मेघदूत उत्तरमेघा - श्लोक ११ ते १५

"मेघदूत" की लोकप्रियता भारतीय साहित्य में प्राचीन काल से ही रही है।


जिस अलकामे, सुन्दरियोद्वारा रात्रिमे अपने प्रियतमोके पास जानेके मार्ग, सूर्योदय होनेपर स्पष्ट मालूम हो जाते है । क्योकि जल्दी चलनेमे शरीर हिलनेसे बालोपर लगे मन्दार पुष्प और कानोपरके सुनहरे कमलोकी पंखडियाँ उन मार्गोमे गिरी रहती है, जूडोपर की जालियोसे और उँचे स्तनोपर टकराकर टूटे हूये हारोसे मोती बिखरे रहते है ॥११॥

जिस अलकामे कुबेरके मित्र शंकरजीको प्रत्यक्षरुपसे वास करते जानकर डरके मारे कामदेव प्राय: अपने मौरोकी डोरीवाले धनुषका प्रयोग नही करता । उसका काम मटकती मौहोके साथ फ़ैकी गई बाँकी चितवनोवाले और कामिजनरुप निशानोपर अचूक, चतुर कामिनियोके हाव-भावोसे ही सिद्ध हो जाता है ॥१२॥

जिस अलकामे केवल कल्पवृक्षसेही रंग-बिरंगे वस्त्र, आंखोमे खुमारी लानेवाला मद्य, पल्लवीसहित पुष्प, विभिन्न प्रकारके आभूषण, कमल जैसे कोमल चरणोमे लगानेका आलता आदि स्त्रियोंकी सारी अलंकारसामग्री उत्पन्न हो जाती है ॥१३॥

उसी अलकामे कुबेरके घरसे उत्तरकी ओर इन्द्रधनुषके समान सुन्दर रंग-बिरंगे फ़ाटकसे जो दूरसे ही पहिचाना जाता है, ऐसा मेरा घर है । जिसके पासमे एक छोटासा मन्दार वृक्ष है । उसे मेरी प्रियाने पुत्र मानकर पाल-पोसकर बडा किया है और अब इतना बडा हो गया है कि उसके झुके हुए गुच्छे उपर हाथ उठाकर छुए जा सकते है ॥१४॥

उस मेरे घरमे एक बावडी भी है, जिसकी सीढियाँ मरकतमणिसे बनी है । जो चिकने वैंगूर्यमणिके समान डण्डीवाले, खिले हुये सुनहरे कमलोसे भरी रहती है और जिसके निर्मल जलमे आनन्द्से रहनेवाले हंस वर्षाकाल आनेपर भी समीपवर्ती मानससरोवरमे जानेकी व्यग्रता नही दिखलाते ॥१५॥

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Last Updated : March 22, 2010

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