मन्दोदरी

भक्तो और महात्माओंके चरित्र मनन करनेसे हृदयमे पवित्र भावोंकी स्फूर्ति होती है ।


त्रिपुरनिर्माता, दानवराज मयने अप्सरा हेमासे परिणय किया । अप्सरा कबतक दानवपुरीमें रहेगी । देवताओंके आहानपर वह स्वर्ग चली गयी । नवजात पुत्रीको वह मयके समीप छोड़ती गयी । मयने पुत्रीका नाम मन्दोदरी रक्खा । पतीके वियोगसे व्याकुल मयका सारा स्नेह पुत्रीमें केन्द्रित हो गया । वे स्त्री - विश्राम नहीं मिलता था । अपनी कन्याको वे सदा अपने साथ ही रखते थे ।

मय अपनी कन्याको लिये पृथ्वीपर घोर अरण्यमें घूम रहे थे । मन्दोदरीने पंद्रहवें वर्षकी आयुमें प्रवेश किया था । उस सौन्दर्यमयी किशोरीमें तारुण्यने प्रवेश पाया था । अकस्मात् राक्षसराज रावणसे मयका वहीं साक्षात् हो गया । अभी रावण था अविवाहित । दानवेन्द्र और राक्षसेन्द्रका परस्पर परिचय हुआ । पितामह ब्रह्माके प्रपौत्र रावणने अपने वंशका परिचय देकर भयसे कन्याकी याचना की । दानवेन्द्रको सुयोग पात्र मिला । उन्होंने वहीं रावणको विधिवत् कन्यादान किया । दहेजमें रावणकी पट्टमहिषी हुई ।

रावणने अनेक देव, गन्धर्व एवं नागकन्याओंसे विवाह किया; परंतु मन्दोदरी सर्वप्रधान तथा सदा रावणको सबसे प्रिय रही । मन्दोदरीने सदा रावणका कल्याण चाहा और उसे सदा सत्पथपर बनाये रखनेके प्रयत्नमें रही । उसने रावणके दुष्कृत्योंका सदा नम्रतापूर्वक विरोध किया ।

सतीत्व स्वयं एक महासाधन है और उससे समस्त सिद्धियाँ स्वतः प्राप्त हो जाती हैं । सती नारी केवल पतिसेवासे निःश्रेयसको भी सरलतासे प्राप्त कर लेती है । मन्दोदरीके सतीत्वने उसके हदयमें स्वयं यह प्रकट कर दिया कि परात्पर पुरुषोत्तमका अवतार अयोध्यामें हो चुका है । जब रावणने छलसे श्रीजनकनन्दिनीका हरण किया, तब मन्दोदरीन बड़ी नम्रता एवं शिष्टतापूर्वक उसे समझाया - ' नाथ ! श्रीराम मनुष्य नहीं हैं; वे सर्वेश्वर, सर्वसमर्थ, सच्चिदानन्दधन साक्षात् जगजननी योगमाया हैं । यह वैर आपके लिये योग्य नहीं । श्रीजनकनन्दिनीको श्रीरामके समीप पहुँचा दें । लङ्काका राज्य मेघनादको दे दें । हम दोनों वनमें कहीं उन कोसलकुमारका ध्यान करें । वे करुणामय अवश्य आपपर कृपा करेंगे ।'

एक - दो नहीं, अनेक बार चरण पकड़कर मन्दोदरीने पतिको समझाया । जब भी लङ्केश्वर अन्तःपुरीमें मिलता, यह साध्वी उससे आग्रहपूर्वक प्रार्थना करती । पूरी रात्रि अनुनय एवं उपदेशमें व्यतीत हो जाती । जिस अहङ्कारीने ' सीता देहु राम कहँ ' कहनेपर विभीषणको लात मारकर लङ्कासे निकाल दिया था, जिसने वृद्ध नाना माख्यवन्तको भरी सभामें डाँटनेमें कोई संकोच नहीं किया, वही रावण कभी भी मन्दोदरीका तिरस्कार न कर सका । हँसकर टाल जाता या उठकर चल देता । वह जानता था कि पत्नी सच्चे हदयसे उसका कल्याण चाहती है ।

जो होना था, हो गया । सर्वात्माके संकल्पमें बाधा देना सम्भव नहीं । श्रीराघवेन्द्र पृथ्वीका भार दूर करने साकेतसे पधारे थे । उन्हें तो रावण - वध करना ही था । रणक्षेत्रमें दशाननके शवपर रोती - बिलखती मयपुत्रीको उन्होंने कृपाकी दृष्टिसे देखा । शुद्ध हदयपर भगवत्कृपा हुई । मायाका आवरण छिन्न हो गया । कहाँका शोक और कैसा मोह ?

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Last Updated : April 28, 2009

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