उत्तम साधक का लक्षण --- रात्रि में गन्धादि से परिपूर्ण हो कर मुख में ताम्बूल का बीड़ा चबाते हुये विजय और आनन्द से संपन्न जो साधक निर्भय हो कर किसी निर्जन स्थान अथवा घर में जीवात्मा और परमात्मा में ऐक्य की भावना करते हुये सारी रात जप करता है वही महकाली का दास दिव्यों में उत्तमोत्तम साधक कहा गया है ॥३७ - ३९॥
इस प्रकार तीनों भावों का लक्षण जान कर जो कर्म करता है वह अष्ट ऐश्वर्यों से युक्त हो कर निश्चित रूप से सर्वज्ञ हो जाता है । हे नाथ ! तीनों भावों में रहने वाले भावमात्र के पुण्यों को मैं कहता हूँ , सावधान हो कर सुनिए ।
साधक जिसके संकेत मात्र से अकस्मात् सिद्धि प्राप्त कर लेता है , हे महादेव ! उसे निःसंदेह सिद्धि प्राप्त होती है । उस सूक्ष्मभाव का संकेतार्थ मैं द्वादश पटल में कहूँगी ॥३९ - ४२॥
आनन्दभैरवी ने पुनः कहा --- इस एकादश पटल में शुद्ध भावर्थ का निरूपण किया गया है । भाव से सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है । यह तीनों जगत् भावाधीन ही है । हे महादेव ! भाव के बिना कभी किसी को सिद्धि नहीं प्राप्त होती ।
भाव प्रश्न के लिए कला --- पशुभाव का आश्रय लेने वाले साधकों को अरुणोदय काल से दश दण्ड ( ४घण्टे ) पर्यन्त काल का आश्रय लेना चाहिए । हे विभो ! केवल भाव प्रश्नार्थबोधक प्रश्न के लिए भी यही काल उचित है । इसी प्रकार विचक्षण पुरुषों को द्वादाश पटल में कहूँगी ॥३९ - ४२॥
नासापुट के पञ्चस्वर का महत्त्व औरा उनकी संज्ञ - इसमें अनुलोम एवं विलोम क्रम से तथा पञ्च स्वरों के भेद से बाल्यावस्था , किशोरावस्था तथा सौन्दर्ययुक्त यौवन और वृद्धावस्था एवं अस्तमित ( मृत ) संज्ञा वाला काल क्रमशः जानना चाहिए । पञ्चस्वरों में इसी का विधान है । हे भैरव ! उक्त चार स्वरों ( द्र०११ . ४७ ) के अतिरिक्त नासिका के अग्राभाग में स्थित रहने वाला पाँचवाँ स्वर भी कहा गया है ॥४६ - ४८॥
हे भैरव ! जिस नासिका के छिद्र के मध्य से वायु बहती हो , साधक उसी नासापुट के द्वारा बहते हुये वायु से कार्य के भावाभाव की परीक्षा करे । हे प्रभो ! बाल्य , कैशोर , युवा , वृद्ध और अस्तादि भेद के क्रम के से प्रथम बाल्य की आकाश संज्ञा , द्वितीय कैशोर की वायु संज्ञा , तृतीय यौवन की तैजस संज्ञा , चतुर्थ वृद्धावस्था की वरुण संज्ञा तथा पञ्चम अस्तमित की ’ पार्थिव ’ संज्ञा समझनी चाहिए ॥४८ - ५०॥
स्वर का फल विचार --- ( प्रस्थान काल में ) बायें स्वर के चलते यदि स्त्री दिखाई पड़ जाय तो वह शुभ है तथा दाहिना स्वर चलते समय यदि पुरुष दिखाई पड़े तो शुभ है ॥५०॥
बाल्य भाव --- नासिकास्थ वायु का गमन गगन पर्यन्त कहा गया है , यदि नासिकास्थ वायु मध्यदेश में चले तो पवन का गमन समझना चाहिए । इसे आकाशतत्त्व का तथा बाल्यभाव का उदय कहना चाहिए । जब नासिका के अग्रभाग से वायु तिरछी चले तो वायुतत्त्व का उदय समझना चाहिए ॥५१ - ५२॥
हे विभो ! वायु के तिरछे चलने पर किशोरावस्था जाननी चाहिए । उसमें प्रश्नकर्ता के केवल भ्रमण करना पड़ता है किन्तु सभी प्रकार का मङ्कल भी होता है ॥५३॥
जब नासिका के ऊर्ध्वभाग से द्ण्डे के समान केवल सीधा वायु चले तो तजस तत्त्व का उदय समझना चाहिए । उसमें यात्रा बलवती होती है ॥५४॥
जब अधिक चेष्टा करने पर भी विलम्ब से वायु बहे तो वृद्धावस्था समझनी चाहिए । इस वरुण रूप अम्भस का उदय होने से रोगों की उत्पत्ति जाननी चाहिए ॥५५॥
इसी प्रकार जब नासिकास्थ वायु नीचे चले और ऊपर की ओर न दिखाई पडे़ तो वह श्वास रोग देकर शरीर को उपद्रवग्रस्त कर देता है ॥५६॥
हे महादेव ! यह पृथ्वी तत्त्व का वायु है जो रोग आतप से प्रपीडित करता है । अनुलोम से विलोम की ओर चलने वाले दायु की ’ अस्तमित ’ संज्ञा है ।
कभी बायें से दक्षिण और कभी दक्षिण से बायें वायु बहुत शीघ्रता से चलता है । जब वायु दक्षिण से बायें नासिकापुटमे प्रवेश करे तो पृथ्वी और जल तत्त्व का उदय समझना चाहिए । वह नासा रुपी मुदित कुण्डमण्डल में फलाफल दोनों ही प्रदान करता है ॥५७ - ५९॥
यदि स्त्री प्रश्न करने वाली हो और वामभाग से वायवी शक्ति प्रवाहित हो तो उसे शुभ फल मिलता है । यदि वाम नासा चलते समय पुरुष प्रश्न करे तो उसे रोग की प्राप्ति होती है । वह निश्चय ही कर्महीन रहता है । यदि बायें से वायु का उदय हो और प्रश्नकर्ता पुरुषा दाहिनी ओर स्थित हो तो उसे सुफल प्राप्त नहीं होता है । द्रव्य ( धन ) का आगमन दुर्लभ होता है । अकस्मात् उसके द्रव्य की हानि होती है और उसके समस्त मनोगत फल नष्ट हो जाते हैं ॥५९ - ६२॥
उसके मित्र नष्ट हो जाते हैं और उसे विवाद का सामना करना पड़ता है । आकाशादि तत्त्वों का शुभाशुभ फल विचार -( उस वॉई नासिका से वायु के उदय की अपेक्षा ) भिन्न भिन्न तत्त्वों के उदय में वह शूभकारी है । पुरुष के दक्षिण नासा से चलने वाल जल तत्त्व शुभकारी है ॥६३॥
यदि दाहिने भाग से पृथ्वी तत्त्व चलता हो तो वह अशुभ है । दक्षिण नासिका से यदि वायु और तैजस तत्त्व प्रवहमान हो तो वह सर्वदा अभ्युदयकारक है , किन्तु इस स्वर भेद का ज्ञान होना बहुत दुर्लभ है ॥६४॥
हे प्रभो ! आकाश तत्त्व के भी शुभाशुभ फल का विचार करना चाहिए । यदि भाग्यवश दक्षिण नासा के मध्य में वायु की गति धीमी हो और उसकी अपेक्षा वामोदय हो तो शुभ है । उस समय बायें नासिका से वायु का विचार करना चाहिए । यदि वायु और तैजस दोनों तत्त्व का उदय हो तो मित्र की हानि तथा देवताओं का भय समझना चाहिए । इसी प्रकार यदि किसी सुन्दर मकान में वायवी तत्त्व प्रवहमान हो तो उस समय पुरुष दाहिने अथवा दक्षिण भाग में अथवा सम्मुख स्थित हो तो वह पुरुष कन्या दान ( विवाह ) का फल प्राप्त करता है ॥६५ - ६८॥
उस समय वह वायवी तत्त्व की कृपा से उत्तम धन प्राप्त करता है तथा देशान्तर में रहने वाले सम्बन्धी का समाचार मिलता है और उसे पुत्र एवं संपत्ति वहाँ से प्राप्त होती है ॥६९॥
राशिभेद होने पर बाल्यादिक तीनों भावों का शुभ फल कहना चाहिए । द्वादशराशि चक्र से उसका सूक्ष्म फल समझना चाहिए ॥७०॥
हे प्रभो ! अब आप उन चक्रों के नामों को सुनिए -
१ . आज्ञाचक्र , २ . कामचक्र , ३ . सारद फलचक्र , ४ . प्रश्नचक्र , ५ . भूमिचक्र उसके बाद ६ . स्वर्गचक्र , ७ . तुलाचक्र , ८ . वारिचक्र , ९ . त्रिगुणात्मक षट्चक्र , १० . सारचक्र , ११ . उल्काचक्र , तथा १२ . मृत्युचक्र । हे प्रभो ! क्रमशः इन चक्रों में अनुलोम तथा विलोम के अनुसार षट्कोण समझना चाहिए ॥७१ - ७३॥
यदि सभी चक्रों में स्वरज्ञान , वायु की संगति पूर्वक सभी प्रकार के प्रश्नों का सञ्चार भाव से उत्पन्न हो तो उस समय बुद्धिमान् को यदि कीर्ति की अभिलाष हो तो उस उस दण्ड के मान् से राशि का उदय समझकर प्रश्न पर विचार करना चाहिए ॥७४ - ७५॥