सत्ययुगकी बात है, मालवप्रदेशकी अवन्तिकापुरीमें इन्द्रद्युम्न नामसे प्रसिद्ध एक राजा राज्य करते थे । उनका जन्म सूर्यवंशमें हुआ था । वे ब्रह्माजीसे पाँच पीढ़ी नीचे थे । राजा इन्द्रद्युम्न महान् सत्यवादी, सदाचारी, शुद्धात्मा तथा सात्विक पुरुषोंमें अग्रगण्य थे । वे प्रजाको अपनी सन्तान समझते और सदा न्यायपूर्वक उसका पालन करते थे । वे अध्यात्मवेत्ता, शूरवीर, उद्यमशील, ब्राह्मणभक्त, विद्वान्, रुपवान्, सौभाग्यशाली, शीलवान्, दानी, प्रियवक्ता, यज्ञोंक अनुष्ठान करनेवाले तथा सत्यप्रतिज्ञ थे । भगवान् विष्णुके चरणोंमें उनकी अनन्य भक्ति थी । वे अपने चर्मचक्षुओंसे भगवान् श्रीहरिका साक्षात् दर्शन या लेनेके लिये सदैव उत्कण्ठित रहते थे ।
एक दिन राजाके यहाँ देवर्षि नारद पधारे । राजाने पाद्य, अर्ध्य आदि देकर देवर्षिका पूजन किया और उन्हें सुन्दर सिंहासनपर बैठाकर विनयपूर्वक कहा - ' भगवान् ! आज आपके पदार्पणसे मेरा यह घर और कुल पवित्र हो गये । आपके दर्शन पाकर यह सेवक कृतकृत्य हो गया । योग्य सेवाके लिये आदेश देकर मुझे अनुगृहीत कीजिये ।'
राजाकी यह विनयभरी बात सुनकर देवर्षि नारद मुसकराते हुए बोले - ' नृपश्रेष्ठ ! मैंने सुना है, तुम भगवान् श्रीहरिका साक्षात् दर्शन करनेकी इच्छासे नीलाचल जानेका विचार कर रहे हो । यदि ऐसी बात है तो तुमने यह बहुत उत्तम निश्चय किय है । यह संसार एक भयङ्कर वन है । इसमें पग - पगपर दुःख और संकटके काँटे बिछे हुए हैं । यहाँ भटकनेवाले मनुष्योंके भारी - से भारी पाप भी विष्णुभक्तिकी आगमें भस्म हो जाते हैं । प्रयाग, गङ्गा आदि तीर्थ, तपस्या, श्रेष्ठ अश्वमेध यज्ञ, बड़े - बड़े दान, व्रत, उपवास और नियम - इन सबका सहस्रों बार अनुष्ठान किय जाय और इन सबके सम्मिलित पुण्योंको कोटि - कोटि गुना करके रक्खा जाय तो भी वह विष्णुभक्तिके हजारवें अंशके बराबर भी नहीं कहा जा सकता ।
राजाने पूछा - ' भगवन् ! भक्तका क्या स्वरुप है ?'
नारदजीने कहा - राजन् ! सावधान होकर सुनो । गुणोंके भेदसे भक्तिके तीन भेद हैं - सात्त्विकी, राजसी और तामसी । इनके अतिरिक्त एक चौथी भक्ति भी है, जो निर्गुण मानी गयी है । राजन् ! जो लोग काम और क्रोधके वशीभूत हैं और प्रत्यक्ष ( इस जगत् ) के सिवा और किसी ( परलोक आदि ) की ओर दृष्टि नहीं रखते, वे अपनेको लाभ और दूसरोंको हानि पहुँचानेके लिये जो भजन करते हैं, उनकी वह भक्ति तामसी कही गयी है । अधिक यशकी प्राप्तिके लिये अथवा दूसरेकी स्पर्धा ( लाग - डाट ) से, प्रसङ्गवश परलोकके लिये भी, जो भक्ती होती है, वह राजसी मानी गयी है । पारलौकिक लाभको स्थायी समझकर और इहलोकके समस्त पदार्थोको नश्वर देखकर अपने वर्ण तथा आश्रमके धर्मोका परित्याग न करते हुय आत्मज्ञानके लिये जो भक्ती की जाती है, वह सात्विकी है । यह जगत् जगन्नाथका ही स्वरुप है, उनसे भिन्न इसका कोई दूसरा कारण नहीं है, मैं भी भगवानसे भिन्न नहीं हूँ और वे भी मुझसे पृथक् नहीं हैं - यों समझकर भेद उत्पन्न करनेवाली बाह्य उपाधियोंका त्याग करना और अधिक प्रेमसे भगवत् - स्वरुपका चिन्तन करते रहना - यह अद्वैत ( निर्गुणा ) नामवाली भक्ति है, जो मुक्तिका साक्षात् साधन है । यह अत्यन्त दुर्लभ है ।
अब मैं विष्णुके भक्तोंके लक्षण बताता हूँ - जिनका चित्त अत्यन्त शान्त है, जो सबके प्रति कोमलभाव रखते हैं, जिन्होंने स्वेच्छानुसार अपनी इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त कर ली है तथा जो मन, वाणी और क्रियाद्वारा कभी दूसरोंसे द्रोह करनेकी इच्छा नहीं रखते, जिनका चित्त दयासे द्रवीभूत रहता है, जो चोरी और हिंसासे सदा ही मुख मोड़े रहते हैं, सद्गुणोंके संग्रह तथा दूसरोंके कार्यसाधनमें जो प्रसन्नतापूर्वक संलग्न रहते हैं, सदाचारसे जिनका जीवन सदा उज्ज्वल ( निष्कलङ्क ) बना रहता है, जो दूसरोंके उत्सवको अपना उत्सव मानते हैं, सब प्राणियोंके भीतर भगवान् वासुदेवको विराजमान देखकर कबी किसीसे ईर्ष्या - द्वेष नहीं रखते, दीनोंपर दया करना जिनका स्वभाव बन गया है ओर जो सदा परहितसाधनकी इच्छा रखते हैं, अविवेकी मनुष्योंका विषयोंमें जैसा प्रेम होता है, उससे सौ कोटि गुनी अधिक प्रीतिका विस्तार जो भगवान् श्रीहरिके प्रति करते हैं, नित्य कर्तव्यबुद्धिसे विष्णुस्वरुप शङ्कर आदि देवताओंका भक्तिपूर्वक पूजन और ध्यान करते हैं, पितरोंमें भगवान् विष्णुकी ही बुद्धि रखते हैं, भगवान् विष्णुसे भिन्न दूसरी किसी वस्तुको नहीं देखते, समष्टि और व्यष्टि सब भगवानके ही स्वरुप हैं, भगवान् जगतसे भिन्न होकर भी भिन्न नहीं है, ' है भगवान् जगन्नाथ ! मैं आपका दास हूँ, आपके स्वरुपमें भी मैं हूँ, आपसे पृथक् कदापि नहीं हूँ, जब आप भगवान् विष्णु अन्तर्यामीरुपसे सबके हदयमें विराजमान हैं, तब सेव्य अथवा सेवक कोई भी आपसे भिन्न नहीं है ' इस भावनासे सदा सावधान रहकर जो ब्रह्माजीके द्वारा वन्दनीय युगलचरणारविन्दोंवाले श्रीहरिको सदा प्रणाम करते, उनके नामोंका कीर्तन करते, उन्हींके भजनमें तत्पर रहते और संसारके लोगोंके समीप अपनेको तृणके समान तुच्छ मानकर विनयपूर्ण बर्ताव करते हैं, जगतमें सब लोगोंका उपकार करनेके लिये जो कुशलताका परिचय देते हैं, दूसरोंके कुशलक्षेमको अपना ही मानते हैं, दूसरोंका तिरस्कार देखकर उनके प्रति दयासे द्रचीभूत हो जाते हैं तथा सबके प्रति मनमें कल्याणकी भावना करते हैं, वे ही विष्णुभक्तके नामसे प्रसिद्ध हैं । जो पत्थर, परधन और मिट्टीके ढेलेमें, पराथी स्त्री और कूटशाल्मली नामक नरकमें, मित्र, शत्रु, भाई तथा बन्धुवर्गमें समान बुद्धि रखनेवाले हैं, वे ही निश्चितरुपसे विष्णुभक्तके नामसे प्रसिद्ध हैं । जो दूसरोंकी गुणराशिसे प्रसन्न होते और पराये मर्मको ढकनेका प्रयत्न करते हैं, परिणाममें सबको सुख देते हैं, भगवानमें सदा मन लगाये रहते तथा प्रिय वचन बोलते हैं, वे ही वैष्णवके नामसे प्रसिद्ध हैं ।
नारदजीका यह उपदेश सुनकर राजा इन्द्रद्युम्न बहुत प्रसन्न हुए और इस प्रकार बोले - ' भगवान् ! आपके सङ्ग और सदुपदेशसे मेरे अज्ञानमय अन्धकारका नाश हो गया । इस समय मेरा मन भगवान् नीलमाधवके दर्शनके लिये उत्सुक एवं विकल है । अतः आप और हम दोनों रथपर बैठकर नीलाचल चलें और भगवानके दर्शन करें ।'
नारदजीके ' तथास्तु ' कहनेपर महाराज इन्द्रद्युम्नने यात्राकी आवश्यक तैयारी कर ली और राजकीय मन्दिरमें भगवान् विष्णुके दर्शन करके वे नारदजीके साथ रथपर सवार हुए । मार्गमें महानदी तथा भुवनेश्वरक्षेत्र आदि पुण्यस्थानों एवं देवताओंका दर्शन करते हुए वे यथासमय दल - बलसहित पुरुषोत्तम क्षेत्रमें जा पहुँचे । वहाँ राजा इन्द्रद्युम्नने नारदजीके साथ भगवान् नृसिंहजी, कल्पवट तथा श्रीनीलमाधवके स्थानके दर्शन किये ।
नारदजीने जब वहाँ भगवान् नृसिंहकी प्रतिमाकी स्थापना की, उस समय राजाने भगवानका स्तवन करते हुए कहा कि ' भगवान् ! आप मुझे अपने चरणारविन्दोंकी श्रेष्ठ भक्ति दीजिये । आप मुझ अनाथपर कृपा किजिये, जिससे मैं अपने इस चर्मचक्षुसे आपके दिव्य स्वरुपका दर्शन कर सकूँ ।'
तत्पश्चात् उन्होंने एक हजार अश्वमेध यज्ञोंका अनुष्ठान आरम्भ किया । जब वे अश्वमेध यज्ञ नौ सौ निन्यानबेकी संख्यातक पहुँच गये, तब सोमरस निकालेने सात दिनके बाद जो रात्रि आयी, उसके चौथे प्रहरमें राजा इन्द्रद्युम्नने अविनाशी भगवान् विष्णुका ध्यान किया । उस ध्यानमें उन्हें एक रत्नसिंहासनपर शङ्ग - चक्र - गदाधारी भगवान् विष्णुका दर्शन हुआ । उनके श्रीअङ्गोंकी कान्ति नीलमेघके समान श्याम थी । वे वनमालासे विभूषित थे । उनके दाहिने भागमें शेषजी विराजमान थे, जो फणरुपी मुकुटका विस्तार करके सुन्दर छत्रके आकारमें परिणत हो गये थे । भगवानके वामभागमें भगवती लक्ष्मी विराजमान थीं । भगवानके आगे ब्रह्माजी हाथ जोड़े खड़े थे । सनकादि मुनीश्वर उनकी स्तुति कर रहे थे । ध्यानमें भगवानका इस प्रकार दर्शन पाकर राजा इन्द्रद्युम्नको बड़ा हर्ष हुआ । इन्द्रद्युम्नने भगवानकी स्तुति करके उन्हें प्रणाम किया । फिर ध्यानके अन्तमें राजाको अपने - आपका भान हुआ, तब उन्होंने नारदजीसे सब बातें कहीं । तब नारदजीने आश्वासन देते हुए कहा - ' राजन् ! इस यज्ञके अन्तमें तुम्हें भगवान् यहाँ प्रत्यक्ष दर्शन देंगे । ये सब बातें दूसरे किसीके आगे प्रकाशित न करना ।'
राजा इन्द्रद्युम्नके अश्वमेध यज्ञके समाप्त होनेपर आकाशवाणी हुई । तदनुसार वहाँ भगवान् स्वयं चार विग्रहोंमे प्रकट हुए । बलभद्र, सुभद्रा और सुदर्शनचक्रके साथ भगवान् जगन्नाथजी दिव्य आसनपर विराजमान हुए । भगवानके चार दिव्य रुप सम्पन्न हो जानेपर पुनः आकाशवाणी हुई कि ' इन चारों प्रतिमाओंकी नीलाचलपर कल्पवृक्षके वायव्यकोणमें सौ हाथकी दूरीपर और भगवान् नृसिंहके उत्तर भागमें जो मैदान है, उसमें मन्दिर बनवाकर स्थापना करो ।' राजाने उसका प्रसन्नतापूर्वक पालन किया । राजा इन्द्रद्युम्नने भगवान् जगन्नाथजीकी स्थापना करके उनकी स्तुति की और फिर उन चारों काष्ठमयी प्रतिमाओं का विधिवत् पूजन किया । यह वही पुरुषोत्तमक्षेत्र है, जो चारों धामोंमेंसे एक है और जगन्नाथपुरीके नामसे प्रसिद्ध है । राजर्षि इन्द्रद्युम्न भगवान् पुरुषोत्तमको प्रसन्न करके नारदजीके साथ ब्रह्मलोकमें चलें गये ।