इसके बाद स्वाती से लेकर आठ नक्षत्र ( स्वाती से पूर्वाषाढ़ तक ) तृतीय दल पर लिखना चाहिए । उन्हें क्रमशः सुन्दर तारा समझना चाहिए । अन्यथा अशुभ ? समझना चाहिए । उनका फल विपरीत स्थान में कुत्सित तो कहा गया है , किन्तु सुफल के स्थान में वे कुफल देने वाले हैं , और कुफल स्थान में सुफल देने वाले है ॥८४ - ८५॥
इसके बादा उत्तराषाढ़ से रेवती पर्यन्त नक्षत्रों का फल तभी होता है जब मनुष्य कर्म ( उद्योग ) में निरत रहे । हे महादेव ! हे प्रभो ! अब अश्विनी आदि नक्षत्रों के फल को कहती हूँ । जिसका ज्ञान हो जाने पर पर देवता दिशाओं और विदिशाओं की रक्षा करने में समर्थ हो गये । उसका कारण यहीं है कि उसका ज्ञान महापुण्य कारक तथा फलदायी है ॥८६ - ८८॥
यदि वह अश्विनी है तो वह इस प्रकार का फल देने वाला नक्षत्र है --- त्रिभुवन में विदित कारने वाला , त्रैलोक्य में आहलाद की सिद्धि करने वाला और सौख्य पूजा प्रदान करने वाला है । ऐसा पुरुषा सिद्ध , भ्रान्त तथा विशाला होता है । वह विदलित ( दीन - हीन ) को वर देने वाला , वेदना से युक्त , आर्द्र हृदय वाला और शङ्का से रहित करने वाला होता है । किं बहुना लोक के समस्त फलों को अपने फलमय शरीर में धारण कर मन्दों के मन्दता युक्त गुणों का अपहनन करता है और हीन तथा दीनों के दुःख को दूर करता है ॥८९॥
हे प्राण वल्लभ ! हे प्रेम भावक ! हे देवेश ! इस प्रकार समस्त तारा गणों का फलाफल पुनः पुनः सुनिए ॥९०॥