तुलाधार

भक्तो और महात्माओंके चरित्र मनन करनेसे हृदयमे पवित्र भावोंकी स्फूर्ति होती है ।


ये तुलाधार वैश्य अत्यन्त भगवद्भक्त और सत्यपरायण पुरुष थे । इनकी प्रशंसा सभी लोग करते थे । ये व्यापारमें लगे रहकर भी इतने धर्मानिष्ठ और भगवच्चिन्तनपरायण थे कि इनकी समता करनेवाला उस समय और कोई न था ।

इन्हीं दिनों ' जाजलि ' नामके एक ब्राह्मण समुद्रके किनारे घोर तपस्या कर रहे थे । वे अपने आहार - विहारको नियमित करके वस्त्रके स्थानपर वल्कलका उपयोग करते हुए मन - प्राण आदिको रोककर योगसाधनाकी बहुत ऊँची भूमिकामें पहुँच गये थे । एक दिन जलमें खड़े होकर ध्यान करते - करते उनके मनमें सृष्टिके ज्ञानका उदय हुआ । भूगोल - खगोल आदिके विषय उन्हें करामलकवत् प्रत्यक्ष होने लगे । उनके मनमें यह अभिमान हो गया कि ' मेरे समान कोई दूसरा नहीं हैं ।' उनके इस भावको जानकर आकाशवाणी हुई -- ' महाशय ! आपका यह सोचना ठीक नहीं । काशीमें एक तुलाधार नामके व्यापारी रहते हैं, वे भी ऐसी बात नहीं कह सकते; आपको तो अभी ज्ञान ही क्या हुआ है ।' इसपर जाजलि तुलाधारके दर्शनके लिये उत्कण्ठित हो गये और मार्गका ज्ञान प्राप्त करके वे काशीकी ओर चल पड़े । तीर्थाटन करते हुए वे काशी पहुँचे और उन्होंने देखा कि महात्मा तुलाधार अपनी दूकानपर बैठे व्यापारका काम कर रहे हैं । जाजलिको देखते ही वे उठ खड़े हुए और बड़ा स्वागत - सत्कार करके नम्रताके साथ बोले -- ' ब्रह्मन् ! आप मेरे ही पास आये हैं, आपकी तपस्याका मुझे पता है । आपने सर्दी - गरमी और वर्षाकी परवा न करके केवल वायु पीते हुए ठूँठकी तरह खड़े रहकर तपस्या की है । जब आपको सूखा वृक्ष समझकर जटामें चिड़ियोंने घोंसले बना लिये, तब बी आपने उनकी ओर दृष्टि नहीं डाली । कई पक्षियोंने आपकी जटामें ही अंडे दिये और वहीं उनके अंडे फूटे और बच्चे सयाने हुए । यह सब देखते - देखते आपके मनमें तपस्याका धमंड हो आया, तब आकाशवाणी सुनकर आप यहाँ पधारे हैं । अब बतलाइये, मैं आपकी क्या सेवा करुँ ?'

तुलाधारकी ये बातें सुनकर जाजलिको बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने पूछा कि ' आपको इस प्रकारका निर्मल ज्ञान और व्यवसायात्मिका बुद्धि कैसे प्राप्त हुई ?' तुलाधारने सत्य, अहिंसा आदि साधारण धर्मोंकी बात सुनाकर अपने विशेषधर्म, सनातन वर्णाश्रमधर्मपर बड़ा जोर दिया । उन्होंने बतलाया कि -- ' अपने वर्ण और आश्रमके अनुसार कर्तव्य - कर्मका पालन करते हुए जो लोग किसीका अहित नहीं करते और मनसा - वाचा - कर्मणा सबके हितमें ही तत्पर रहते है उन्हें कोई वस्तु दुर्लभ नहीं । इन्हीं बातोंके यत्किञ्चित् अंशसे मुझे यह थोड़ा - सा ज्ञान प्राप्त हुआ है । यह सारा जगत् भगवानका स्वरुप है, इसमें कोई अच्छा या बुरा नहीं । मिट्टी और सोनेमें तनिक भी अन्तर नहीं । इच्छा, द्वेष और भय छोड़कर जो दूसरोंको भयभीत नहीं करता और किसीका बुरा नहीं सोचता, वही सच्चे ज्ञानका अधिकारी है । जो लोग सनातन सदाचारका उल्लङ्घन करके अभिमान आदिके वशमें हो जाते हैं, उन्हें वास्तविक ज्ञानकी उपलब्धि आदिके वशमें हो जाते हैं, उन्हें वास्तविक ज्ञानकी उपलब्धि नहीं होती ।' यह कहकर तुलाधारने जाजलिको सदाचारका उपदेश किया । यह कथा महाभारतके शान्तिपर्वमें आती है । इसमें श्रद्धा, सदाचार, वर्णाश्रमधर्म, सत्य, समबुद्धि आदिपर बड़ा जोर दिया गया है । प्रत्येक कल्याणकामी पुरुषको इसका अध्ययन करना चाहिये । तुलाधारके उपदेशोंसे जाजलिका अज्ञान नष्ट हो गया और वे ज्ञान सम्पन्न होकर अपने धर्मके आचरणमें लग गये । बहुत दिनोंतक धर्मपालनका आदर्श उपस्थित करके और लोगोंको उपदेशादिके द्वारा कल्याणकी और अग्रसर करके दोनोंमे सद्गति प्राप्त की ।

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Last Updated : January 22, 2014

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