वही बनवानी । अन्यमनुष्योंके घरोंमें बुध्दिमान मनुष्य कदाचित न बनवावे. घरके मध्यभागमें स्तंभ होय तो ब्रम्हाका वेध कहाता है ॥१०१॥
गृहके मध्य भागमें भीतकोभी न बनवावे, क्योंकि उससे ब्रम्हाका स्थान न छुटेगा इससे गृहस्थी ब्रम्हाके स्थानकी यत्नसे रक्षा करे. कील आदिकोंकी रक्षा करे ॥१०२॥
अशुध्दपात्रसे, शल्यसे और भस्मसे नानाप्रकारके रोग उस घरमें होते हैं. जहा ब्रह्माका वेध होता है द्वारके ऊपर जो द्वार होता है उस द्वारको शकट कहते हैं ॥१०३॥
चौंसठ ६४ अंगुल ऊंचा और चौतीस ३४ अंगुल चौडा द्वारके ऊपर जो शकट है वह यत्नसे कल्याणके लिये रक्खे, यदि वह शब्द न करे तो क्षुद्रज कहा है. वह कुलका नाशक होता है ॥१०४॥
पीडित द्वार पीडाको करता है, मध्यपीडितद्बार अभावको करता है, बाहरको उन्नतद्वार होय तो प्रवास होता है, दिशाओंमें भ्रान्त होय तो चोरोंसे भय, दौर्भाग्य मरण रोग दरिद्र कलह ॥१०५॥
विरोध अर्थका नाश ये फ़ल क्रमसे सब दिशाओंके वेधमें होते हैं, पूर्वमें फ़लवाले वृक्ष और पश्चिममें पद्म और उत्पलोंसे भूषित जल श्रेष्ठ होते हैं ॥१०६॥
चारों तरफ़ परिखा और वलय आदि बनवाने, दक्षिणमें तपोवनका स्थान और उत्तरमें मातृकाओंका घर बनवाना ॥१०७॥
पश्चिममें लक्ष्मीका निवास, वायव्यमें ग्रहोंकी पक्ति, उत्तरमें यज्ञकी शाला और निर्माल्यका स्थान बनाना कहा है ॥१०८॥
सोम है देवता जिसकी ऐसी उत्तरदिशामें बलिदानका स्थान कहा है, पूर्वमें वृषोंका स्थान शेष और काम देवका स्थान कहा है ॥१०९॥
जल और वापी और जलशायी विष्णुका स्थान कहा है इस प्रकार शुभमण्डपोंसे युक्त स्थानको बनवावे ॥११०॥
घण्टा वितान तोरण चित्र इनसे युक्त और ध्वजासे चिन्हित और नित्य उत्साहके कर्ता प्रसन्नमनोंसे युक्त देवताके भवनको जो मनुष्य बनवाता है उसको लक्ष्मी कदाचित नहीं छोडती और वह सदैव स्वर्गमें पूजित रहता है ॥१११॥
इस प्रकार द्वारपूजाकी विधिको करके जो द्वारबलिको करे. द्वारके मुखमें प्रवेशके समय महाध्वजाका स्थापन करे ॥११२॥
उसके सब कर्मोमे पुत्र द्वारा धन आदिकी वृध्दि होती रहती है. यह द्वारकी विधि ब्रम्हाके मुखसे कही हुई जो मनुष्य विधिसे करता है वह सुखी और पुत्रवान होता है ॥११३॥
इति पण्डितमिहिरचद्रकृतभाषाविवृतिसहिते वास्तुशास्त्रे द्वारनिर्माणं नाम सप्तमोऽध्याय: ॥७॥