अष्टमस्कन्धपरिच्छेदः - एकत्रिंशत्तमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


प्रीत्या दैत्यस्तव तनुमहःप्रेक्षणात् सर्वथापि

त्वामाराध्यन्नजित रचयन्नञ्चलिं संजगाद ।

मत्तः किं ते समभिलषितं विप्रसूनो वद त्वं

वित्तं भक्तं भवनमवनिं वापि सर्वं प्रदास्ये ॥१॥

तामक्षीणां बलिगिरमुपाकर्ण्य कारुण्यपूर्णो -

ऽप्यस्योत्सेकं शमयितुमना दैत्यवंशं प्रशंसन् ।

भूमिं पादत्रयपरिमितां प्रार्थयामासिथ त्वं

सर्वं देहीति तु निगदिते कस्य हास्यं न वा स्यात् ॥२॥

विश्र्वेशं मां त्रिपदमिह किं याचसे बालिशस्त्वं

सर्वां भूमि वृणु किममुनेत्यालपत्त्वां स दृप्यन् ।

यस्माद्दर्पात्त्रिपदपरिपूर्त्यक्षमः क्षेपवादान्

बन्धं चासावगमदतदर्होऽपि गाढोपशान्त्यै ॥३॥

पादत्रय्या यदि न मुदितो विष्टपैर्नापि तुष्ये -

दित्युक्तेऽस्मिन् वरद भवते दातुकामेऽथ तोयम् ।

दैत्याचार्यस्तव खलु परीक्षार्थिनः प्रेरणात्तं

मा मा देयं हरिरयमिति व्यक्तमतेवाबभाषे ॥४॥

याचत्येवं यदि स भगवान् पूर्णकामोऽस्मि सोऽहं

दास्याम्येव स्थिरमिति वदन् काव्यशप्तोऽपि दैत्यः ।

विन्ध्यावल्या निजदायितया दत्तपाद्याय तुभ्यं

चित्रं चित्रं सकलमपि स प्रार्पयत्तोयपूर्वम् ॥५॥

निस्संदेहं दितिकुलपतौ त्वय्यशेषापर्ण तद्

व्यातन्वाने मुमुचुर्ऋृषयः सामराः पुष्पवर्षम् ।

दिव्यं रूपं तव च तदिदं पश्यतां विश्र्वभाजा -

मुच्चैरुच्चैरवृधदवधीकृत्य विश्र्वाण्डभाण्डम् ॥६॥

त्वत्पादाग्रं निजपदगतं पुण्डरीकोद्भवोऽसौ कुण्डीतोयैरसिचदपुनाद्यज्जलं विश्र्वलोकान् ।

हर्षोत्कर्षात् सुबहु ननृते खेचरैरुत्सवेऽस्मिन्

भेरीं निघ्रन् भुवनमचरज्जाम्ब्वान् भक्तिशाली ॥७॥

तावद् दैत्यास्त्वनुमतिमृते भर्तुराब्धयुद्धा

देवोपेतैर्भवदनुचरैः सङ्गता भङ्गमापन् ।

कालात्मायं वसति पुरतो यद्वशात् प्राग्जिताः स्मः

किं वो युद्धैरिति बलिगिरा तेऽथ पातालमापुः ॥८॥

दर्पोच्छित्त्यै विहितमखिलं दैत्य सिद्धोऽसि पुण्यै -

र्लोकस्तेऽस्तु त्रिदिवविजयी वासवत्वं च पश्र्चात्

मत्सायुज्यं भज च पुनरित्यन्वगृह्णा बलिं तं

विप्रैः संतनितमखवरः पाहि वातालयेश ॥१०॥

॥ इति बलिविध्वंसनमेकत्रिंशत्तमदशकं समाप्तम् ॥

किसीसे पराजित न होनेवाले भगवन् ! तत्पश्र्चात् आपके श्रीविग्रहके तेजको देखकर दैत्यराज बलिने प्रसन्नतापूर्वक षोडशोपचार -विधिसे आपकी आराधना करके हाथ जोड़कर यों कहा —— ‘ब्राह्मणकुमार ! स्पष्ट बतलाइये , आप मुझसे धन , भोजन , भवन अथवा भूमि -क्या प्राप्त करना चाहते हैं ? मैं आपको सब कुछ प्रदान करूँगा ’ ॥१॥

बलिकी उस अक्षीण -जगदीश्र्वरत्वको प्रकट करनेवाली वाणीको सुनकर करुणामूर्ति होनेपर भी आपने उसके गर्वका शमन करनेके लिये उद्यत हो दैत्यवंशकी प्रशंसा करते हुए उससे तीन पग भूमिकी याचना की ; क्योंकि ‘सर्वं देहि ’—— (हा शब्द बोल्ड करा ) ‘सब दो ’—— यह कहनेपर वह वचन किसके लिये हास्यास्पद नहीं होता ? अर्थात् सभी उसकी हँसी उड़ाते , इसीसे तीन पग भूमि ही मॉंगी ॥२॥

तब बलिने बड़े दर्पसे कहा ——‘तुम नादान हो । असे ! मुझ जगदीश्र्वरसे तीन पग भूमिकी क्या याचना करते हो ? सारी पृथ्वीका राज्य मॉंग लो ! इस तीन पग भूमिसे तुम्हें क्या लाभ होगा ?’ परंतु गर्व करनेके कारण वह तीन पग भूमिकी पूर्ति करनेमें समर्थ न हो सका , जिससे उसे आक्षेपपूर्ण वचन तथ बन्धन दोनों सहने पड़े । यद्यपि बलि इसके योग्य नहीं था तथापि सम्यक् प्रकारसे उस गर्वकी उपशान्तिके लिये आपने वैसा किया ॥३॥

यदि पादत्रयीसे संतोष नही होगा तो त्रिलोकीके दानसे भी वह संतुष्ट नहीं हो सकता —— यों कहे जानेपर बलिने आपको दान देनेके लिये जल हाथमें लिया । तब बलिकी धर्मस्थिरताकी परीक्षा लेनेकी इच्छावाले आपकी प्रेरणासे दैत्याचार्य शुक्रने बलिको ‘अरे ! या साक्षात् विष्णु हैं , इन्हें दान मत दो , मत दो ’—— यों स्पष्टरूपसे मना किया ॥४॥

तब ‘यदि ये भगवान् विष्णु हैं और इस प्रकार मुझसे याचना कर रहे हैं , तब तो मेरी सारी कामनाएँ पूर्ण हो गयीं -मैं कृतार्थ हो गया । निश्र्चय ही इन्हें इनकी अभीष्ट वस्तु प्रदान करुँगा । ’ बलिके यों कहनेपर शुक्राचार्यने उसे शाप दे दिया । तथापि अपनी प्रियतमा पत्नी विन्ध्यावलीद्वारा आपके लिये पाद्य समर्पित किये जानेपर बलिने आपको सर्वस्व समर्पित कर दिया । यह बड़े आश्र्चर्यकी बात हुई ॥५॥

जब दैत्यराज बलिने निस्संदेह आपको सर्वस्व समर्पित कर दिया , उस समय देवोंसहित ऋषिगण उसपर पुष्पोंकी वर्षा करने लगे । तदनन्तर विश्र्वके सभी प्राणियोंके देखते -देखते आपका वह दिव्य वामन -रूप ब्रह्माण्डकटाहको अवधि बनाकर ऊपर -ही -ऊपर बढ़ने लगा ॥६॥

बढ़ते -बढ़ते जब आपका चरण सत्यलोकमें जा पहुँचा , तब कमलजन्मा ब्रह्माने अपने धाममें स्थित उस चरणके अग्रभागको कमण्डलुके जलसे पखार लिया । उस पादोदकने सारे लोकोंको पवित्र कर दिया । उस शुभ अवसरपर आकाशचारी हर्षातिरेकसे विभिन्न प्रकारके नृत्य करने लगे और भक्तिशाली जाम्बवान्ने भेरी -वादनपूर्वक भुवनोंमें विचरते हुए आपकी परिक्रमा कर ली ॥७॥

तबतक दैत्योंनें संगठित होकर अपने स्वामीकी अनुमतिके बिना ही आपके अनुचर देवताओंके साथ युद्ध छेड़ दिया , परंतु वे पराजित हो गये । तदनन्तर ‘ये कालस्वरूप भगवान् विष्णु सामने खड़े हैं , जिनके कारण पूर्वमें हमलोग पराजित हुए थे ; अतः इस समय तुमलोगोंको युद्धसे कोई लाभ नही होगा । ’ बलिके यों कहनेपर वे सब -के -सब पातालमें चले गये ॥८॥

तब पक्षिराज गरुड़ने बलिको पाशसे बॉंध लिया । उस समय आपने बलिसे उच्चस्वरमें कहा ——‘दैत्यराज ! तुम जगदीश्र्वर हो न ? मेरी इस तृतीय पदको रखनेके लिये स्थान दो ; देते क्यों नहीं ?’ ‘भगवन् ! यह चरण मेरे मस्तक पर रख दिजिये ’——यों बलिके अविचलितभावसे कहनेपर स्वयं प्रह्लाद उसके निकट उपस्थित हो गये और आपका सम्मान करते हुए स्तवन करने लगे ॥९॥

उस समय आपने बलिपर अनुग्रह करके यों कहा -‘दैत्यराज ! यह सब कुछ तुम्हारा दर्प दूर करनेके लिये यिा गया है । तुम तो अपने पुण्यकर्मोंसे सिद्ध हो गये हो । अब तुम स्वर्गसे भी बढ़कर सुतललोकमें जाओ । इस इन्द्रके निवृत्त होनेके बाद तुम्हें इन्द्रपद भी प्राप्त होगा । उसके अनन्तर फिर तुम्हें मेरा सायुज्य प्राप्त होगा । ’ तत्पश्र्चात् विप्रोंद्वारा आपने उस यज्ञश्रेष्ठ राजसूयको पूर्ण कराया । वातालयेश !मेरी रक्षा कीजिये ॥१०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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