षष्ठस्कन्धपरिच्छेदः - त्रयोविंशतितमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


प्राचेतसस्तु भगवन्नपरो हि दक्ष -

स्त्वत्सेवनं व्यधित सर्गविवृद्धिकामः ।

अविर्बभूविथ तदा लसदष्टाबाहु -

स्तस्मै वरं ददिथ तां च वधूमसिक्नीम् ॥१॥

तस्यात्मजास्त्वयुतमीश पुनः सहस्त्रं

श्रीनारदस्य वचसा तव मार्गमापुः ।

नैकत्र वासमृषये स मुमोच शापं

भक्तोत्तमस्त्वृषिरनुग्रहमेव मेने ॥२॥

षष्ट्या ततो दुहितृभिः सृजतः कुलौघान्

दौहित्रसूनुरथ तस्य स विश्र्वरूपः ।

त्वत्स्तोत्रवर्मितमजापयदिन्द्रमाजौ

देव त्वदीयमहिमा खलु सर्वजैत्रः ॥३॥

प्राक्शूरसेनविषये किल चित्रकेतुः

पुत्राग्रही नृपतिरङ्गिरसः प्रभावात् ।

लब्ध्वैकपुत्रमथ तत्र हते सपत्नी -

सङ्घेरमुह्यदवशस्तव माययासौ ॥४॥

तब दयालु नारद महर्षि अङ्गिरसा दयालुः

सम्प्राप्य तावदुपदर्श्य सुतस्य जीवम् ।

कस्यास्मि पुत्र इति तस्य गिरा विमोहं

त्यक्त्वा त्वदर्चनविधौ नृपतिं न्ययुङ्क्त ॥५॥

स्तोत्रं च मन्त्रमपि नारदतोऽथ लब्धवा

तोषाय शेषवपुषो ननु ते तपस्यन् ।

विद्याधराधिपतितां स हि सप्तारात्रे

लब्ध्वाप्यकुण्ठमतिरन्वभजद्भवन्तम् ॥६॥

तस्मै मृणालधवलेन सहस्रशीर्ष्णा

रूपेण बुद्धनुतिसिद्धगणावृतेन ।

प्रादुर्भवन्नचिरतो नृतिभिः प्रसन्नो

दत्त्वात्मतत्त्वमनुगृह्य तिरोदधाथ ॥७॥

त्वद्भक्तमौलिरथ सोऽपि च लक्षलक्षं

वर्षाणि हर्षुलमना भुवनेषु कामम् ।

सङ्गापयन् गुणगणं तव सुन्दरीभिः

सङ्गातिरेकरहितो ललितं चचार ॥८॥

अत्यन्तसङ्गविलयाय भवत्प्रणुन्नो

नूनं स रौप्यगिरिमाप्य महत्समाजे ।

निश्शङ्कमङ्ककृतवल्लभमङ्गजारि

तं शंकरं पहिरसन्नुमयाभिशेपे ॥९॥

निस्सम्भ्रमस्त्वयमयाचितशापमोक्षो

वृत्रासुरत्वमुपगम्य सुरेन्द्रयोधी ।

भक्त्यात्मतत्त्वकथनैः समरे विचित्रं

शत्रोरपि भ्रममपास्य गतः पदं ते ॥१०॥

त्वत्सेवनेन दितिरिन्द्रवधोद्यतापि

तान्प्रत्युतेन्द्रसुहृदो मरुतोऽभिलेभे ।

दुष्टाशयेऽपि शुभदैव भवन्निषेवा

तत्तादृशस्त्वमव मां पवनालयेश ॥११॥

॥ इति दक्षचरितं चित्रकेतूपाख्यानं वृत्रवधवर्णनं मरुतामुत्पत्तिकथनं च त्रयोविंशतितमदशकं समाप्तम् ॥

भगवन् ! प्रचेताओंके पुत्र दक्ष , जो ब्रह्मपुत्र दक्षसे भिन्न थे , प्रजासर्गकी वृद्धिकी कामनासे आपकी उपासना करने लगे । तब आप आठ भुजाओंसे सुशोभित होकर उनके समक्ष प्रकट हुए और उन्हें आपने वरदान तथा असिक्नी नामकी भार्या प्रदान की ॥१॥

ईश ! उन दक्षके हर्यश्र्वसंज्ञक दस हजार तथा शबलाश्र्व नामक एक हजार पुत्र उत्पन्न हुए । वे सब -केसब श्रीनारदजीचके निवृत्तिमार्गोपरदेशसे आपके मार्ग ——मोक्षको प्राप्त हो गये । तब दक्षने देवर्षि नारदको शाप दिया कि तुम एक स्थानपर स्थिर नही रह सकते । भक्तश्रेष्ठ देवर्षिने उसे अपने लिये अनुग्रह ही माना ॥२॥

तदनन्तर अपनी साठ कन्याओंद्वारा चराचर -भेद -समूहोंका विस्तार करनेवाले दक्षके दौहित्र त्वष्टाके पुत्र विश्र्वरूप हुए , जिन्होंने इन्द्रको नारायणकवचसे परिवेष्टित करके देवासुर -संग्राममें विजयी बनाया । देव ! आपकी महिमा निश्र्चय ही सबको जीतनेवाली है ॥३॥

प्राचीन कालमें शूरसेनराज्यमें चित्रकेतु नामक राजा हुए । उन्होंने महर्षि अङ्गिरासे पुत्रके लिये आग्रह किया । तब ऋषिके प्रभावसे उन्हें एक पुत्र प्राप्त हुआ , जिसे महारानीकी सौतोंने मिलकर मार डाला । तब राजा चित्रकेतु आपकी मायासे विवश होकर मोहके वशीभूत हो गये ॥४॥

तब दयालु नारद महर्षि अङ्किराके साथ राजाके निकट आये और अपने योगबलसे मृत पुत्रके जीवको बुलाकर राजाको दिखलाया । उस जीवके ‘मैं किसका पुत्र हूँ ?’ इस वचनद्वारा राजाके विमोहको दूर कराकर नारदजीने उन्हें भगवदुपासनामें नियुक्त कर दिया ॥५॥

तदनन्तर राजा चित्रकेतु नारदजीसे ही स्तोत्र और मन्त्र भी प्राप्त करके आप अनन्तमूर्तिको प्रसन्न करनेके लिये तपस्या करने लगे । सात रात्रिके पश्र्चात् ही उन्हें विद्याधरोंका आधिपत्य प्राप्त हो गया । तब निश्र्चल बुद्धिवाले चित्रकेतु आपका भजन करने लगे ॥६॥

कुछ ही समयके बाद उनकी स्तुतियोंसे प्रसन्न होकर आप उनके सामने प्रकट हो गये । उस समय आपकी मूर्ति कमल -तन्तु -सदृश उज्ज्वल वर्णकी थी , उसमें एक हजार फण थे और स्तवन करनेवाले सिद्धगण उसे घेरे हुए थे । तब आप उनपर अनुग्रह करके उन्हें आत्मतत्त्वका उपदेश देकर अन्तर्धान हो गये ॥७॥

तत्पश्र्चात् आपके भक्तोंमें शिरोमणि चित्रकेतु भी प्रसन्न मनसे लाखलाख वर्षोंतक चौदहों भुवनोंमे विद्याधरियोंद्वारा आपके चरित्रका गान कराते हुए स्वच्छन्दरूपसे सुखपूर्वक विचरण करते रहे । उस समय उनकी आसक्ति नष्ट हो गयी थी ॥८॥

फिर भी आसक्तिका सर्वथा विनाश करनेके लिये आपकी प्रेरणासे वे घूमते -घामते (कैलास )-पर जा पहूँचे । वहॉं बड़े -बड़े मुनियोंके समाजमें कामदेवके शत्रु शंकरजीको निश्शङ्कीभावसे पार्वतीको गोदमें लिये बैठे देखकर उनका परिहास करने लगे । तब उमादेवीने चित्रकेतुको शाप दे दिया ॥९॥

किंतु चित्रकेतुने शापमोक्षके लिये याचना नही की । वे वृत्रासुर -रूपसे उत्पन्न होकर सम्भ्रमरहित हो देवराज इन्द्रके साथ युद्धमें तत्पर हो गये । समरभूमिमें ही भक्तिपूर्वक आत्मतत्त्वके वर्णनद्वारा अपने शत्रु इन्द्रके भी अज्ञानको नष्ट करके (वज्रसे आहत होकर ) वे आपके निवासस्थान वैगुण्ठको चले गये । यह एक आश्र्चर्यकी बात हुई ॥१०॥

यद्यपि दिति इन्द्रवधके लिये उद्यत थी (उसके लिये उसने कश्यपजीसे आपकी आराधनाका नियम ग्रहण किया था । ) तथापि उसे पुत्ररूपमें इन्द्रके सुहृद् मरुद्गण प्राप्त हुए । इस प्रकार आपकी उपासना दूषित मनवालेके लिये भी शुभदायिनी ही होती है । पवनालयेश ! आप ऐसे भक्तवत्सल हैं , अतः मेरी भी रक्षा कीजिये ॥११॥


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Last Updated : November 11, 2016

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