यदि दिशाके मध्यमें स्थित जलाशय होय तो मनुष्योंको शुभदायी होते हैं । व्यंगभागमें होय तो बन्धन पशु और पत्तियोंका नाश होता है. दक्षिण उत्तरमें जलाशय होय तो धनको हीन कर्ता है, न्यून जल होय तो भी धनको हीन करता है ॥२१॥
चौथे आठवें स्थानमें पापग्रह होय लग्नमें खलग्रह होय चन्द्रमा अष्टम होय तो गृहका कर्ता एक मासमें मरता है ॥२२॥
केन्द्र पापग्रहोंसे युक्त होय अथवा ८ व्यय १२ स्थानमें होय तो थोडेही दिनमें जल क्षीन ( नष्ट ) होता है ॥२३॥
शनैश्वर मंगल सूर्य ये केन्द्रस्थानमें हों चन्द्रमा अष्टम स्थानमें हो ऐसे लग्नमें बनवाये जलस्थानमें वर्षदिन भी जल नहीं टिकता ॥२४॥
एक भी पापग्रह अष्टममें स्थित हो, चतुर्थ भवनमें राहु हो और नवमस्थानमें मंगल होय तो विषके समान उस जलस्थानका जल कहा है ॥२५॥
पूर्वोक्त मार्गसे नन्दा आदिकोंका पूजन करै, ईशान आदि क्रमसे दिशाओंकरके शोधित स्थलमें उनका स्थापन करे मध्यमें कुम्भके ऊपर शुभ दिनके समय पूर्णाका स्थापन करै, वरुणके मन्त्रोंसे प्रथम वरुणकी पूजाको करके ॥२६॥
शिरके स्थानमें वट और बेंतकी कीलोंका निवेश करे फ़िर ग्रहोंकी पूजा और वास्तुपूजाको करे ॥२७॥
उत्तरायण सूर्य हो और वृश्चिकराशिका सूर्य हो, चैत्रके विना चन्द्रमा पूर्ण हो और रिक्तासे भिन्न तिथि हों, विकृतवार होय तो जलाशयोंकी प्रतिष्ठा करनी ॥२८॥
लग्नको सौम्यग्रह देखते होंय तो जलाशयोंकी प्रतिष्ठा करनी, पूर्णचन्द्रमा जलोदयराशिका होय केन्द्रमें बृहस्पति होय लग्न वा सप्तम भवनमें शुक्र होय तो प्रतिष्ठा शुभ होती है ॥२९॥
जो कोई अन्यग्रह अपने भवनके हों वा केन्द्रमें स्थित हों तो मनुष्योंको शुभदायी होते हैं एकभी ग्रह बृहस्पति बुध शुक्र शनैश्वर अपने उच्चभवनके वा अपने भवनके हों ॥३०॥
केन्द्र वा त्रिकोणमें होंय तो मनुष्योंके लिये वह जल स्थिर और शुभदायी होता है ॥३१॥
जो पुण्यात्मा मनुष्य नगरमें जलकी शालाको बनाते हैं वे तबतक विष्णुके संग आनन्द भोगते हैं जबतक पृथिवीमण्डलपर जल रहता है ॥३२॥
इति पं० मिहिरचन्द्रकृतभाषाविवृतियुते वास्तुशास्त्रे जलाशयादिकरणे अष्टमोऽध्याय: ॥८॥