चतुर्थस्कन्धपरिच्छेदः - सप्तदशदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


उत्तानपादनृपतेर्मनुनन्दनस्य

जाया बभूव सुरुचिर्नितरामभीष्टा ।

अन्या सुनीतिरिति भर्तुरनादृता सा

त्वामेव नित्यमगतिः शरणं गताभूत् ॥१॥

अङ्के पितृः सुरुचिपुत्रकमुत्तमं तं

दृष्ट्वा ध्रुवः किल सुनीतिसुतोऽधिरोक्ष्यन् ।

आचिक्षिपे किल शिशुः सुतरां सुरुच्या

दुस्संत्यजा खलु भवद्विमुखैरसूया ॥२॥

त्वनमोहिते पितरि पश्यति दारवश्ये

दूरं दुरुक्तिनिहतः स गतो निजाम्बाम् ।

सापि स्वकर्मगतिसंतरणाय पुंसां

त्वत्पादमेव शरणं शिशवे शशंस ॥३॥

आकर्ण्य सोऽपि भवदर्चननिश्र्चितात्मा

मानी निरेत्य नगरात् किल पञ्चवर्षः ।

संदुष्टनारदनिवेदितमन्त्रमार्ग -

स्त्वामारराध तपसा मधुकाननान्ते ॥४॥

ताते विषण्णहृदये नगरीं गतेन

श्रीनारदेन परिसान्त्वितचित्तवृतौ ।

बालस्त्त्वदर्पितमनाः क्रमवर्द्धितेन

निन्ये कठोरतपसा किल पञ्च मासान् ॥५॥

तावत्तपोबलनिरुच्छ्वसिते दिगन्ते

देवार्थितस्त्वमुदयत्करुणार्दचेताः

त्वद्रूपचिद्रसनिलीनमतेः पुरस्ता -

दाविर्बभूविथ विभो गरुडाधिरूढः ॥६॥

त्वद्दर्शनप्रमदभ्ज्ञारतरङ्गितं तं

दृग्भ्यां निमग्नमिव रूपरसायने ते ।

तुष्टूषमाणमवगम्य कपोलदेशे

संस्पृष्टवानसि दरेण तथाऽऽदरेण ॥७॥

तावाद्विबोधविमलं प्रणुवन्तमेन -

माभाषथास्त्वमवगम्य तदीयभावम् ।

राज्यं चिरं समनुभूय भजस्व भूयः

सर्वोत्तरं ध्रुवपदं निविवृत्तिहीनम् ॥८॥

इत्यूचुषि त्वयि गते नृपनन्दोऽसा -

वानन्दिताखिलजनो नगरीमुपेतः ।

रेमे चिरं भवदनुग्रहपूर्णकाम -

स्ताते गते च वनमाहृतराज्यभारः ॥९॥

यक्षेण देव निहते पुनरुत्तमेऽस्मिन्

यक्षैः स युद्धनिरतो विरतो मनूक्त्या ।

शान्त्या प्रसन्नहृदयाद्धनदादुपेता -

त्त्वद्भक्तिमेव सुदृढामवृणोन्महात्मा ॥१०॥

अन्ते भवत्पुरुषनीतविमानयातो

मात्रा समं ध्रुवपदे मुदितोऽयमास्ते ।

एवं स्वभृत्यजनपालनलोलधीस्त्वं

वातालयाधिप निरुन्धि ममामयौघान् ॥११॥

॥ इति ध्रुवचरितवर्णनं सप्तदशदशकं समाप्तम् ॥

मनु -नन्दन महाराज उत्तानपादके दो पत्नियॉं थी , जिनमें सुरुचि राजाको परम प्रिय थी । दूसरीका नाम सुनीति था । वह पतिद्वारा अनादृत होनेके कारण शरणहीना थी । अतः उसने आपका ही अनन्य भावसे आश्रय लिया ॥१॥

किसी समय सुनीतिके पुत्र धु्रवने सुरुचिके पुत्र उत्तमको पिताकी गोदमें लालित होते देखकर स्वयं भी गोदमें चढ़नेंकी इच्छा की , परंतु सुरुचिने उस शिशुकी कटुवचनोंद्वारा भलीभॉंति फटकारा । सच हैं , भगवद्विमुख लोगोंद्वारा ईर्ष्या एवं दोषदृष्टिका त्याग करना अत्यन्त कठिण है ॥२॥

परंतु पिता उत्तानपाद स्त्रीके वशीभूत थे और आप (-की माया )- से उनका चि त मोहाच्छन्न हो गया था , अतः वे देखते ही रह गये । तब कटुवचनोंसे अत्यन्त आहत हुआ ध्रुव अपनी माता सुनीतिके पास चला गया । सुनीतिने भी अपने बच्चोको बतलाया कि मनुष्योंके लिये अपनी कर्मगतिसे पार पानेके लिये एकमात्र आपका चरण ही शरण है ॥३॥

कहते हैं , ध्रुव पॉंच ही वर्षका बालक था , तो भी उसमें क्षत्रियोंचित स्वाभिमान भरा था । माताके वचनोंको सुनकर उसने भी आपकी आराधनामें ही अपने मनको निश्र्चित कर लिया । फिर तो वह नगरसे बाहर निकल पड़ा । मार्गमें मिले हुए दवर्षि नारदसे मन्त्र - मार्गका उपदेश पाकर उससे मधुवनमें जाकर तपस्याद्वारा आपकी आराधना आरम्भ की ॥४॥

ध्रुवके वन -गमनसे उत्तानपादका मन विषादसे खिन्न हो गया । उसी समय श्रीनारदजी राजधानीमें गये । उन्होंने समझा -बुझााकर उत्तानपादकी चित्तवृत्तिको शान्त किया । इधर बालक ध्रुवने अपने मनको आपमें समाहित करके क्रमशः वृद्धिको प्राप्त होते हुए उग्र तपश्र्चरणद्वारा पॉंच मास व्यतीत किये ॥५॥

तदनन्तर जब ध्रुवके तपोबलसे दिगन्तरालोमें श्र्वासावरोध होने लगा , तब देवोंने आपसे प्रार्थना की । उस समय आपका हृदय उत्पन्न हुई करुणासे आर्द्र हो गया । फिर तो आप गरुडपर आरूढ होकर गये और आपके ही स्वरूपभूत चिदानन्दरसमें निमग्न मतिवाले बालक ध्रुवके समक्ष प्रकट हो गये ॥६॥

तब ध्रुव आपके दर्शनजनित हर्षके अतिरेकसे तरङ्गित हो नेत्रोंद्वारा आपके रूपातमृतका पान करनेमें निमग्न -सा हो गया । फिर उसे स्तुति करनेके लिये इच्छुक जानकर आपने आदरपूर्वक उसके कपोलदेशपर अपने शङ्खका

स्पर्श करा दिया ॥७॥

कपोलपर शङ्खका स्पर्श होते ही वह तत्त्वबोधसे विमल स्तवन करने लगा । तदनन्तर ध्रुवके अभिप्रायको जानकर आपने उससे कहा —— ‘ध्रुव ! तुम चिरकालतक राज्यका सुख भोगकर पुनः सप्तर्षिलोकसे भी उपर स्थित पुनरावृत्तिरहित स्थान ——ध्रुवपद प्राप्त करो ’ ॥८॥

यों कहकर आपके चले जानेपर राजकुमार ध्रुव अखिल जनोंको आनन्दित करता हुआ राजधानीको लौट गया । आपके अनुग्रहसे उसकी सारी कामनाएँ पूर्ण हो चुकी थीं , तथापि उसे राज्यभार सौंपकर पिता उत्तानपादके वन चले जानेपर उसने चिरकालतक राज्यका सुखोपभोग किया ॥९॥

देव ! पुनः सुरुचि उत्तमके किसी यक्षद्वारा मारे जानेपर (भ्रातृवधसे क्रुद्ध होकर ) ध्रुवने यक्षोंके साथ युद्ध छेड़ दिया । किंतु पितामह मनुके मना करनेपर वे उस युद्धसे विरत भी हो गये । ध्रुवकी युद्धनिवृत्तिसे कुबेरका हृदय प्रसन्न हो गया । तब वे ध्रुवके निकट आये । (उनके वर मॉंगनेके लिये कहनेपर ) महात्मा ध्रुवने उनसे आपकी सुदृढ़ भक्तिका ही वरदान मॉंगा ॥१०॥

( छब्बीस हजार वर्षतक राज्यभोग करनेके ) पश्र्चात् आपके पार्षद सुनन्द - नन्दद्वारा लाये गये विमानपर बैठकर ये ध्रुवलोकको चले गये । वहॉं माता सुनीतिके साथ प्रसन्नतापूर्वक आज भी विद्यमान हैं । इस प्रकार अपने भृत्यजनोंका पालन करनेके लिये आपकी बुद्धि सदा उतावली बनी रहती है , अतः वातालयाधिप ! मेरे भी रोगसमूहोंका विनाश कर दीजिये ॥११॥


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Last Updated : November 11, 2016

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