अष्टमस्कन्धपरिच्छेदः - एकोनत्रिंशत्तमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


उद्गच्छतस्तव करादमृतं हरत्सु

दैत्येषु तानशरणाननुनीय देवान् ।

सद्यस्तिरोदधिथ देव भवत्प्रभावा -

दुद्यत्स्वयूथ्यकलहा दितिजा बभूवुः ॥१॥

श्यामां रुचापि वयसापि तनुं तदानीं

प्राप्तोऽसि तुङ्गकुचमण्डलभङ्गुरां त्वम् ।

पीयूषकुम्भकलहं परिमुच्य सर्वे

तृष्णाकुलाः प्रतिययुस्त्वदुरोजकुम्भे ॥२॥

का त्वं मृगाक्षि विभजस्व सुधामिममि -

त्यारूढरागविवशानविभयाचतोऽमून् ।

विश्र्वस्यते मयि कथं कुलटास्मि दैत्या ।

इत्यालपन्नपि सुविश्र्वसितानतानीः ॥३॥

मोदात् सुधाकलशमेषु ददत्सु सा त्वं

दुश्र्चेष्टितं मम सहध्वमिति ब्रुवाणा ।

पङ्क्तिप्रभेदविनिवेशितदेवदैत्या

लीलाविलासगतिभिः समदाः सुधां ताम् ॥४॥

अस्मास्वियं प्रणयिनीत्यसुरेषु तेषु

जोषं स्थितेष्वथ समाप्य सुधां सुरेषु ।

त्वं भक्तलोकवशगो निजरूपमेत्य

स्वर्भानुमर्धपरिपीतसुधं व्यलावीः ॥५॥

त्वत्तः सुधाहरणयोग्यफलं परेषु

दत्त्त्वा गते त्वयि सुरैः खलु ते व्यगृह्णन् ।

घोरेऽथ मूर्च्छति रणे बलिदैत्यमाया -

व्यामोहित सुरगणे त्वमिहाविरासीः ॥६॥

त्वं कालनेमिमथ मलिमुखान् जघन्थ

शक्रो जघान बलिजम्भबलान् सपाकान् ।

शुष्कार्द्रदुष्करवधे नमुचौ च लूने

फेनेन नारदगिरा न्यरुणो रणं तम् ॥७॥

योषावपुर्दनुजमोहनमोहितं ते

श्रुत्वा विलोकनकुतूहलवन् महेशः ।

भूतैः समं गिरिजया च गतः पदं ते

स्तुत्वाब्रवीदभिमतं त्वमथो तिरोधाः ॥८॥

आरामसीमनि च कन्दुकघातलीला -

लोलायमाननयनां कमनीं मनोज्ञाम् ।

त्वामेष वीक्ष्य विगलद्वसनां मनोभूं -

वेगादनङ्गरिपुरङ समालिलिङ्ग ॥९॥

भूयोऽपि विद्रुतवतीमुपधाव्य देवो

वीर्यप्रमोक्षविकसत्परमार्थबोधः ।

त्वन्मानितस्तव महत्त्वमुवाच देव्यै

तत्तादृशस्त्वमव वातनिकेतनाथ ॥१०॥

॥ इति विष्णुमायाप्रादुर्भावादिवर्णनम् एकोनत्रिंशत्तमदशकं समाप्तम् ॥

देव ! प्रकट होते ही आपके हाथसे जब दैत्य उन अनन्यशरण देवताओंको पीछे ढकेलकर अमृत -कलश छीनने लगे तब तत्काल आप अदृश्य हो गये । उस समय आपके प्रभावसे उन दैत्योंमें परस्पर विवाद उठा खड़ा हुआ ॥१॥

तब आपने एक मोहिनी स्त्रीका रूप धारण किया , वह नारी कान्तिसे तो श्यामा थी ही , अवस्थामें भी श्यामा -सोलह सालकी तरुणी थी । वह उभरे हुए स्तनोंके भारसे कुछ झुकी -सी जान पड़ती थी । उसे देखकर सभी असुर तृष्णाकुल हो गये । फिर तो वे अमृतकलशको छोड़कर आपके स्तनकलशकी और दौड़ पड़े ॥२॥

वे अतिशय मोहके वशीभूत हो गये थे , अतः आपसे याचना करते हुए बोले ——‘मृगनयनी ! तुम कौन हो ? इस अमृतको हम - लोगोंमें बॉंट दो । ’ तब ‘दैत्यो ! मैं एक कुलटा स्त्री हूँ , तुमलोग मुझमें कैसे विश्र्वास कर रहे हो !’ —— यों कहते हुए भी आपने उनमें गाढ़ विश्वास उत्पन्न कर दिया ॥३॥

तत्पश्र्चात् वे असुर हर्षपूर्वक जब वह अमृतकलश आपको देने लगे , तब आपने ‘मेरी दृश्र्चेष्टाओंको तुम्हें सहन पड़ेगा ’- यों कहकर देवता और असुरोंको भिन्न -भिन्न पंक्तियोंमें बैठाया और लीला -विलासपूर्ण गतिसे चलकर उस सुधाको पूर्णरूपसे देवताओंको दे दिया ॥४॥

‘ यह हमलोगोंमें अनुराग रखनेवाली है ’—— यों विचारकर वे असुर चुपचाप बैठे रहे , तबतक भक्तजनोंके वशवर्ती आपने वह अमृत देवताओंमें ही समाप्त करके अपना असली रूप धारण कर लिया और जिसके गलेतक अमृत पहुँच चुका था , उस राहुके सिरको काट दिया ॥५॥

आपके पाससे अमृतका अपरहण करनेके योग्य जो व्यर्थ परिश्रमरूप फल था , उसे असुरोंको देकर जब आप अन्तर्धान हो गये , तब उन असुरोंने देवोंके साथ युद्ध ठान दिया । तत्पश्र्चात् उस बढ़ते हुए घोर संग्राममें जब दैत्यराज बलिकी आसुरी मायासे सुर -समुदाय विमोहित हो गया , तब आप वहॉं प्रकट हो गये ॥६॥

उस युद्धमें आपने कालनेमि , माली , सुमाली और माल्यवान्का संहार किया तथा इन्द्रने बलि , जम्भ , बल और पाकको मौतके घाट उतारा । पुनः जिसका वध सूखे एवं गीले पदार्थसे दुष्कर था , उस नमुचिका सिर समुद्र -फेनसे उतार लिया । तब नारदजीके कहनेसे आपने उस युद्धको बंद कर दिया ॥७॥

आपने दैत्योंको मोहमें डालनेवाला स्त्रीरूप धारण किया था —— यह सुनकर उसे देखनेकी अभिलाषासे शिवजी भूतगणों तथा पार्वतीके साथ आपके वासस्थान वैकुण्ठको गये । वहॉं आपका स्तवन करके उन्होंने अपना मनोरथ कह सुनाया । तब आप अन्तर्धान हो गये ॥८॥

अङ्ग ! तत्पश्र्चात् आप मनोमोहिनी स्त्रीके रूपमें प्रकट हुए । वह सुन्दरी उपवनके प्रान्तभागमें गेंद उछाल रही थी , जिससे उसके नेत्र चञ्चल हो रहे थे । वायुके वेगसे उसकी साड़ी खिसक गयी थी । उसे देखकर कामदेवके शत्रु शिवजीने मनोजके वेगसे स्त्री -रूपधारी आपको कसकर छातीसे चिपटा लिया ॥९॥

परंतु मोहिनी पुनः आपनेको छुड़ाकर भाग चली । तब महादेवजी भी उसके पीछे -पीछे दौड़ने लगे । उस समय वीर्यके स्खलित हो जानेपर शिवजीमें परमार्थज्ञानका प्रकाश हो आया । अब आपसे सम्मानित होकर उन्होंने देवी पार्वतीसे आपकी महिमाका बखान किया । वातनिकेतनाथ ! ऐसे भक्तवत्सल आप मेरी रक्षा कीजिये ॥१०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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