चित्त भूमिका में निवास करने वाले ये छ शङ्कर समस्त सिद्धियाँ प्रदान करने वाले है ये सभी उस पत्र के अग्रभाग में ( द्र० . १५ . २ , १३ ) अमृतधारा रस से परिपूर्ण हो कर निवास करते हैं । इनका मुख नीचे की ओर है , और स्वरुप अत्यन्त सूक्ष्म है , इनकी कान्ति करोड़ों सूर्य के समान है , ये सभी षट् चक्रमण्डल के ब्रहामार्ग में स्थित रहने वाले है ॥२१ - २२॥
आज्ञा चक्र के नीचे द्वादश चक्र ( द्र० . १५ . २ , १३ ) का ध्यान करना चाहिए जो कुण्डलिनी को अत्यन्त प्रिय हैं और गिरते हुये अमृत धाराओं से नित्य परिपूर्ण रहते हैं । यतः कुण्डलिनी शक्ति अग्नि देवता से सम्बन्धित हैं , अतः उन्हें इस अधोभाग में स्थित रहने वाली अम्रृत धारा से तृप्त करना चाहिए । इसीलिए परानन्द के रस का अधोभाग में स्थित रहने वाली अमृत धारा से तृप्त करना चाहिए । इसीलिए परानन्द के रस का अनुभव करने वाले ये षट् शिव ( द्र० . १५ . २० ) उसको तृत्प करते रहते है ॥२३ - २४॥
ये चन्द्रमण्डल में निवास करने वाले जीनों के समान आत्मज्ञान की आसक्ति में लीन रह कर शक्ति तर्पण में लगे रहते हैं ।
विष्णु का ध्यान - हे कुलेश्वर ! उस वेद शाखा का द्वितीय दल यजुर्वेद का स्वरुप है । यह विष्णु से संयुक्त रहता है तथा अकस्मात् सिद्धि प्रदान करता है ॥२५ - २६॥
वे विष्णु करोड़ों वज्र के समान महान् शब्द करने वाले हैं व घोरनाद से संयुक्त हैं । ये हरि , ईश्वर , ईशान , वासुदेव तथा सनातन कहे जाते हैं। सत्त्व के अधिष्ठान होने से ये विनयशील हैं । ये धर्म , अर्थ काम तथा मोक्ष रुप चतुवर्गों को देने वाले हैं और मनोरथ से भी अधिक देने वाले योगेश्वर कृष्ण सबके प्रभु हैं ॥२७ - २८॥
राधिका जिन्हे राकिणी देवी कहा जाता है ऐसी वायवी शक्ति से वह सेवित हैं । ये महाबलवान् महावीर तथा शंख चक्र एवं गदा धारण करने वाले हैं । पीताम्बर धारण करने वाले ( विष्णु ) समस्त जगत् के स्थिरांश , यौवन के आमोद से परिपूर्ण रुप से सुशोभित , श्रुति रुपी कन्याओं से घिरे हुये है तथा ’ श्रीविद्या ’ जिन्हे राधा भी कहा जाता है उनके प्रभु है ॥२९ - ३०॥
वह दैत्य दानवों के विनाशकर्ता , जगात् रुप शरीर को सुख देने वाले , ( द्वाद्श राशिगत ) भाव के अनुसार फल देने वाले , भक्ति के निलय तथा सागर से उत्पन्न हुये साक्षात् चन्द्रमा हैं । गरुडासन पर आसीन , मन के अनुसार रुप धारण करने वाले , जगन्मय , यज्ञकर्म विधानवेत्ता तथा आज्ञाचक्र पर निवास करने वाले हैं ॥३१ - ३२॥
ऊपर से नीचे की और गिरने वाले , परामृत के रस के पीने से उन्मत्त ( मस्ती से परिपूर्ण ) शरीर वाले साधक , योगनिरत तथा स्वाधिष्ठान चक्र में नित्य निवास करते वाले हैं ॥३३॥
हे शङ्कर ! इस प्रकार के आकार वाले विष्णु का ध्यान कर साधक शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त कर लेता है ।
तब आनन्दभैरव ने पूछा - हे सुरेश्वरि ! इस पृथ्वी पर कौन वैष्णव है ? कौन वाजिमेघ करने वाला याज्ञिक है ? कौन धार्मिक है ? और योग किसे कहते है ? वह हमें बताइए। आनन्दभैरवी ने कहा - हे आनन्दभैरव ! अब काल का लक्षण सुनिए ॥३४ - ३५॥