमें संशय नहीं । क्रोध के समान कोई पाप नहीं है अतः पाप से शव साधन करने वाला साधक विक्षिप्त हो जाता है ॥११३ - ११४॥
शवसाधना के अधिकारी --- जो भक्त पाप से निर्मुक्त है औरा किसी ( क्रोधादि ) का आश्रय नहीं लेता वह सिद्ध का स्वरुप है , विवेका है और ध्यान निष्ठ है । अतः स्थिर रहने के कारण वह शव साधन का अधिकारी है । जब तक चित्त स्थिर न हो जब तक इन्द्रियाँ अपने वश में न हों तब तक शवेन्द्र का साधन कादापि नहीं करना चाहिए ॥११५ - ११६॥
साधक उस शव को द्वार पर ले आवे , उसे खन कर पृथ्वी में गाड़ देवे , फिर उसी से उस दिन से आरम्भ कर उसी दिन पर्यन्त अर्थात् संवत्सर पर्यन्त साधना करनी चाहिए । इस प्रकार जितेन्द्रिय होकर हविष्यान्न भोजन करते हुए प्रसन्नता के साथ अष्टाङ्ग साधन द्वारा महाविद्या की साधना करे ॥११७ - ११८॥