गावो मे अग्रतः सन्तु गावो मे सन्तु पृष्ठतः ।
गावो मे सर्वतः सन्तु गवां मध्ये वसाम्यहम् ॥
इक्ष्वाकुवंशमें महाराज दिलीप बड़े ही प्रसिद्ध राजर्षि हो गये हैं । वे बड़े भक्त, धर्मात्मा और प्रजापालक राजा थे । चारों वर्ण उनके शासनसे सन्तुष्ट थे । महाराजको सभी प्रकारके सुख थे, किन्तु उनके कोई सन्तान नहीं थी । एक बार ये इसके लिये अपने कुलगुरु महर्षि वशिष्ठजीके आश्रमपर गये और अपने आनेका कारण बताकर उनसे उपाय पूछा ।
महर्षि वशिष्ठने दिव्यदृष्टिसे सब बातें समझकर कहा - ' राजन् ! आप एक बार देवासुर - संग्राममें गये थे । वहाँसे लौटकर जब आप आ रहे थे, तब रास्तेमें आपको सुरनन्दिनी कामधेनु मिली । आपके सामने होनेपर भी आपकी दृष्टि उनपर नहीं पड़ी, इसलिये आपने उन्हें प्रणाम नहीं किया । कामधेनुने इसे अविनय समझकर आपको सन्तानहीनताका शाप दे दिया । उस समय आकाशगङ्गा बड़े जोरोंसे शब्द कर रही थी, उससे आपने उस शापको सुना नहीं । अब इसका एक ही उपाय है कि किसी भी प्रकार उस गौको आप प्रसन्न कीजिये । वह गौ तो अब यहाँ है नहीं । उसकी बछिया मेरे पास है, आप उसकी सेवा करें । भगवानने चाहा तो आपका मनोरथ शीघ्र ही पूरा होगा ।'
गुरुकी आज्ञा शिरोधार्यकर महाराज अपनी महारानीके सहित गौकी सेवामें लग गये । वे प्रातः बड़े ही सबेरे उठते, उठकर गौकी बछियाको दूध पिलाते, ऋषिके हवनके लिये दूध दुहते और फिर गौको लेकर जंगलमें चले जाते । गौ जिधर भी जाती, उसके पीछे - पीछे चलते । वह बैठ जाती तो स्वयं भी बैठकर उसके शरीरको सहलाते । हरी - हरी दूब उखाड़कर उसे खिलाते । जिधरमे भी वह चलती, ऊधर ही चलते । सारांश कि महाराज छायाकी तरह गौके साथ - साथ रहते । इस प्रकार महाराजको इक्कीस दिन हो गये ।
एक दिन वे गौके पीछे - पीछे जंगलमें जा रहे थे । गौ एक बहुत बड़े गहन वनमें घुस गयी । महाराज भी पीछे पीछे धनुषसे लताओंको हटाते हुए चले । एक वृक्षके नीचे जाकर उन्होंने क्या देखा कि गौ नीचे है, उसके ऊपर एक सिंह चढ़ बैठा है और गौका वध करना चाहता है । महाराजने भाथेसे बाण निकालकर उस सिंहको मारना चाहा, किन्तु उनका हाथ जहाँ - का - तहाँ जडवत् रह गया । अब वे क्या करते । उन्होंने अत्यन्त दीनतासे कहा - ' आप कोई सामान्य सिंह नहीं हैं, आप देवता हैं । इस गौको छोड़ दीजिये; इसके बदलेमें आप मुझे जो भी आज्ञा दें, मैं करनेको तैयार हूँ ।' सिंहने कहा - ' यह वृक्ष भगवती पार्वतीको अत्यन्त प्रिय हैं, मुझे शिवजीने स्वयं अपनी इच्छासे उत्पन्न करके इसकी रक्षामें नियुक्त किया है । यहाँ जो भी आता है, वही मेरा आहार है । यह गौ यहाँ आयी है, इसे ही खाकर मैं पेट भरुँगा । इस विषयमें आप कुछ भी नहीं कर सकते ।'
महाराजने कहा - ' सिंहराज ! यह गौ मेरे गुरुदेवकी है, मैं इसके बदले आपको सब कुछ देनेको तैयार हूँ; आप मुझे खा लें और इसे छोड़ दें ।'
सिंहने बहुत समझाया कि ' आप महाराज हैं, प्रजाके प्राण हैं, गुरुको ऐसी लाखों गौएँ देकर सन्तुष्ट कर सकते हैं ।' किन्तु महाराजने एक न मानी । अन्तमें सिंह तैयार हो गया, महाराज जमीनपर पड़ गये । थोड़ी देरमें उन्होंने देखा तो न वहाँ सिंह था, न वृक्ष; केवल कामधेनु वहाँ खड़ी थी । उसने कहा - ' राजन् ! मैं आपपर बहुत प्रसन्न हूँ, यह सब मेरी माया थी; आप मेरा दूध अभी दुहकर पी लें, आपके पुत्र होगा ।' महाराजने कहा - ' देवि ! आपका आशीर्वाद शिरोधार्य हैं; किन्तु जबतक आपका बछड़ा न पी लेगा, गुरुके यज्ञके लिये दूध न दुह लिया जायगा और गुरुजीकी आज्ञा न होगी, तबतक मैं दूध नहीं पीऊँगा ।'
इसपर गौ बहुत सन्तुष्ट हुई । गौ सन्ध्याको महाराजके आगे - आगे भगवान् वशिष्ठके आश्रमपर पहुँची । सर्वज्ञ ऋषि तो पहले ही सब जान गये थे । महाराजने जाकर जब यह सब वृत्तान्त कहा, तब वे प्रसन्न होकर बोले - ' राजन् ! आपका मनोरथ पूरा हुआ । गौकी कृपासे आपके बड़ा पराक्रमी पुत्र होगा । आपका वंश उसके नामसे चलेगा ।'
नियत समयपर ऋषिने नन्दिनीका दूध राजा और रानीको दिया । महाराज अपनी राजधानीमें आये और रानी गर्भवती हुई । यथासमय उनके पुत्र उत्पन्न हुआ । यही बालक रघुकुलका प्रतिष्ठाता रघु नामसे विख्यात हुआ । महाराज दिलीप भगवान् श्रीरामचन्द्रजीके वृद्धप्रपितामह हैं ।