आनन्दभैरवी उवाच
आनन्दभैरवी ने कहा --- अब मैं दिव्यभावादि का निर्णयात्मक विषय कहती हूँ जिनके आश्रय से महारुद्र ’ भुवनेश्वर ’ नाम वाले बन गये ॥१॥
इतना ही नहीं जिसके ज्ञान से महाविष्णु देवताओं के तथ ब्रह्मदेव चारो वेदों के अधीश्वर हो गये । सनातन साक्षाद् ब्रह्म के ज्ञाता , मेरे पुत्र बटुक गणेश , इन्द्र , किं बहुना स्वर्ग के समस्त देवगण , दिक्पाल एवं खेचरादि आठो सिद्धियों से युक्त हो गये ॥२ - ३॥
हे महादेव ! हे आनन्दनाथ भैरव ! हे सुरानन्द ! हे ह्रदयानन्द ! हे ज्ञानानन्द ! हे दयामय ! यदि आप सिद्धि चाहते हैं , तो उनके प्रकारों को चित्त स्थिर कर सुनिए । क्योंकि आप मेरे शरीर में स्थित रहने वाले हैं , मुझे आनन्द देने वाले तथा मेरे प्रिय हैं ॥४ - ५॥
वेद आगम एवं विवेक से उत्पन्न होने वाला दिव्यभाव तीन प्रकार कहा गया है १ . उनमें वेदार्थ वाला दिव्यभाव अधम २ . आगम से उत्पन्न मध्यम तथा ३ . विवेकोल्लास से उत्पन्न सकल ( कलायुक्त ) दिव्यभाव , उत्तम कहा गया है । इसी प्रकार दिव्य , वीर और पशुभेद से सभी भावों के तीन प्रकार कहे गये हैं ॥६ - ७॥
विवेक से उत्पन्न दिव्यभाव सभी सिद्धियों का प्रदाता कहा गया है , आनन्द रस का सागर होने से उसको ’ सर्वोत्तम ’ समझना चाहिए ॥८॥
आगमशास्त्र से उत्पन्न क्रिया युक्त वीरभाव ’ मध्यम ’ तथा ३ फलस्तुति से युक्त वेद से उत्पन्न पशुभाव ’ अधम ’ समझना चाहिए ॥९॥
यतः सभी भावों में पशु भाव सभी सभी प्रकार के निन्दा से व्याप्त रहता है इसलिए वह अधम है । मनुष्यों को सिद्धि प्रदान करने के कारण उत्तम ज्ञान उत्तम ( दिव्य भाव ) में ही है ॥१०॥
मध्यम ( दिव्य भाव ) में मधुमती विद्या है जो मेरे कुलागमशास्त्र से उद्भूत है और अकाल मृत्यु को हरण करने वाला सभी भावों में अत्यन्त दुर्लभ ’ वीरभाव ’ है ॥११॥
हे नाथ ! इस ’ वीरभाव ’ के बिना किसी को कोई सिद्धि मिलने वाली नहीं है । अधम ( पशु भाव ) में अधम व्याख्या है और वह सर्वदा निन्दार्थ का प्रतिपादक है ॥१२॥
पशुभाव में सिद्धि तभी होती है जब साधक सर्वदा वेद का अभ्यास करता रहे । किन्तु उसकी फलावाप्ति तब होती है जब वेदों की निन्दा न करें ॥१३॥
पशुभाव में स्थित साधक हिंसा एवं आलस्य का त्याग कर सब प्रकार की निन्दा से विरहित रहकर वेदार्थ का चिन्तन करें , वेदपाठ करे और वेदपाठ के उच्चारण में ध्वनि का ध्यान रखे । लोभ , मोह , काम , क्रोध , मद और मात्सर्य दोषों से सर्वदा दूर रहे और साधक पशुभाव में स्थित रहे तो उसे पशुभाव में भी सिद्धि प्राप्त हो जाती है ॥१४ - १५॥
हे महादेव ! इस पृथ्वीतल में पशुभाव ही महाभाव है - ऐसा जो समझते हैं , उन्हें श्रम और अभ्यास के कारण कोई भी वस्तुअ असाध्य नहीं रहती । क्योंकि जगत् की सारी वस्तुयें श्रमाधीन हैं । किं बहुना , सारे देवता श्रम से वशीभूत हो जाते हैं ।
महमन्त्र भी श्रम से सिद्धि देते हैं औरा तपस्या भी ॥१६ - १७॥
समस्त कुलाचार श्रमाधीन है । अतः पशुभाव का दूसरा नाम ’ श्रम ’ है । वेदार्थ के ज्ञान मात्रद से पशुभाव कुल ( कुण्डलिनी में लीन होने वाले ) के लिए प्रिय है । स्मृति , आगम , पुराण या विविध प्रकार के वेदार्थों से युक्त , किं बहुना सभी शास्त्रों का अभ्यास करने से तत्त्वज्ञान हो जाने पर साधक बुद्धिमान् हो जाता है । इसलिए जिस प्रकार चावल चाहने वाला व्यक्ति धान्य की भूसी को त्याग देता है उसी प्रकार साधकोत्तम साधक भी ज्ञान हो जाने पर समस्त शास्त्रों का त्याग कर देवे और ज्ञान प्राप्ता कर भाबों के सार मात्र का आश्रय ग्रहण करे ॥१८ - २०॥
तीनों भावों के लक्षण --- वेद में ज्ञानी साधक वेद प्रतिपादित क्रिया करे । मेरे वचनों में आदर भाव रखे । इस प्रकार श्रम से दग्ध होने वाले , पशुओं का यहाँ तक लक्षण कहा गया है ॥२१॥
मेरे कुलागम में कही गई विधि के अनुसार ( वीर भाव का साधक ) आगमार्थ क्रिया करे । इस प्रकार मेरे शरीर का अनुगमन करने वाले निर्भय वीरों को मेरी इच्छा के अनुकूल सर्वदा व्यवहार करना चाहिए । यहाँ तक वीरभाव का लक्षण कहा गया ॥२२ - २॥
स्तिर चित्त वालों को अपनी विवेक सूत्र संज्ञा रूप प्रज्ञा के अनुसार मेरी आज्ञा का पालन करना चाहिए । यतः सभी जगत को समभाव से देखने वालों के लिए भावमात्र ही साधन है । समस्त चराचरात्मक जगत् मेरे चरण कमलों से उत्पन्न हुआ है ऐसी सम बुद्धि रखनी चाहिए। मेरी आज्ञा लेकर साधक , जो भी कर्म करता है वह अखण्ड फल देने वाला होता है । यहाँ तक अखण्ड ज्ञान से युक्त चित्त वाले विवेकी तथा निर्मलानन्द से परिपूर्ण दिव्य ज्ञान वालों के लक्षण कहे गये ॥२३ - २६॥
इस पृथ्वीतल में दिव्यभाव में इन तीन लक्षणों को जो जानता है ऐसा महावीर साधक श्रेष्ठ कभी भी विनष्ट नहीं होता । हे नाथ ! दिव्यभाव के बिना जो साधक मेरे चरण कमलों का दर्शन चाहता है वह महामूर्ख है । फिर वह साधक कैसे हो सकता है ? प्रथम पशुभाव , द्वितीय वीरभाव , और तृतीय दिव्य भाव है , इस प्रकार क्रम से दिव्यभाव के तीन भेद होते हैं । हे त्रैलोक्य को पवित्र करने वाले सदाशिव ! अब उन भावों के प्रकारों को सुनिए ॥२६ - २९॥
तीन भावों को विशेष रुप से जानने वाला , षट्चक्रों का भेदन करने वाला , पञ्चतत्त्वार्थ के भावों का ज्ञानी तथा दिव्याचारा में जो निरत है ऐसा ही साधक श्रीमान् एवं सिद्धों में श्रेष्ठ होता है । वह अष्ट ऐश्वर्य से समन्वित हो कर शिव के समान ब्रह्माण्ड में विहार करता है ॥३० - ३१॥
सभी स्थानों पर पवित्र भाव से प्रातःकाल से मध्याहन काल पर्यन्त आनन्दघन सच्चिदानन्द का साधन करने वाला और उनकी धारणा करने वाला , शास्त्र प्रतिपादित पदार्थों का भोजन करने वाला और क्रमशः संयम पथ पर अग्रसर रहने वाला तथा दिव्यभाव में पशुभाव के क्रम से साधक करने वाला साधक सिद्ध होता है ॥३२ - ३३॥