उत्तरकाण्ड - दोहा ५१ से ६०

गोस्वामी तुलसीदासजीने रामचरितमानस ग्रन्थकी रचना दो वर्ष , सात महीने , छ्ब्बीस दिनमें पूरी की। संवत्‌ १६३३ के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में रामविवाहके दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये।


दोहा

प्रेम सहित मुनि नारद बरनि राम गुन ग्राम ।

सोभासिंधु हृदयँ धरि गए जहाँ बिधि धाम ॥५१॥

चौपाला

गिरिजा सुनहु बिसद यह कथा । मैं सब कही मोरि मति जथा ॥

राम चरित सत कोटि अपारा । श्रुति सारदा न बरनै पारा ॥

राम अनंत अनंत गुनानी । जन्म कर्म अनंत नामानी ॥

जल सीकर महि रज गनि जाहीं । रघुपति चरित न बरनि सिराहीं ॥

बिमल कथा हरि पद दायनी । भगति होइ सुनि अनपायनी ॥

उमा कहिउँ सब कथा सुहाई । जो भुसुंडि खगपतिहि सुनाई ॥

कछुक राम गुन कहेउँ बखानी । अब का कहौं सो कहहु भवानी ॥

सुनि सुभ कथा उमा हरषानी । बोली अति बिनीत मृदु बानी ॥

धन्य धन्य मैं धन्य पुरारी । सुनेउँ राम गुन भव भय हारी ॥

दोहा

तुम्हरी कृपाँ कृपायतन अब कृतकृत्य न मोह ।

जानेउँ राम प्रताप प्रभु चिदानंद संदोह ॥५२ -क॥

चौपाला

नाथ तवानन ससि स्रवत कथा सुधा रघुबीर ।

श्रवन पुटन्हि मन पान करि नहिं अघात मतिधीर ॥५२ -ख॥

राम चरित जे सुनत अघाहीं । रस बिसेष जाना तिन्ह नाहीं ॥

जीवनमुक्त महामुनि जेऊ । हरि गुन सुनहीं निरंतर तेऊ ॥

भव सागर चह पार जो पावा । राम कथा ता कहँ दृढ़ नावा ॥

बिषइन्ह कहँ पुनि हरि गुन ग्रामा । श्रवन सुखद अरु मन अभिरामा ॥

श्रवनवंत अस को जग माहीं । जाहि न रघुपति चरित सोहाहीं ॥

ते जड़ जीव निजात्मक घाती । जिन्हहि न रघुपति कथा सोहाती ॥

हरिचरित्र मानस तुम्ह गावा । सुनि मैं नाथ अमिति सुख पावा ॥

तुम्ह जो कही यह कथा सुहाई । कागभसुंडि गरुड़ प्रति गाई ॥

दोहा

बिरति ग्यान बिग्यान दृढ़ राम चरन अति नेह ।

बायस तन रघुपति भगति मोहि परम संदेह ॥५३॥

चौपाला

नर सहस्त्र महँ सुनहु पुरारी । कोउ एक होइ धर्म ब्रतधारी ॥

धर्मसील कोटिक महँ कोई । बिषय बिमुख बिराग रत होई ॥

कोटि बिरक्त मध्य श्रुति कहई । सम्यक ग्यान सकृत कोउ लहई ॥

ग्यानवंत कोटिक महँ कोऊ । जीवनमुक्त सकृत जग सोऊ ॥

तिन्ह सहस्त्र महुँ सब सुख खानी । दुर्लभ ब्रह्मलीन बिग्यानी ॥

धर्मसील बिरक्त अरु ग्यानी । जीवनमुक्त ब्रह्मपर प्रानी ॥

सब ते सो दुर्लभ सुरराया । राम भगति रत गत मद माया ॥

सो हरिभगति काग किमि पाई । बिस्वनाथ मोहि कहहु बुझाई ॥

दोहा

राम परायन ग्यान रत गुनागार मति धीर ।

नाथ कहहु केहि कारन पायउ काक सरीर ॥५४॥

चौपाला

यह प्रभु चरित पवित्र सुहावा । कहहु कृपाल काग कहँ पावा ॥

तुम्ह केहि भाँति सुना मदनारी । कहहु मोहि अति कौतुक भारी ॥

गरुड़ महाग्यानी गुन रासी । हरि सेवक अति निकट निवासी ॥

तेहिं केहि हेतु काग सन जाई । सुनी कथा मुनि निकर बिहाई ॥

कहहु कवन बिधि भा संबादा । दोउ हरिभगत काग उरगादा ॥

गौरि गिरा सुनि सरल सुहाई । बोले सिव सादर सुख पाई ॥

धन्य सती पावन मति तोरी । रघुपति चरन प्रीति नहिं थोरी ॥

सुनहु परम पुनीत इतिहासा । जो सुनि सकल लोक भ्रम नासा ॥

उपजइ राम चरन बिस्वासा । भव निधि तर नर बिनहिं प्रयासा ॥

दोहा

ऐसिअ प्रस्न बिहंगपति कीन्ह काग सन जाइ ।

सो सब सादर कहिहउँ सुनहु उमा मन लाइ ॥५५॥

चौपाला

मैं जिमि कथा सुनी भव मोचनि । सो प्रसंग सुनु सुमुखि सुलोचनि ॥

प्रथम दच्छ गृह तव अवतारा । सती नाम तब रहा तुम्हारा ॥

दच्छ जग्य तब भा अपमाना । तुम्ह अति क्रोध तजे तब प्राना ॥

मम अनुचरन्ह कीन्ह मख भंगा । जानहु तुम्ह सो सकल प्रसंगा ॥

तब अति सोच भयउ मन मोरें । दुखी भयउँ बियोग प्रिय तोरें ॥

सुंदर बन गिरि सरित तड़ागा । कौतुक देखत फिरउँ बेरागा ॥

गिरि सुमेर उत्तर दिसि दूरी । नील सैल एक सुन्दर भूरी ॥

तासु कनकमय सिखर सुहाए । चारि चारु मोरे मन भाए ॥

तिन्ह पर एक एक बिटप बिसाला । बट पीपर पाकरी रसाला ॥

सैलोपरि सर सुंदर सोहा । मनि सोपान देखि मन मोहा ॥

दो० –

सीतल अमल मधुर जल जलज बिपुल बहुरंग ।

कूजत कल रव हंस गन गुंजत मजुंल भृंग ॥५६॥

चौपाला

तेहिं गिरि रुचिर बसइ खग सोई । तासु नास कल्पांत न होई ॥

माया कृत गुन दोष अनेका । मोह मनोज आदि अबिबेका ॥

रहे ब्यापि समस्त जग माहीं । तेहि गिरि निकट कबहुँ नहिं जाहीं ॥

तहँ बसि हरिहि भजइ जिमि कागा । सो सुनु उमा सहित अनुरागा ॥

पीपर तरु तर ध्यान सो धरई । जाप जग्य पाकरि तर करई ॥

आँब छाहँ कर मानस पूजा । तजि हरि भजनु काजु नहिं दूजा ॥

बर तर कह हरि कथा प्रसंगा । आवहिं सुनहिं अनेक बिहंगा ॥

राम चरित बिचीत्र बिधि नाना । प्रेम सहित कर सादर गाना ॥

सुनहिं सकल मति बिमल मराला । बसहिं निरंतर जे तेहिं ताला ॥

जब मैं जाइ सो कौतुक देखा । उर उपजा आनंद बिसेषा ॥

दोहा

तब कछु काल मराल तनु धरि तहँ कीन्ह निवास ।

सादर सुनि रघुपति गुन पुनि आयउँ कैलास ॥५७॥

चौपाला

गिरिजा कहेउँ सो सब इतिहासा । मैं जेहि समय गयउँ खग पासा ॥

अब सो कथा सुनहु जेही हेतू । गयउ काग पहिं खग कुल केतू ॥

जब रघुनाथ कीन्हि रन क्रीड़ा । समुझत चरित होति मोहि ब्रीड़ा ॥

इंद्रजीत कर आपु बँधायो । तब नारद मुनि गरुड़ पठायो ॥

बंधन काटि गयो उरगादा । उपजा हृदयँ प्रचंड बिषादा ॥

प्रभु बंधन समुझत बहु भाँती । करत बिचार उरग आराती ॥

ब्यापक ब्रह्म बिरज बागीसा । माया मोह पार परमीसा ॥

सो अवतार सुनेउँ जग माहीं । देखेउँ सो प्रभाव कछु नाहीं ॥

दोहा

भव बंधन ते छूटहिं नर जपि जा कर नाम ।

खर्च निसाचर बाँधेउ नागपास सोइ राम ॥५८॥

चौपाला

नाना भाँति मनहि समुझावा । प्रगट न ग्यान हृदयँ भ्रम छावा ॥

खेद खिन्न मन तर्क बढ़ाई । भयउ मोहबस तुम्हरिहिं नाई ॥

ब्याकुल गयउ देवरिषि पाहीं । कहेसि जो संसय निज मन माहीं ॥

सुनि नारदहि लागि अति दाया । सुनु खग प्रबल राम कै माया ॥

जो ग्यानिन्ह कर चित अपहरई । बरिआई बिमोह मन करई ॥

जेहिं बहु बार नचावा मोही । सोइ ब्यापी बिहंगपति तोही ॥

महामोह उपजा उर तोरें । मिटिहि न बेगि कहें खग मोरें ॥

चतुरानन पहिं जाहु खगेसा । सोइ करेहु जेहि होइ निदेसा ॥

दोहा

अस कहि चले देवरिषि करत राम गुन गान ।

हरि माया बल बरनत पुनि पुनि परम सुजान ॥५९॥

चौपाला

तब खगपति बिरंचि पहिं गयऊ । निज संदेह सुनावत भयऊ ॥

सुनि बिरंचि रामहि सिरु नावा । समुझि प्रताप प्रेम अति छावा ॥

मन महुँ करइ बिचार बिधाता । माया बस कबि कोबिद ग्याता ॥

हरि माया कर अमिति प्रभावा । बिपुल बार जेहिं मोहि नचावा ॥

अग जगमय जग मम उपराजा । नहिं आचरज मोह खगराजा ॥

तब बोले बिधि गिरा सुहाई । जान महेस राम प्रभुताई ॥

बैनतेय संकर पहिं जाहू । तात अनत पूछहु जनि काहू ॥

तहँ होइहि तव संसय हानी । चलेउ बिहंग सुनत बिधि बानी ॥

दोहा

परमातुर बिहंगपति आयउ तब मो पास ।

जात रहेउँ कुबेर गृह रहिहु उमा कैलास ॥६०॥

चौपाला

तेहिं मम पद सादर सिरु नावा । पुनि आपन संदेह सुनावा ॥

सुनि ता करि बिनती मृदु बानी । परेम सहित मैं कहेउँ भवानी ॥

मिलेहु गरुड़ मारग महँ मोही । कवन भाँति समुझावौं तोही ॥

तबहि होइ सब संसय भंगा । जब बहु काल करिअ सतसंगा ॥

सुनिअ तहाँ हरि कथा सुहाई । नाना भाँति मुनिन्ह जो गाई ॥

जेहि महुँ आदि मध्य अवसाना । प्रभु प्रतिपाद्य राम भगवाना ॥

नित हरि कथा होत जहँ भाई । पठवउँ तहाँ सुनहि तुम्ह जाई ॥

जाइहि सुनत सकल संदेहा । राम चरन होइहि अति नेहा ॥

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Last Updated : February 28, 2011

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