अष्टमस्कन्धपरिच्छेदः - त्रिंशत्तमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


शक्रेण संयति हतोऽपि बलिर्महात्मा

शुक्रेण जीविततनुः क्रतुवर्धितोष्मा ।

विक्रान्तिमान् भयनिलीनसुरां त्रिलोकीं

चक्रे वशे स तव चक्रमुखादभीतः ॥१॥

पुत्रार्तिदर्शनवशाददितिर्विषण्णा

तं काश्यपं निजपतिं शरण प्रपन्ना ।

त्वत्पूजनं तदुदितं हि पयोव्रताख्यं

सा द्वादशाहमचरत्त्वयि भक्तिपूर्णा ॥२॥

तस्यावधौ त्वयि निलीनमतेरमुष्याः

श्यामश्र्चतुर्भुजवपुः स्वयमाविरासीः ।

नम्रां च तामिह भवत्तनयो भवेयं

गोप्यं मदीक्षणमिति प्रलयपन्नयासीः ॥३॥

त्वं काश्यपे तपसि संनिदधत्तदानीं

प्रप्तोऽसि गर्भमदितेः प्रणुतो विधात्रा ।

प्रासूत च प्रकटवैष्णवदिव्यरूपं

सा द्वादशीश्रवणपुण्यदिने भवन्तम् ॥४॥

पुण्याश्रमं तमभिवर्षति पुष्पवर्षे -

र्हर्षाकुले सुरगणे कृततूर्यघोषे ।

बद्ध्वाञ्चलिं जय जयेति नुतः पितृभ्यां

त्वं तत्क्षणे पटुतमं वटुरूपमाधाः ॥५॥

तावत् प्रजापतिमुखैरुपनीय मौञ्ची -

दण्डजिनाक्षवलयादिभिरर्च्यमानः ।

देदीप्यमानवपुरीश कृताग्निकार्य -

स्त्वं प्रास्थिथा बलिगृहं प्रकृताश्र्वेमेधम् ॥६॥

गात्रेण भाविमहिमोचितगौरवं प्राग्

व्यावृण्वदेव धरणीं चलयन्नयासीः ।

छत्रं परोष्मतिरणार्थमिवादधानो

दण्डं च दानवजनेष्वि संनिधातुम् ॥७॥

आनीतामाशु भृगुभिर्महसाभिभूतै -

स्त्वां रम्यरूपमसुरः पुलकावृताङ्गः ।

भक्त्या समेत्य सुकृती परिषिच्य पादौ

तत्तोयमन्वधृत मूर्धनि तीर्थतीर्थम् ॥९॥

प्रह्रदवंशजतया क्रतुभिर्द्विजेषु

विश्र्वासतो नु तदिदं दितिजोऽपि लेभे ।

यत्ते पदाम्बु गिरिशस्य शिरोऽभिलाल्यं

स त्वं विभो गुरुपुरालय पालयेथाः ॥१०॥

॥ इति वामनावतारवर्णनं त्रिंशत्तमदशकं समाप्तम् ॥

यद्यपि समरभूमिमें इन्द्रने महात्मा बलिको मार डाला था , तथापि शुक्राचार्यने संजीविनी विद्याद्वारा उनके शरीरको जिवित कर दिया । तब उन्होंने यज्ञके अनुष्ठानद्वारा अपनी शक्तिको बढ़ाया और पराक्रम करके त्रिलोकीको अपने वशमें कर लिया । उस समय उनसे भयभीत होकर देवगण इधर -उधर जा छिपे थे । (प्रह्लाद -वंशज होनेके कारण ) वे आपके सुदर्शनचक्र आदि अस्त्रोंसे निर्भय थे ॥१॥

अपने पुत्र इन्द्रको विपत्तिग्रस्त देखकर माता अदिति खेद -खिन्न हो अपने पति महर्षि कश्यपकी शरणमें गयीं । उन्होंने अदितिको पयोव्रत नामक आपका पूजन बतलाया । तब अदितिने आपमें पूरे भक्तियोगसे दत्तचित्त होकर बारह दिनतक उस व्रतका अनुष्ठान किया ॥२॥

उस पयोव्रतकी समाप्तिके अवसरपर जिसकी बुद्धि आपमें निलीन थी उस अदितिके समक्ष श्यामवर्णवाले आप स्वयं चतुर्भुजरूपमें प्रकट हुए और अपने चरणोंमें पड़ी हुई अदितिसे ‘मैं तुम्हारा पुत्र होऊँगा । तुम मेरे इस देर्शनकी बात किसीसे मत कहना । ’—— यों कहकर आप अन्तर्धान हो गये ॥३॥

तदनन्तर आप कश्यपके तपोमय वीर्यमें आविष्ट होकर अदितिके गर्भमें जा पहुँचे । यह जानकर ब्रह्माने आपका स्तवन किया । फिर समय आनेपर अदितिने द्वादशी तिथि तथा श्रवण नक्षत्रसे युक्त पुण्य मुहूर्तमें आपको जन्म दिया । उस समय आप विष्णुसम्बन्धी दिव्यरूपमें प्रकट हुए थे ॥४॥

आपको देखकर देव -समुदाय हर्षविभोर हो उठा । वे दुन्दुभियॉं बजाते हुए उस पुण्याश्रमपर पुष्प -वृष्टि करने लगे । आपके मातापिता भी अञ्चलि बॉंधकर जय -जयकार करते हुए स्तवनमें प्रवृत्त हो गये । उसी क्षण आपने परम पटु ब्रह्मचारिका रूप धारण कर लिया ॥५॥

तब प्रजापति आदि ऋृषियोंने आपका उपनयन -संस्कार करके मौञ्जी , दण्ड , कृष्णमृग -चर्म और अक्षमाला आदिसे आपको सुसज्जित कर दिया , जिससे आपका शरीर उद्भासित हो उठा । ईश ! तब आप अग्निहोत्रका कार्य सम्पन्न करके जहॉं अश्र्वमेघ यज्ञ हो रहा था बलिकी उस यज्ञशालाकी ओर प्रस्थित हुए ॥६॥

उस समय आप शरीरसे भावी विराट् रूपकी विशालताके अनुरूप गौरव पहलेसे ही प्रकट करते हए -से धरणीको कँपाते हुए चल रहे थे । छत्र तो माना आपने शत्रुओंकी गर्मीका निवारण करनेके लिये तथा दण्ड मानो दैत्यजनोंको दण्डित करनेके लिये धारण कर रखा था ॥७॥

नर्मदाके उत्तर तटपर स्थित उस यज्ञशालामें आपके पहुँचनेपर आपकी कान्तिसे शुक्र आदि महर्षियोंके नेत्र चौंधिया गये । वे परस्पर यों अटकल लगाने लगे कि यह कौन है ? क्या ये सूर्य , अग्नि अथवा योगी सनत्कुमार तो नहीं हैं ? ॥८॥

तत्पश्र्चात् आपके तेजसे अभिभूत (हतप्रतिभ ) हुए शुक्राचार्य आदि ऋषि मनोहर रूपधारी आपको शीघ्र ही बलिके पास ले गये । आपको देखते ही असुरराज बलिका शरीर पुलकित हो उठा । फिर तो उस पुण्यात्माने भक्तिपूर्वक आपके निकट जाकर आपका पाद -प्रक्षालन किया और तिर्थका भी पवित्र करनेवाले उस पादोकको मस्तकपर धारण कर लिया ॥९॥

विभो ! यद्यपि बलि दैत्यकुलमें उत्पन्न हुआ था तथापि प्रह्लदका वंशज होनेके नाते या यज्ञानुष्ठानोंसे अथवा द्विजोंमें विश्र्वास करनेसे उसने उस पादोदकको प्राप्त कर लिया , जिसे शंकरजी बड़े लाड़से अपने मस्तकपर धारण करते हैं । गुरुपुरालय ! वही आप मेरा भी पालन कीजिये ॥१०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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