उत्तरकाण्ड - दोहा १२१ से १३०

गोस्वामी तुलसीदासजीने रामचरितमानस ग्रन्थकी रचना दो वर्ष , सात महीने , छ्ब्बीस दिनमें पूरी की। संवत्‌ १६३३ के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में रामविवाहके दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये।


दोहा

एक ब्याधि बस नर मरहिं ए असाधि बहु ब्याधि ।

पीड़हिं संतत जीव कहुँ सो किमि लहै समाधि ॥१२१ -क॥

नेम धर्म आचार तप ग्यान जग्य जप दान ।

भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं रोग जाहिं हरिजान ॥१२१ -ख॥

चौपाला

एहि बिधि सकल जीव जग रोगी । सोक हरष भय प्रीति बियोगी ॥

मानक रोग कछुक मैं गाए । हहिं सब कें लखि बिरलेन्ह पाए ॥

जाने ते छीजहिं कछु पापी । नास न पावहिं जन परितापी ॥

बिषय कुपथ्य पाइ अंकुरे । मुनिहु हृदयँ का नर बापुरे ॥

राम कृपाँ नासहि सब रोगा । जौं एहि भाँति बनै संयोगा ॥

सदगुर बैद बचन बिस्वासा । संजम यह न बिषय कै आसा ॥

रघुपति भगति सजीवन मूरी । अनूपान श्रद्धा मति पूरी ॥

एहि बिधि भलेहिं सो रोग नसाहीं । नाहिं त जतन कोटि नहिं जाहीं ॥

जानिअ तब मन बिरुज गोसाँई । जब उर बल बिराग अधिकाई ॥

सुमति छुधा बाढ़इ नित नई । बिषय आस दुर्बलता गई ॥

बिमल ग्यान जल जब सो नहाई । तब रह राम भगति उर छाई ॥

सिव अज सुक सनकादिक नारद । जे मुनि ब्रह्म बिचार बिसारद ॥

सब कर मत खगनायक एहा । करिअ राम पद पंकज नेहा ॥

श्रुति पुरान सब ग्रंथ कहाहीं । रघुपति भगति बिना सुख नाहीं ॥

कमठ पीठ जामहिं बरु बारा । बंध्या सुत बरु काहुहि मारा ॥

फूलहिं नभ बरु बहुबिधि फूला । जीव न लह सुख हरि प्रतिकूला ॥

तृषा जाइ बरु मृगजल पाना । बरु जामहिं सस सीस बिषाना ॥

अंधकारु बरु रबिहि नसावै । राम बिमुख न जीव सुख पावै ॥

हिम ते अनल प्रगट बरु होई । बिमुख राम सुख पाव न कोई ॥

दोहा

बारि मथें घृत होइ बरु सिकता ते बरु तेल ।

बिनु हरि भजन न भव तरिअ यह सिद्धांत अपेल ॥१२२ -क॥

मसकहि करइ बिंरंचि प्रभु अजहि मसक ते हीन ।

अस बिचारि तजि संसय रामहि भजहिं प्रबीन ॥१२२ -ख॥

श्लोक

विनिच्श्रितं वदामि ते न अन्यथा वचांसि मे ।

हरिं नरा भजन्ति येऽतिदुस्तरं तरन्ति ते ॥१२२ग॥

चौपाला

कहेउँ नाथ हरि चरित अनूपा । ब्यास समास स्वमति अनुरुपा ॥

श्रुति सिद्धांत इहइ उरगारी । राम भजिअ सब काज बिसारी ॥

प्रभु रघुपति तजि सेइअ काही । मोहि से सठ पर ममता जाही ॥

तुम्ह बिग्यानरूप नहिं मोहा । नाथ कीन्हि मो पर अति छोहा ॥

पूछिहुँ राम कथा अति पावनि । सुक सनकादि संभु मन भावनि ॥

सत संगति दुर्लभ संसारा । निमिष दंड भरि एकउ बारा ॥

देखु गरुड़ निज हृदयँ बिचारी । मैं रघुबीर भजन अधिकारी ॥

सकुनाधम सब भाँति अपावन । प्रभु मोहि कीन्ह बिदित जग पावन ॥

दोहा

आजु धन्य मैं धन्य अति जद्यपि सब बिधि हीन ।

निज जन जानि राम मोहि संत समागम दीन ॥१२३ -क॥

नाथ जथामति भाषेउँ राखेउँ नहिं कछु गोइ ।

चरित सिंधु रघुनायक थाह कि पावइ कोइ ॥१२३॥

चौपाला

सुमिरि राम के गुन गन नाना । पुनि पुनि हरष भुसुंडि सुजाना ॥

महिमा निगम नेति करि गाई । अतुलित बल प्रताप प्रभुताई ॥

सिव अज पूज्य चरन रघुराई । मो पर कृपा परम मृदुलाई ॥

अस सुभाउ कहुँ सुनउँ न देखउँ । केहि खगेस रघुपति सम लेखउँ ॥

साधक सिद्ध बिमुक्त उदासी । कबि कोबिद कृतग्य संन्यासी ॥

जोगी सूर सुतापस ग्यानी । धर्म निरत पंडित बिग्यानी ॥

तरहिं न बिनु सेएँ मम स्वामी । राम नमामि नमामि नमामी ॥

सरन गएँ मो से अघ रासी । होहिं सुद्ध नमामि अबिनासी ॥

दोहा

जासु नाम भव भेषज हरन घोर त्रय सूल ।

सो कृपालु मोहि तो पर सदा रहउ अनुकूल ॥१२४ -क॥

सुनि भुसुंडि के बचन सुभ देखि राम पद नेह ।

बोलेउ प्रेम सहित गिरा गरुड़ बिगत संदेह ॥१२४ -ख॥

चौपाला

मै कृत्कृत्य भयउँ तव बानी । सुनि रघुबीर भगति रस सानी ॥

राम चरन नूतन रति भई । माया जनित बिपति सब गई ॥

मोह जलधि बोहित तुम्ह भए । मो कहँ नाथ बिबिध सुख दए ॥

मो पहिं होइ न प्रति उपकारा । बंदउँ तव पद बारहिं बारा ॥

पूरन काम राम अनुरागी । तुम्ह सम तात न कोउ बड़भागी ॥

संत बिटप सरिता गिरि धरनी । पर हित हेतु सबन्ह कै करनी ॥

संत हृदय नवनीत समाना । कहा कबिन्ह परि कहै न जाना ॥

निज परिताप द्रवइ नवनीता । पर दुख द्रवहिं संत सुपुनीता ॥

जीवन जन्म सुफल मम भयऊ । तव प्रसाद संसय सब गयऊ ॥

जानेहु सदा मोहि निज किंकर । पुनि पुनि उमा कहइ बिहंगबर ॥

दोहा

तासु चरन सिरु नाइ करि प्रेम सहित मतिधीर ।

गयउ गरुड़ बैकुंठ तब हृदयँ राखि रघुबीर ॥१२५ -क॥

गिरिजा संत समागम सम न लाभ कछु आन ।

बिनु हरि कृपा न होइ सो गावहिं बेद पुरान ॥१२५ -ख॥

चौपाला

कहेउँ परम पुनीत इतिहासा । सुनत श्रवन छूटहिं भव पासा ॥

प्रनत कल्पतरु करुना पुंजा । उपजइ प्रीति राम पद कंजा ॥

मन क्रम बचन जनित अघ जाई । सुनहिं जे कथा श्रवन मन लाई ॥

तीर्थाटन साधन समुदाई । जोग बिराग ग्यान निपुनाई ॥

नाना कर्म धर्म ब्रत दाना । संजम दम जप तप मख नाना ॥

भूत दया द्विज गुर सेवकाई । बिद्या बिनय बिबेक बड़ाई ॥

जहँ लगि साधन बेद बखानी । सब कर फल हरि भगति भवानी ॥

सो रघुनाथ भगति श्रुति गाई । राम कृपाँ काहूँ एक पाई ॥

दोहा

मुनि दुर्लभ हरि भगति नर पावहिं बिनहिं प्रयास ।

जे यह कथा निरंतर सुनहिं मानि बिस्वास ॥१२६॥

चौपाला

सोइ सर्बग्य गुनी सोइ ग्याता । सोइ महि मंडित पंडित दाता ॥

धर्म परायन सोइ कुल त्राता । राम चरन जा कर मन राता ॥

नीति निपुन सोइ परम सयाना । श्रुति सिद्धांत नीक तेहिं जाना ॥

सोइ कबि कोबिद सोइ रनधीरा । जो छल छाड़ि भजइ रघुबीरा ॥

धन्य देस सो जहँ सुरसरी । धन्य नारि पतिब्रत अनुसरी ॥

धन्य सो भूपु नीति जो करई । धन्य सो द्विज निज धर्म न टरई ॥

सो धन धन्य प्रथम गति जाकी । धन्य पुन्य रत मति सोइ पाकी ॥

धन्य घरी सोइ जब सतसंगा । धन्य जन्म द्विज भगति अभंगा ॥

दोहा

सो कुल धन्य उमा सुनु जगत पूज्य सुपुनीत ।

श्रीरघुबीर परायन जेहिं नर उपज बिनीत ॥१२७॥

चौपाला

मति अनुरूप कथा मैं भाषी । जद्यपि प्रथम गुप्त करि राखी ॥

तव मन प्रीति देखि अधिकाई । तब मैं रघुपति कथा सुनाई ॥

यह न कहिअ सठही हठसीलहि । जो मन लाइ न सुन हरि लीलहि ॥

कहिअ न लोभिहि क्रोधहि कामिहि । जो न भजइ सचराचर स्वामिहि ॥

द्विज द्रोहिहि न सुनाइअ कबहूँ । सुरपति सरिस होइ नृप जबहूँ ॥

राम कथा के तेइ अधिकारी । जिन्ह कें सतसंगति अति प्यारी ॥

गुर पद प्रीति नीति रत जेई । द्विज सेवक अधिकारी तेई ॥

ता कहँ यह बिसेष सुखदाई । जाहि प्रानप्रिय श्रीरघुराई ॥

दोहा

राम चरन रति जो चह अथवा पद निर्बान ।

भाव सहित सो यह कथा करउ श्रवन पुट पान ॥१२८॥

चौपाला

राम कथा गिरिजा मैं बरनी । कलि मल समनि मनोमल हरनी ॥

संसृति रोग सजीवन मूरी । राम कथा गावहिं श्रुति सूरी ॥

एहि महँ रुचिर सप्त सोपाना । रघुपति भगति केर पंथाना ॥

अति हरि कृपा जाहि पर होई । पाउँ देइ एहिं मारग सोई ॥

मन कामना सिद्धि नर पावा । जे यह कथा कपट तजि गावा ॥

कहहिं सुनहिं अनुमोदन करहीं । ते गोपद इव भवनिधि तरहीं ॥

सुनि सब कथा हृदयँ अति भाई । गिरिजा बोली गिरा सुहाई ॥

नाथ कृपाँ मम गत संदेहा । राम चरन उपजेउ नव नेहा ॥

दोहा

मैं कृतकृत्य भइउँ अब तव प्रसाद बिस्वेस ।

उपजी राम भगति दृढ़ बीते सकल कलेस ॥१२९॥

चौपाला

यह सुभ संभु उमा संबादा । सुख संपादन समन बिषादा ॥

भव भंजन गंजन संदेहा । जन रंजन सज्जन प्रिय एहा ॥

राम उपासक जे जग माहीं । एहि सम प्रिय तिन्ह के कछु नाहीं ॥

रघुपति कृपाँ जथामति गावा । मैं यह पावन चरित सुहावा ॥

एहिं कलिकाल न साधन दूजा । जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा ॥

रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि । संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि ॥

जासु पतित पावन बड़ बाना । गावहिं कबि श्रुति संत पुराना ॥

ताहि भजहि मन तजि कुटिलाई । राम भजें गति केहिं नहिं पाई ॥

छंद

पाई न केहिं गति पतित पावन राम भजि सुनु सठ मना ।

गनिका अजामिल ब्याध गीध गजादि खल तारे घना ॥

आभीर जमन किरात खस स्वपचादि अति अघरूप जे ।

कहि नाम बारक तेपि पावन होहिं राम नमामि ते ॥१॥

रघुबंस भूषन चरित यह नर कहहिं सुनहिं जे गावहीं ।

कलि मल मनोमल धोइ बिनु श्रम राम धाम सिधावहीं ॥

सत पंच चौपाईं मनोहर जानि जो नर उर धरै ।

दारुन अबिद्या पंच जनित बिकार श्रीरघुबर हरै ॥२॥

सुंदर सुजान कृपा निधान अनाथ पर कर प्रीति जो ।

सो एक राम अकाम हित निर्बानप्रद सम आन को ॥

जाकी कृपा लवलेस ते मतिमंद तुलसीदासहूँ ।

पायो परम बिश्रामु राम समान प्रभु नाहीं कहूँ ॥३॥

दोहा

मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर ।

अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु बिषम भव भीर ॥१३० -क॥

कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभहि प्रिय जिमि दाम ।

तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम ॥१३० -ख॥

श्लोक

यत्पूर्व प्रभुणा कृतं सुकविना श्रीशम्भुना दुर्गमं

श्रीमद्रामपदाब्जभक्तिमनिशं प्राप्त्यै तु रामायणम् ।

मत्वा तद्रघुनाथमनिरतं स्वान्तस्तमःशान्तये

भाषाबद्धमिदं चकार तुलसीदासस्तथा मानसम् ॥१॥

पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं

मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरं शुभम् ।

श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये

ते संसारपतङ्गघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः ॥२॥

मासपारायण , तीसवाँ विश्राम

नवान्हपारायण , नवाँ विश्राम

इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने

सप्तमः सोपानः समाप्तः ।

उत्तरकाण्ड समाप्त

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Last Updated : February 28, 2011

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