षष्ठस्कन्धपरिच्छेदः - द्वाविंशतितमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


अजामिलो नाम महीसुरः पुरा

चरन् विभो धर्मपथान् गृहाश्रमी ।

गुरोर्गिरा काननमेत्य दृष्टवान्

सुधृष्टशीलां कुलटां मदाकुलाम् ॥१॥

स्वतः प्रशान्तोऽपि तदाहृताशयः

स्वधर्ममुत्सृज्य तया समारमन् ।

अधर्मकारी दशमी भवन् पुन -

र्दधौ भवन्नामयुते सुते रतिम् ॥२॥

स मृत्युकाल यमराजकिंकरान्

भयंकरांस्त्रीनभिलक्षयन् भिया ।

पुरा मनाक्त्वस्मृतिवासनाबला -

ज्जुहाव नारायणनामकं सुतम् ॥३॥

दुराशयस्यापि तदात्मनिर्गत -

त्वदीयनामाक्षरमात्रवैभवात् ।

पुरोऽभिपेतुर्भवदीयपार्षदा -

श्र्चतुर्भुजाः पीतपटा मनोरमाः ॥४॥

अमुं च सम्पाश्य विकर्षतो भटान्

विमुञ्चतेत्यारुरुधुर्बलादमी ।

निवारितास्ते च भवज्जनैस्तदा

तदीयपापं निखिलं न्यवेदयन् ॥५॥

भवन्तु पापानि कथं तु निष्कृते

कृतेऽपि भो दण्डनमस्ति पण्डिताः ।

न निष्कृतिः किं विदिता भवादृशा -

मिति प्रभो त्वत्पुरुषा बभाषिरे ॥६॥

श्रुतिस्मृतिभ्यां विहिता व्रतादयः

पुनन्ति पापं न लुनन्ति वासनाम् ।

अनन्तसेवा तु निकृन्तति द्वयी -

मिति प्रभो त्वत्पुरुषा बभाषिरे ॥७॥

अनेन भो जन्मसहस्त्रकोटिभिः

कृतेषु पापेष्वपि निष्कृतिः कृता ।

यदग्रहीन्नाम भयाकुलो हरे -

रिति प्रभो त्वत्पुरुषा बभाषिरे ॥८॥

नृणामबुद्ध्य़ापि मुकुन्दकीर्तनं

दहत्यघौघन् महिमास्य तादृशः ।

यथाग्निरेधांसि यथौषधं गदा -

निति प्रभो त्वत्पुरुषा बभाषिरे ॥९॥

इतीरितैर्याम्यभटैरपासृते

भवद्भटानां च गणे तिरोहिते ।

भवत्स्मृतिं कंचन कालमाचरन्

भवत्पदं प्रापि भवद्भटैरसौ ॥१०॥

स्वकिंकरावेदन्शाङ्कितो यम -

सत्त्वदङ्घ्निभक्तेषु न गम्यतामिति ।

स्वकीयभृत्यानशिशिक्षदुच्चकैः

स देव वातालयनाथ पाहि माम् ॥११॥

॥ इति अजामिलोपाख्यानं द्वाविंशतितमदशकं समाप्तम् ॥

विभो ! प्राचीनकालमें अजामिल नामवाले एक ब्राह्मण हो गये हैं । वे गृहस्थाश्रममें रहकर धर्ममार्गका पालन कर रहे थे । एक बार वे पिताकी आज्ञासे वनमें गये । वहॉं उन्होंने एक अतिशय ढीठ स्वभाववाली मदविह्णला कुटला

स्त्रीको देखा ॥१॥

यद्यपि वे स्वतः परम शान्त थे तथापि उस कुलटाने उनके मनको आकृष्ट कर लिया और वे स्वधर्मका उत्सर्ग करके उसके साथ रमण करने लगे । (लोकयात्रानिर्वाहार्थ ) वे पापकर्म करने लगे । पुनः जब दसवीं अवस्था (मृत्यु ) समीप आयी , तब उन्होंने अपने ‘नारायण ’ नामक पुत्रमें अत्यन्त स्नेह धारण किया ॥२॥

मृत्युकालमें तीन भयंकर यमदूतोंको देखकर वे भयभीत हो गये । उस समय भी उनमें पूर्वकृत भगवदुपासनाका कुछ संस्कार अवशेष था , उसीके बलसे उन्होंने अपने नारायण नामक पुत्रको पुकारा ॥३॥

अजामिल यद्यपि महान् दुराचारी था तथापि मरणासन्नकालमें उसके मुखसे निकले हुए आपके नामाक्षरमात्रके प्रभावसे आपके पार्षद विष्णुदूत उसके आगे प्रकट हो गये । उन दूतोंके चार भुजाएँ थीं । उनके शरीरपर पीताम्बर शोभा पा रहा था और उनका रूप मनोहर था ॥४॥

यमदूत गलेमें पाश बॉंधकर अजामिलको खींच रेह हैं , यह देख उन विष्णुदूतोंने ‘इसे छोड़ दो ’ ऐसा कहकर बलपूर्वक सब ओरसे उन्हें रोका । तब आपके पार्षदोंद्वारा निवारण किये जानेपर वे यमदूत अजामिलके सम्पूर्ण पापोंका वर्णन करने लगे ॥५॥

प्रभो ! तब आपके पार्षदोंनें उन्हें यों उत्तर दिया —— ‘ओ दण्डनीतिके पण्डितो ! इसके बहुत -से पापकर्म हों , परंतु उनका प्रायश्र्चित कर लेनेपर भी इसे कैसे दण्ड दिया जा सकता है ? क्या तुम -जैसे यमदूतोंको प्रायश्र्चित्तका ज्ञान नहीं है ?’ ॥६॥

‘ श्रुति - स्मृतियोंद्वारा विहित व्रत आदि केवल पापका करते हैं , पाप - वासनाका विनाश नहीं करते ; किंतु श्रीहरिकी सेवा पाप तथा पापवासना - दोनोंका उन्मूलन करनेवाली है । ’ प्रभो ! आपके दूतोंने उन्हें यों उत्तर दिया ॥७॥

प्रभो ! विष्णुदूतोंने उनसे इस प्रकार कहा ——‘हे यमदूतो ! इसने सहस्त्र करोड़ जन्मोंतक किये गये पापोंका भी प्रायश्र्चित्त कर लिया ; क्योंकि इसने भयाकुल होकर श्रीहरिका नाम लिया है ’ ॥८॥

‘ जैसे अग्नि ईंधनको जला डालती है और ओषधि रोगोंको विनष्ट कर देती है , उसी तरह अनजानमें भी किया हुआ हरिनामोच्चरण मनुष्योंके पाप - समूहोंको भस्म कर देता हैं ; हरिनामकी ऐसी ही अपरिच्छेद्य महिमा है। ’ प्रभो ! विष्णुदूतोंने उन्हें ऐसा बतलाया ॥९॥

यों समझायें जानेपर जब यमदूत वहॉंसे चले गये और विष्णुदूतोंका समुदाय अन्तर्हित हो गया , तब अजामिल कुछ कालतक आपके भजनध्यानका आचरण करता रहा । तत्पश्र्चात् आपके पार्षदोंने उसे वैकुण्ठमें पहुँचा दिया ॥१०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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