अध्याय तेरहवाँ - श्लोक १०१ से ११२

देवताओंके शिल्पी विश्वकर्माने, देवगणोंके निवासके लिए जो वास्तुशास्त्र रचा, ये वही ’ विश्वकर्मप्रकाश ’ वास्तुशास्त्र है ।


जाती चमेली शतपत्र ( कमल ) केशर नारियल पुष्प और कर्णिकार ( कनेर ) इनसे ॥१०१॥

वेष्टित ( ढका ) जो घर हैं वे मनुष्योंको सम्पूर्ण सुखके दाता होते हैं, पहिले वृक्षोंको लगाकर पीछेसे गृहोंको बनावे ॥१०२॥

यदि अन्यथा करै तो वह घर शोभन नहीं होता प्रथम नगरका विन्यास करे अर्थात नगरकी भूमिका निर्णय करे पीछेसे घरोंको बनवावे ॥१०३॥

यदि अन्यथा करै तो शुभको न कहे अर्थात वह घर शुभदायी नहीं होता. पूर्व दिशामें पीलीपताका, अग्निकोणमें कपिलवर्णकी, दक्षिणमें काली, नैऋतिमें श्यामा, पश्चिममें शुक्ल, वायव्यमें हरी, उत्तरमें सफ़ेद और ईशानमें धवलपताका होती है ॥१०४॥

ईशानपूर्वके मध्यमें सफ़ेद और पश्चिमनैऋतके मध्यमें रक्तवर्णकी पताका कहीहै ॥१०५॥

किंकिणी ( झालर ) से युक्त संपूर्ण ( वर्ण ) रंगकी पताका मध्यमें होती है वह भुजाके प्रमाणकी होती है. उसका स्तंभभी भुजाके प्रमाणका होता है ॥१०६॥

द्वारमार्गके पूर्वभागमें सोलह हाथकी ध्वजा होती है. इसका स्तंभभी घंटा-भूषणोंसे सहित विधिपूर्वक स्थापन करना ॥१०७॥

दक्षिणमें पुष्पमालाओंसे युक्त स्तंभ द्वारमार्गमें स्थापन करै, यह वास्तुशास्त्र प्रथम बुध्दिमान गर्गमुनिको ब्रम्हाने कहा ॥१०८॥

गर्गमुनिसे पराशरको, पराशरसे वृहद्रथको, बृहद्रथसे विश्वकर्माको वास्तुशास्त्र प्राप्त हुआ ॥१०९॥

वह विश्वकर्मा जगतके हितार्थ फ़िर वासुदेव-आदिकोंको भूलोकमें भक्तिसे कहता भया ॥११०॥

इस पवित्र परम रहस्य ( गुप्त ) को जो नर पढता है उसकी वाणी सफ़ल होतीहै यह मैं सत्य कहता हूं ॥१११॥

इसके अनन्तर अत्यंत निर्मल है विद्या जिसकी ऐसा महात्मा विश्वकर्मा जो सबगुणोंमें श्रेष्ठ है, संपूर्ण शास्त्रोंके अर्थका ज्ञाता है, संपूर्ण देवताओंके गणोंका सूत्रधार है और पुण्यात्मा है वह भवनमें निवासियोंके इस लिये वास्तुशास्त्रको करता भया ॥११२॥

इति पं० मिहिरचन्द्रकृतभाषा० श्रीब्रह्मोक्तविश्वकर्मप्रकाशे विश्वकर्मणोक्तवास्तुशास्त्रे त्रयोदशोऽध्याय: ॥१३॥

इति भाषाटीका समाप्त ॥

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Last Updated : January 20, 2012

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