अध्याय पहला - श्लोक ४१ से ६०

देवताओंके शिल्पी विश्वकर्माने, देवगणोंके निवासके लिए जो वास्तुशास्त्र रचा, ये वही ’ विश्वकर्मप्रकाश ’ वास्तुशास्त्र है ।


जो भूमि चौकौरहो वह महान अन्न आदिको देती है, जिसकी हाथीके समान कान्तिहो वह महान धन देती है, जो भूमि सिंहके तुल्य है वह गुणवान पुत्रोंकी देती है, जो वृष ( बैल ) के समान है वह पशुओंकी वृध्दिको देती है ॥४१॥

जो भूमि वृत्त वा भद्रपीठके तुल्य है वह श्रेष्ठ धनके देनेवाली होती है और जिस भूमिका त्रिशूलके समान आकार है उस भूमिमें शूर वीरोंकी उत्पत्ति होती है और वह धन और सुख देनेवाली होती है ॥४२॥

और जिसकी कांति लिंगकी समान है वह संन्यासियोंके लिये श्रेष्ठ है और जो प्रासादकी ध्वजाके तुल्य है वह प्रतिष्ठाकी उन्नति करती है और जो कुंभके समान है वह धनकी बढानेवाली होती है ॥४३॥

जो भूमि त्रिकोण और जिसका शकटके समान आकार हो और जो सूप, बीजनेके समान हो वह भूमि पुत्र और सुख और धर्मकी हानिको क्रमसे करती है ॥४४॥

जो भूमि मुरजके समान होती है वह वंशका नाश करती है, जो सर्प मेंडकके समान है वह भयको देती है और खरके समान जिसका आकार है वह धनका नाश करती है और अजगरसे युक्त है वह मृत्युको देती है ॥४५॥

और जो भूमि चिपिटा वा मुद्ररके समान है वह पुरुषोंसे हीन रहती है और जो काक उलूकके तुल्य है वह दु:ख शोक भयको देती है ॥४६॥

और जो सर्पके समान हो वह पुत्र पौत्रोंके नष्ट करनेवाली है. जो वंशकी समान हो वह वंश नष्ट करनेवाली होती है और जो सूकर ऊंट बकरी धनु कुल्हाडा इनके समान आकारवाली हो ॥४७॥ वह कुचैल मलिन और मूर्ख तथा व्रम्हहत्यारे पुत्रोंको पैदा करती है और जो करकैटा और मुर्देकी समान हो वह पुत्रोंकी मृत्यु देनेवाली और धनके नष्ट करनेवाली और पीडाकी दाता होती है जिसमें दु:खसे गमन किया जाय ऎसी भूमि और पापियोंके वंशकी प्रजाकी जो भूमि है उसे त्याग दे ॥४८॥

मनोरम भूमि पुत्र देनेवाली ( और मनोरम भूमि सुख देनेवाले और दृढ भूमि धन देनेवाले होती है और उत्तर पूर्वको निम्न जो भूमि वह पुत्र और धन देनेवाली होती है ॥४९॥

जिस भूमिका गभ्भीर शब्द हो वह गभ्भीर शब्दवाले पुत्रोंको पैदा करती है और ऊँची भूमि पदवीवाले पुत्रोंको पैदा करती है और सम भूमि सौभाग्यको देती है ॥५०॥

और विकट भुमि शूद्रजाती और दुर्गके निवासी और चोरोंको शुभकी दाता होती है अन्य मनुष्योंको नही ॥५१॥

और अपने वर्णका है रुप जिसका ऎसी भूमि वर्णोंको सुख देती है और वर्णोंका अधिपती करती है शुक्लवर्णकी भुमि सबके पुत्रपौत्र बढानेवाली होती है ॥५२॥

कुश और काशवाली भूमि व्रम्हतेजवाले पुत्रोंको पैदा करती है और दूबसे युक्त भूमि शूरवीरोंको जन्माती है और फ़लसे युक्त भूमि धन और पुत्रोंको देती है ॥५३॥

और नदीके कटावकी भूमि मूर्ख और सन्तानहीनोंको पैदा करती है । जिस भूमिके मध्यमें पत्थर हों वह दरिद्रियोंको और गढेवाली भूमि झूठे पुत्रोंको पैदा करती है ॥५४॥

जिस भूमिमें छिद्रहों वह पशू और पुत्र इनको दु:खकी दाता और मुखको नष्ट करनेवाली होती है और टेढी वा अत्यन्य रेतेली भूमि विद्यासे हीन पुत्रोंको पैदा करती है ॥५५॥

सूप बिलाव लकुट इनके तुल्य भूमि भय, पुत्रोंके दु:खकी दाता होती है और मुसलके समान भूमि वंशके नाशक मूसलचन्द पुत्रोंको पैद करती है ॥५६॥

घोर भूमि भयको देनेवाली होती है और वायुसे पीडित भूमि वायुके भयको देती है भल्ल और भीलोंसे युक्त भूमि सदैव पशुओंके हानिको देती है ॥५७॥

विकट कुत्ते और श्रुगालके समान भूमि विकट पुत्रोंको देती है और रुखी भूमि कठोर और कुत्सित वचनोंके वक्ता पुत्रोंको देती है ॥५८॥

और चैत्यकी भूमि घरके स्वामीको भय देती है और वँमीकी भूमि विपत्ति देती है और धूर्तोंके स्थानके समीपकी भूमी निश्चयसे पुत्रके मरणको देती है ॥५९॥

चौराहेमें कीर्तिका नाश और देवमंदिरमें घर बनानेसे उद्वेग होता है और सचिव ( मन्त्री ) के स्थानमें धनकी हानि और गढेमें गृह बनानेसे अत्यन्त विपत्ति होती है ॥६०॥

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Last Updated : January 20, 2012

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