श्रीभैरवी उवाच
श्रीभैरवी ने कहा --- हे भैरव ! अब अन्य चक्र कहती हूँ उसे आदरपूर्व सुनिए । जिसका ज्ञान न होने से वर देनी वाली महाविद्यायें सिद्ध नहीं होती । वह चक्र आपका है , ब्रह्मा ने उसे प्रगट किया इसलिए उसे ब्रह्मचक्र कह्ते हैं , जिसका ज्ञान प्राप्त कर ब्रह्मा स्वयं सृष्टि करने में समर्थ हो गये । वह चक्र अकाल मृत्यु का हरण करने वाला है , इसका ज्ञान हो जाने पर साधक अन्त में ब्रह्म पद प्राप्त कर लेता है ॥१ - ३॥
चतुष्कोण बनाकर उसके मध्य में पुनः चतुष्कोण बनावे , फिर उनमें एक एक चतुष्कोण में चार चार चतुष्कोणों की रचना करे । फिर मध्य में स्थित इष्ट ( आठ ) उत्तम मन्दिर को घेर कर , हे महादेव ! आठ कोणों पर १६ स्वर लिखे ॥३ - ४॥
फिर आठ कोणों को घेरकर सुधी साधक दो वृत्तों की रचना करे । तदनन्तर मध्य गेह के चारों कोनों पर ककार से आरम्भ कर क्षकार पर्यन्त वर्णों को लिखे । उत्तम साधक उन वर्णोंको दक्षिणावर्त से लिखे । उसके ऊपर अपने गृह में अङ्कों को लिखकर सुधी साधक गणना करे ॥५ - ६॥
चारगृह के ऊर्ध्व भाव के दो दो गृहों में क्रमपूर्वक साध्य के तथा साधक के मेष से आरम्भ कर कन्या पर्यन्त राशियों को लिखे । उसके नीचे तुला से आरम्भ कर शेष शुभ राशियों को लिखे । हे महेश्वर ! इसके बाद दाहिने गृह के दो गृहों में अश्विनी से लेकर समस्त नक्षत्र पर्यन्त राशियों को वर्णक्रम से चारों मन्दिरों में लिखे ॥७ - ९॥
हे सुरेश्वर ! फिर ऊपर से आरम्भ कर नीचे से क्रमशः अङ्क के ताराओं ( ? ) को लिखे । फिर मन्त्रज्ञ साधक सबको एक में मिलाकर गणना करे । प्रथम सुख , राज्य , धन , वृद्धि , कलह , काल ( मृत्यु ), सिद्धि , ऋद्धि इस प्रकार का फल उन अष्टकोणों से जानकर अपने शुभाशुभ का विचार करे ॥१० - ११॥
राशि तथा नक्षत्र की गणना करे । मृत्यु तथा कलह वाला मन्त्र वर्जित करे । सुख के गृह में सुख तथा राज्यगृह में राज्य की प्राप्ति होती है । धन में धन की प्राप्ति और वृद्धि में वृद्धि की प्राप्ति होती है । १ . मेष , २ . वृष , ३ . मिथुन , ४ . कर्क , ५ . सिंह तथा ६ . कन्या क्रमशः इनके देवता है । अब नक्षत्रों को सुनिए ॥१२ - १३॥
दोनों गृह के ऊपर दायें तथा बायें भाग में जिन नक्षत्रों का निवास है , हे महाप्रभो ! अब उन्हें सुनिए । अश्विनी , मृगशिर , आश्लेषा , ह्स्त , अनुराधा , उत्तराषाढा़ , आद्री एवं पूर्वाभाद्रपदा - ये दाहिनी ओर की तारायें हैं । ये स्पष्ट रूप से देवता नक्षत्र हैं । इन ताराओं के आगे कही जाने वाली ये सभी राशियाँ अधिपति हैं और ये सभी ग्रह स्वरूप भी हैं ॥१४ - १६॥
कर्क , सिंह और कन्या ये देवता राशि हैं जो इन नक्षत्रों के तथा वर्णों की अधिप राशियाँ है । ( १ ) ककार , खकार तथा ञकार के टकार वाले देवता हैं । ( २ ) दकार , फकार एवं यकार के सकार वाले देवता हैं ॥१७ - १८॥
हे प्रभो ! इसी प्रकार क्रम से नकार के सभी स्वामियों को समझ लेना चाहिए और अब आगे सुनिए । रोहिणी , पुष्य , उत्तरफाल्गुनी , विशाखा , पूर्वाषाढा़ तथा शतभिषा ये तारायें बायें भाग के मन्दिर में रहने वाली हैं । ( द्र० ४ . १४ ) ॥१९ - २०॥
इनके स्वामी राशियों को जो ग्रह स्वरूप हैं उन्हें इस प्रकार जानना चाहिए । मेष , वृष औरा मिथुन इनके स्वामी हैं । इन गृहों में रहने वाले इन - इन वर्णों की ये राशियाँ रक्षा करती हैं , किन्तु नित्य नहीं । ( ३ ) ककार , नकार तथा ऋकार के उकार वाले स्वामी हैं ॥२१ - २२॥
( ४ ) अकार , षकार , नकार तथा मकार का वकार अक्षर वाली राशि स्वामी है , ये सभी हकार अक्षर के भी स्वामी हैं जो ऋद्धि एवं मोक्ष रुप फल देने वाले हैं ॥२३॥
विमर्श --- १ . टकारप --- टकारं पिबति स्वान्तः स्थापयति - इस व्युत्पत्ति से टकार को अपने नाम में समाविष्ट करने वाला ’ कर्कट ’ ऐसा अर्थ संभव हो सकता है क्या ? ( अर्थात् टकार अक्षर वाली राशि )
२ . सकारप --- यहाँ पर भी सकारं पिबति स्वान्तः अन्तः स्थापयति - इस व्युत्पत्ति से केसरी , अर्थात् सिंह ऐसा अर्थ हो सकता है
क्या ? ( अर्थात् सकार अक्षर वाली राशि )
३ . उकारप --- उकारं पिबतिः स्वान्तः स्थापयति - इस व्युत्पत्ति से मिथुन अर्थ हो सकता है क्या ? ( अर्थात् उकार अक्षर वाली राशि ) ॥२३॥
( ५ ) दक्षिण गृह के नीचे रहने वाले गृह की ये देवता राशियाँ हैं । हे महेश्वर ! उनके नाम तुला , वृश्चिक और धनु हैं जो ग्रहेश्वर भी कहे जाते हैं ॥२४॥
मेरे द्वारा कही गई ये राशियाँ भरणी , आर्द्रा , मघा , चित्रा , ज्येष्ठा तथा श्रवण नक्षत्रों के स्वामी हैं । इसी प्रकार उत्तराभाद्रपद के भी स्वामी हैं । अब सबके भय को दूरा करने वाले , हे नाथ ! इन नक्षत्रों में रहने वाले वर्णों को सुनिए ॥२५ - २६॥
यकार , दकार , टकार के नकार अक्षर वाली राशि स्वामी है । धकार , वकार तथा चकार के यकार अक्षर वाली राशि स्वामी हैं । इसी प्रकार क्षकार की भी ये राशियाँ स्वामी कही गई हैं । जो धन तथा वृत्ति प्रदान करने वाली हैं तथा अपने स्थान में नित्य निवास करने वाली हैं ॥२७ - २८॥
बायीं ओर के नीचे के गृह की भी यही राशियाँ स्वामी हैं , गकार के नीचे वाले कोष्ठकों में मीन ही राशियों के फल रुप से स्थित है ॥२९॥
शूल पाश तथा असि ( तलवार ) धारण किए हुये उक्त राशियाँ इन सभी नक्षत्रों की रक्षा करती हैं । पुनर्वसु , कृत्तिका , पूर्वाफाल्गुनी , स्वाती , मूल , धनिष्ठा , रेवती इतने नक्षत्र बायीं ओर वाले गृह में निवास करने वाले हैं जिनके स्वामी जलचर गृह देवता हैं ॥३० - ३१॥
इस प्रकार गृहों में रहने वाली नव राशियाँ इन वर्णों की रक्षा करती हैं । धकार , जकार तथा टकार वर्णों की तकार अक्षर वाली राशि स्वामी है । नकार भकार एवं लकार वर्णों की सकार अक्षर वाली राशि स्वामी हैं , जो सभी कलहादि महादोषों वाली तथा काल का दर्शन कराने वाली है ॥३२ - ३३॥
राशिफल विचार --- हे नाथ ! जो राशियाँ लोकविनाशक है , उन राशि वाले मन्त्रों को त्याग देना चाहिए । यदि एक देवता वाले गृह में भिन्न भिन्न राशि वाले मन्त्र पड़ें तो शुभावह हैं । चौथा तथा दूसरा स्थान सभी मन्त्रों के ग्रहण में निषिद्ध कहा गया है । एक ही गृह में स्थित होने वाले मन्त्र बहुत सौख्य प्रदान करने वाले होते हैं । यदि राशि तथा नक्षत्र ज्ञात न हों तो नाम का आदि अक्षर ले कर गणना करे । समान भाव होने पर श्रेष्ठ साधक , किन्तु कलह में गणना होने पर कलह होता है ॥३४ - ३६॥
हे सुरेश्वर ! यदि शत्रु स्थान में नाम पड़े तो मूल सहित सर्वनाश होता है । किं बहुना कलह तो होता ही है । सिंह तथा कन्या नेत्रयुग्म ( इ ई ) स्वर की रक्षा करती है । तथा तुला कर्णयुग्म ( उ ऊ ) की , वृश्चिक धन संयुगं ( ए ऐ ) की वृश्चिक और धन राशि , चयुग की मकर , कुम्भ एवं मीन ओष्ठ की , अधर की मेष , दन्त युग्म की वृष तथा मिथुन शेष अक्षरों की रक्षा करती हैं ॥३७ - ३९॥
जिसकी जो जो राशियाँ होती है , उसके लिए वे वे स्वर शुभ कहे गये हैं , मन्त्र तथा साधक की एक राशि होने पर मनोरथ की सिद्धि प्राप्त होती है । अन्यत्र गृह दुखदायी कहा गया है , अतः साधक अपने राशि के गृह में सिद्धि का भाजन बनता है । इसलिए भिन्न राशि वर्जित करनी चाहिए , वह कलह कराने वाली है तथा काल का दर्शन कराती है ॥४० - ४१॥