नवमस्कन्धपरिच्छेदः - षट्त्रिंशत्तमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


अत्रेः पुत्रतया पुरा त्वमनसूयायां हि दत्ताभिधो

जातः शिष्यनिबन्धतन्द्रितमनाः स्वस्थश्र्चरन् कान्तया ।

दृष्टो भक्ततमेन हैहृयमहीपालेन तस्मै वरा -

नष्टैश्र्वर्यमुखान् प्रदाय ददिथ स्वेनैव चान्ते वधम् ॥१॥

सत्यं कर्तुमथार्जुनस्य च वरं तच्छक्तिमात्रानतं

ब्रह्मद्वेषि तदाखिलं नृपकुलं हन्तुं च भूमेर्भरम् ।

संजातो जमदग्नितो भृगकुले त्वं रेणुकायां हरे

रामो नाम तदात्मजेष्ववरजः पित्रोरधाः सम्मदम् ॥२॥

लब्धाम्नायगणश्र्चतुर्दशवया गन्धर्वराजे मना -

गासक्तां किल मातरं प्रति पितुः क्रोधाकुलस्याज्ञया ।

ताताज्ञातिगसौदरैः सममिमां छित्त्वाथ शान्तात् पितु -

स्तेषां जीवनयोगमापिथं वरं माता च तेऽदाद्वरान् ॥३॥

पित्रा मातृमुदे स्तवाहृतवियद्धेनोर्निजादाश्रमात्

प्रस्थायाथ भृगोर्गिरा हिमगिरावाराध्य गौरीपतिम् ।

लब्ध्वा तत्परशुं तदुक्तदनुजच्छेदी महास्त्रादिकं

प्राप्तो मित्रमथाकृतव्रणमुनिं प्राप्यागमः स्वाश्रमम् ॥४॥

आखेटोपगतोऽर्जुनः सुरगवीसम्प्राप्तसम्पद्गणै -

स्त्वत्पित्रा परिपूजितः पुरगतो दुर्मन्त्रिवाचा पुनः ।

गां क्रेतुं सचिव न्ययुङक्त कुधिया तेनापि रुन्धन्मुनि -

प्राणक्षेपसरोषगोहतचमूचक्रेण वत्सो हृतः ॥५॥

शुक्रोज्जीविततातवाक्यचलितक्रोधोऽथ सख्या समं

बिभ्रद् ध्यातमहोदरोपनिहितं चापं कुठारं शरान् ।

आरुढः सहवाहयन्तृकरथं माहिष्मतीमाविशन्

वाग्भिर्वत्समदाशुषि क्षितिपतौ सम्प्रास्तुथाः सङ्गरम् ॥६॥

पुत्राणामयुतेन सप्तदशभिश्र्चाक्षौहिणीभिर्महा -

सेनानीभिरनेकामित्रनिवहैर्व्याजृम्भितायोधनः ।

सद्यस्त्वक्तकुठारबाणाविदलन्निश्शेषसैन्योत्करो

भीतिप्रद्रुतनष्टशिष्टतनयस्त्वामापतद्धैहयः ॥७॥

लीलावारितनर्मदाजलवलल्लङ्केशगर्वापह -

श्रीमद्बाहुसहस्रमुक्तबहुशस्त्रास्त्रं निरुन्धन्नमुम् ।

चक्रेत्वय्यथ वैष्णवैऽपि विफले बुद्धवा हरिं त्वां मुदा

ध्यायन्तं छितसर्वदोषमवधीः सोऽगात् परं त पदम् ॥८॥

भूयोऽमर्षितहैहयात्मजगणैस्ताते हते रेणुका -

माघ्नानां हृदयं निरीक्ष्य बहुशो घोरां प्रतिज्ञा वहन् ।

ध्यानानीतरथायुधस्त्वमकृथा विप्रद्रुहः क्षत्रियान्

दिक्चक्रे षु कुठारयन् विशिखयन् निःक्षत्रियां मेदिनीम् ॥९॥

तातोज्ज्ीवनकृन्नृपालककुलं त्रिस्सप्तकुत्वो जयन्

सर्ंप्याथ समन्तपञ्चकमहारक्तह्रदौघे पितृन् ।

यज्ञे क्ष्मामपि काश्यपादिषु दिशन् शाल्वेन युध्यन् पुनः

कृष्णोऽमुं निहनिष्यतीति शमितो युद्धात कुमारैर्भवान् ॥१०॥

न्यस्यास्त्राणि महेन्द्रभूभृति तपस्तन्वन् पुनर्मज्जितां

गोकर्णाविधि सागरेण धरणीं दृष्ट्वार्थितस्तापसैः ।

ध्यातेष्वासधृतानलास्त्रचकितं सिन्धुं स्त्रुवक्षेपणा -

दुत्सार्योद्धृतकेरलो भृगुपते वातेश संरक्ष माम् ॥११॥

॥ इति परशुरामावतारवर्णनं षट्त्रिंशत्तमदशकं समाप्तम् ॥

पूर्वकालमें आप अत्रिमुनिके पुत्ररूपमें अनसूयाके गर्भसे दत्त नामसे उत्पन्न हुए । उस समय शिष्य बनानेसे भगवद्भक्तिमें बाधा आयगी , अतः भक्तिमें तन्द्रायुक्त चित्तवाले आप आत्मनिष्ठ रहकर अपनी कान्ताके साथ विचर रहे थे । भक्तश्रेष्ठ हैहय -नरेश कार्तवीर्य अर्जुनने आपको देखा । आपने राजाको एैश्र्वर्ययुक्त आठ वर देकर अन्तमें अपने ही द्वारा उसके वधका वरदान दिया ॥१॥

उस समय जो अर्जुनकी शक्तिमात्रसे कुछ शान्त , ब्राह्मणोंसे द्वेष करनेवाला अतएव पृथ्वीके लिये भार -रूप हो रहा था , उस सम्पूर्ण राजकुलका विनाश करनेके लिये तथा अर्जुनके वरको सत्य करनेके हेतु आप भृगुकुलमें जमदग्निद्वारा रेणुकाके गर्भसे उत्पन्न हुए । हरे ! उस समय आपका राम नाम था और आप जमदग्निके पुत्रोंमें सबसे छोटे थे । आपने माता -पिताको परम आनन्द प्रदान किया ॥२॥

चौदह वर्षकी अवस्थामें ही आपने सम्पूर्ण वेदोंका ज्ञान प्राप्त कर लिया । एक बार (जल लानेके लिये नदी -तटपर गयी हुई ) माता रेणुका गन्धर्वराज चित्ररथको वहॉं विहार करते देखकर उसपर कुछ आसक्त हो गयी । तब क्रोधाविष्ट होकर महर्षि जमदग्निने उन्हें मार डालनेके लिये पुत्रोंको आज्ञा दी , परंतु ज्येष्ठ पुत्रोंने पिताकी आज्ञाका पालन नही किया । तब आपने अपने सहोदर बड़े भाइयोंसहित माताका सिर धडसे अलग कर दिया । तदनन्तर पिताके प्रसन्न होनेपर उनसे भ्राताओं तथा माताके पुनरुज्जीवन -सम्बन्धी वर प्राप्त किया । जीवित होनेपर माताने भी आपको वरदान दिया ॥३॥

तदनन्तर पितामह भृगुके आदेशसे , जिसमें पिताने माता रेणुकाकी प्रसन्नताके लिये स्तवन करके स्वर्गकी धेनु सुरभिको ला रखा था , अपने उस आश्रमसे प्रस्थान करके हिमालयपर जाकर गौरीतिकी आराधना की । फिर शिवजीसे वर -रूपमें उनका फरसा तथा अन्य महान् अस्त्रसमूहोंको प्राप्त करके उनके द्वारा बतलाये हुए दानवोंका संहार किया । तत्पश्र्चात् अपने मित्र अकृतव्रणमुनिसे मिलकर आप अपने आश्रमको लौट आये ॥४॥

एक बार मृगयाके प्रसङ्गसे सहस्रार्जुन आपके आश्रमपर आये । आपके पिताने सुरभिके प्रभावसे प्राप्त हुए दिव्य भोगोंद्वारा राजाका सम्यक् प्रकारसे अतिथ्य किया । राजा अपनी राजधानी महिष्मतीको लौट गये । पुनः अपने दुष्ट मन्त्रीके कहनेसे उन्होंने सुरभिको खरीद लानेके लिये उसे नियुक्त किया । उस दुर्बुद्धिने जब सुरभिको खरीद लानेके लिये उसे नियुक्त किया । उस दुर्बुद्धिने जब सुरभिको पकड़ना चाहा , तब जमदग्निमुनिने उसे मना किया , जिससे क्रुद्ध होकर उसने मुनिको मार डाला । तब मुनिके वधसे रुष्ट हुई सुरभिने उसके सारे सैन्यसमूहको नष्ट कर दिया । तत्पश्र्चात् वह सचिव सुरभिके बछड़ेको चुराकर महिष्मतीमें ले गया ॥५॥

तदनन्तर शुक्राचार्यकी संजीवनी विद्याके प्रभावसे पुनः जीवित हुए पिता जमदग्निके कहनेसे आपका क्रोध भड़क उठा । तब आपने शिवजीके पार्षद महोदरका ध्यान किया । उसने फरसा , धनुष , बाण और घोड़े -सारथिसहित रथ लाकर उपस्थित कर दिया । फिर तो आप उन अस्त्रोंको धारण करके अपने मित्र अकृतव्रणके साथ रथपर सवार हो महिष्मतीमें जा पहुँचे । वहॉं जब कहनेमात्रसे राजाने बछड़ा देना स्वीकार नहीं किया , तब आपने लड़ाई छेड़ दी ॥६॥

फिर तो सहस्रार्जुन अपने दस हजार पुत्रों , वीर सेनापतियोंसे संचलित सतरह अक्षौहिणी सेनाओं तथा अनेक मित्रसमूहोंके साथ युद्धस्थलमें आ डटा । परंतु जब तत्काल ही आपके फरसे तथा बाणोंके आघातसे उसका सारा सैन्यसमूह नष्ट हो गया और मरनेसे बचे हुए लड़के भयभीत होकर भाग खड़े हुए , तब स्वयं हैहयवंशी सहस्रार्जुनने आपपर आक्रमण किया ॥७॥

कभी एक ओरसे क्रीड़ावश नर्मदाके जलको रोककर दूसरी ओर उसके बाढ़मेंं सेनासहित बहते हुए रावणके गर्वका विनाश करनेवाले अपने शोभाशाली हजारों हाथोंसे उस समय वह अनेकों प्रकारके शस्त्रास्त्रोंकी वर्षा करने लगा । तब आपने उसे रोक दिया । पुनः उसने आपपर वैष्णव चक्रसे वार किया । परंतु जब चक्र विफल हो गया , तब सहस्रार्जुन आपको श्रीहरि जानकर आनन्दमग्न हो ध्यान करने लगा , जिससे उसके सारे दोष नष्ट हो गये । तत्पश्र्चात् आपने उसकी सारी भुजाएँ काटकर उसे मौतके घाट उतार दिया । तब वह आपके परम पद ——वैकुण्ठको चला गया ॥८॥

पुनः पितृ -वधको न सह सकनेके कारण सहस्रार्जुनके बचे -खुचे पुत्रोंनें क्रुद्ध होकर (आपकी अनुपस्थितिमें ) आपके पिता जमदग्निको मार डाला , जिससे माता रेणुका छाती पीटती हुई विलाप करने लगीं । उन्हें रोती देखकर आपने भीषण प्रतिज्ञा की । तत्पश्र्चात् ध्यान करनेपर दिव्य रथ और आयुध आ उपस्थित हुए । उन्हें लेकर आपने सारी दिशाओंमें घूम -घूमकर ब्राह्मणद्रोही क्षत्रियोंका कुठार और बाणोंद्वारा संहार करते हुए पृथ्वीको क्षत्रियहीन कर दिया ॥९॥

तदनन्तर पिताको पुनः जीवित करके इक्कीस बार क्षत्रियकुलका संहार किया और उनके रुधिरसे भरे हुए समन्तपञ्चक नामक महान् हृदमें पितरोंका तर्पण किया । पुनः यज्ञमें काश्यप आदि ब्राह्मणोंको पृथ्वीका दान करके आप शाल्वके साथ युद्धमें प्रवृत्त हुए ; परंतु सनकादिकोंद्वारा ‘श्रीकृष्ण इसका वध करेंगे ’—यों जानेपर आप युद्धसे विरत हो गये ॥१०॥

तत्पश्र्चात् शस्त्रास्त्रका परित्याग कर आप महेन्द्र पर्वतपर तपस्या करने लगे । पुनः गोकर्णतककी भूमिको समुद्रद्वारा जलमग्न की हुई देखकर तापसोंने उसके उद्धारके लिये आपसे प्रार्थना की । तब ध्यान करते ही आयुधोंके उपस्थित होनेपर आपने धनुषपर आग्नेयास्त्रका संधान किया । उसे देखकर सागर भयसे चकित हो उठा । भृगुपते ! तब आपने स्रुव -क्षेपणसे समुद्रको दूर हटाकर केरलकी भूमिका उद्धार किया । वातेश ! मेरी सब तरहसे रक्षा कीजिये ॥११॥


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Last Updated : November 11, 2016

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