प्रगायतः स्ववीर्याणि तीर्थपादः प्रियश्रवाः ।
आहुत इव मे शीघ्रं दर्श नं याति चेतसि ॥
( श्रीमद्भा० १।६।३४ )
स्वयं देवर्षि नारदजीने अपनी स्थितिके विषयमें कहा है - ' जब मैं उन परमपावनचरण उदारश्रवा प्रभुके गुणोंका गान करने लगता हूँ, तब वे प्रभु अविलम्ब मेरे चित्तमें बुलाये हुएकी भाँति तुरंत प्रकट हो जाते हैं ।'
श्रीनारदजी नित्य परिव्राजक हैं । उनका काम ही है - अपनी वीणाकी मनोहर झंकारके साथ भगवानके गुणोंका गान करते हुए सदा पर्यटन करना । वे कीर्तनके परमाचार्य हैं, भागवतधर्मके प्रधान बारह आचार्योंमें है और भक्ति सूत्रके निर्माता भी हैं; साथ ही उन्होंने प्रतिज्ञा भी की है - सम्पूर्ण पृथ्वीपर घर - घर एवं जन - जनमें भक्तिकी स्थापना करनेकी । निरन्तर वे भक्तिके प्रचारमें ही लगे रहते हैं ।
पूर्व कल्पमें नारदजी उपबर्हण नामके गन्धर्व थे । बड़े ही सुन्दर थे शरीरसे । और अपने रुपका गर्व भी था उन्हें । एक बार भगवान् ब्रह्माके यहाँ सभी गन्धर्व, किन्नर आदि भगवानका गुण - कीर्तन करने एकत्र हुए । उस समूहमें उपबर्हण स्त्रियोंको साथ लेकर गये । जहाँ भगवानमें चित्त लगाकर उन मङ्गलमयके गुणगानसे अपनेको और दूसरोंको भी पवित्र करना चाहिये, वहाँ कोई स्त्रियोंको लेकर श्रृङ्गारके भावसे जाय और कामियोंकी भाँति चटक - मटक करे, यह बहुत बड़ा अपराध है । ब्रह्माजीने उपबर्हणका यह प्रमाद देखकर उन्हें शूद्रयोनिमें जन्म लेनेका शाप दे दिया ।
महापुरुषोंका क्रोध भी जीवके कल्याणके लिये ही होता है । ब्रह्माजीने गन्धर्व उपबर्हणपर कृपा करके ही शाप दिया था । उस शापके फलसे वे सदाचारी, संयमी, वेदवादी ब्राह्मणोंकी सेवा करनेवाली शूद्रा दासीके पुत्र हुए । भगवान् ब्रह्माकी कृपासे बचपनसे ही उनमें धीरता, गम्भीरता, सरलता, समता, शील आदि सद्गुण आ गये । उस दासीके और कोई नहीं रह गया था । वह अपने एकमात्र पुत्रसे बहुत ही स्नेह करती थी । जब बालककी अवस्था पाँच वर्षके लगभग थी, तब कुच योगी संतोंने वर्षाऋतुमें एक जगह चातुर्मास्य किया । बालककी माता उन साधुओंकी सेवामें लगी रहती थी । वहीं वे भी उनकी सेवा करते थे । स्वयं नारदजीने भगवान् व्याससे कहा है - ' व्यासजी ! उस समय यद्यपि मैं बहुत छोटा था; फिर भी मुझमें चञ्चलता नहीं थी, मैं जितेन्द्रिय था, दूसरे सब खेल छोड़कर साधुओंके आज्ञानुसार उनकी सेवामें लगा रहता था । वे संत भी मुझे भोला - भाला शिशु जानकर मुझपर बड़ी कृपा करते थे । मैं शूद्र - बालक था और उन ब्राह्मण - संतोंकी अनुमतिसे उनके बर्तनोंमें लगा हुआ अन्न दिनमें एक बार खा लिया करता था । इससे मेरे हदयका सब कल्पष दूर हो गया । मेरा चित्त शुद्ध हो गया । संत जो परस्पर भगवानकी चर्चा करते थे, उसे सुननेमें मेरी रुचि हो गयी ।'
चातुर्मास्य करके जब वे साधुगण जाने लगे, तब उस दासीके बालककी दीनता, नम्रता आदि देखकर उसपर उन्होंने कृपा की । बालकको उन्होंने भगवानके स्वरुपका ध्यान तथा नामके जपका उपदेश किया । साधुओंके चले जानेके कुछ समय पश्चात् वह शूद्रा दासी रातको अँधेरेमें अपने स्वामी ब्राह्मणदेवताकी गाय दुह रही थी कि उसे पैरमें सर्पने काट लिया । सर्पके काटनेसे उसकी मृत्यु हो गयी । नारदजीने माताकी मृत्युको भी भगवानकी कृपा ही समझा । स्नेहवश माता उन्हें कहीं जाने नहीं देती थी । माताका वात्सल्य भी एक बन्धन ही था, जिसे भक्तवत्सल प्रभुने दूर कर दिया । पाँच वर्षकी अवस्था थी, न दे शका पता था और न कालका । नारदजी दयामय विश्वम्भरके भरोसे ठीक उत्तरकी ओर वनके मार्गसे चल पड़े और बढ़ते ही गये । बहुत दूर जाकर जब वे थक गये, तब एक सरोवरका जल पीकर उसके किनारे पीपलके नीचे बैठकर, साधुओंने जैसा बताया था वैसे ही, भगवानका ध्यान करने लगे । ध्यान करते समय एक क्षणके लिये सहसा हदयमें भगवान् प्रकट हो गये । नारदजी आनन्दमग्न हो गये । परंतु वह दिव्य झाँकी तो विद्युतकी भाँति आयी और चली गयी । अत्यन्त व्याकुल हो बार - बार नारदजी उसी झाँकीको पुनः पानेका प्रयत्न करने लगे । बालकको बहुत ही व्याकुल होते देख आकाशवाणीने आश्वासन देते हुए बतलाया - ' इस जन्ममें तुम मुझे देख नहीं सकते । जिनका चित्त पूर्णतः निर्मल नहीं है, वे मेरे दर्शनके अधिकारी नहीं । यह एक झाँकी मैंने तुम्हे कृपा करके इसलिये दिखलायी कि इसके दर्शनसे तुम्हारा चित्त मुझमें लग जाय ।'
नारदजीने वहाँ भूमिमें मस्तक रखकर दयामय प्रभुके प्रति प्रणाम किया और वे भगवानका गुण गाते हुए पृथ्वीपर घूमने लगे । समय आनेपर उनका वह शरीर छूट गया । उस कल्पमें उनका फिर जन्म नहीं हुआ । कल्पान्तमें वे ब्रह्माजीमें प्रविष्ट हो गये और सृष्टिके प्रारम्भमें ब्रह्माजीके मनसे प्रकट हुए । वे भगवानके मनके अवतार हैं । दयामय भक्तवत्सल प्रभु जो कुछ करना चाहिते हैं, देवर्षिके द्वारा वैसी ही चेष्टा होती है ।
प्रह्नादजी जब माताके गर्भमें थे, तभी गर्भस्थ बालकको लक्ष्य करके देवर्षिने उन दैत्यसाम्राज्ञीको उपदेश किया था । देवर्षिकी कृपासे प्रह्नादजीको वह उपदेश भूला नहीं । उसी ज्ञानके कारण प्रह्नादजीमें इतना दृढ़ भगवद्विश्वास हुआ । इसी प्रकार ध्रुव जब सौतेली माताके वचनोंसे रुठकर वनमें तप करने जा रहे थे, तब मार्गमें उन्हें नारदजी मिले । नारदजीने ही ध्रुवको मन्त्र देकर उपासनाकी पद्धति बतलायी । प्रजापति दक्षके हर्यश्व नामक दस सहस्त्र पुत्र पिताकी आज्ञासे सृष्टिविस्तारके लिये तप कर रहे थे । देवर्षिने देखा कि ये शुद्धहदय बालक तो भगवत्प्राप्तिके अधिकारी हैं, अतः उन्हें उपदेश देकर नारदजीने सबको विरक्त बना दिया । दक्ष इस समाचारसे बहुत दुखी हुए । उन्होंने दूसरी बार एक सहस्त्र पुत्र उत्पन्न किये । ये शबलाश्च नामक दक्षपुत्र भी तपमें लगे और इन्हें भी कृपा करके देवर्षिने भगवन्मार्गपर अग्रसर कर दिया । प्रजापति दक्षको जब यह समाचार मिला, तब वे अत्यन्त क्रोधित हुए । उन्होंने देवर्षिको शाप दिया कि ' तुम दो घड़ीसे अधिक कहीं ठहर नहीं सकोगे ।' नारदजीने शापको सहर्ष स्वीकार कर लिया । उन्हे इसमें तनिक भी क्षोभ नहीं हुआ; क्योंकि वे तो इसे अपने आराध्य प्रभुकी इच्छा समझकर सन्तुष्ट हो रहे थे ।
देवर्षि नारदजी वेदान्त, योग, ज्यौतिष, वैद्यक, सङ्गीतशास्त्रादि अनेक विद्याओंके आचार्य हैं और भक्तिके तो वे मुख्याचार्य हैं । उनका पाञ्चरात्र भागवत - मार्गका मुख्य ग्रन्थ है । देवर्षिने कितने लोगोंपर कब कैसे कृपा की है, इसकी गणना कोई नहीं कर सकता । वे कृपाकी ही मूर्ति हैं । जीवोंपर कृपा करनेके लिये वे निरन्तर त्रिलोकीमें घूमते रहते हैं । उनका एक ही व्रत है कि जो भी मिल जाय, उसे चाहे जैसे हो, भगवानके श्रीचरणोंतक पहुँचा दिया जाय । जो जैसा अधिकारी होता है, उसे वे वैसा मार्ग बतलाते हैं । प्रह्लाद तथा ध्रुवको उनके अनुसार और हिरण्यकशिपु तथा कंसको उनके अनुसार मार्ग उन्होंने बताया । उनका उद्देश्य रहता है कि जीव जल्दी - से - जल्दी भगवानको प्राप्त करे । देवर्षि ही एकमात्र ऐसे हैं जिनका सभी सुर, असुर समानरुपसे आदर करते रहे हैं । सभी उनको अपना हितैषी मानते रहे हैं और वे सचमुच सबके सच्चे हितैषी हैं ।
भगवान् व्यास जब वेदोंका विभाजन तथा महाभारतकी रचना करके भी प्राणियोंकी कल्याण कामनासे खिन्न हो रहे थे, तब उन्हें भागवत तत्त्वका उपदेश करते हुए नारदजीने बताया - ' यह वाणी वाणी नहीं है, जिसके विचित्र पदोंमें त्रिभुवनपावन श्रीहरिके यशोंका वर्णन न हुआ हो । वह कौओंका तीर्थ है, जहाँ मानसरोवरविहारी सुशिक्षित हंस क्रीडा नहीं करते अर्थात् जैसे घृणित विष्ठापर चोंच मारनेवाले कौओंके समान मलिन विषयानुरागी कामी मनुष्योंका मन उस वाणीमें रमता है, वैसा मानसरोवरमें विहरण करनेवाले राजहंसोंके समान परमहंस भागवतोंका मन उसमें कभी नहीं रमता । के वे मङ्गलमय नाम एउस वाणीको बोलना तो संसारपर वज्रपात करनेके समान तथा लोगोंको पापमग्न करनेवाला है, जिसके प्रत्येक पदमें भगवानवं यश नहीं हैं, जिनको साधुजन सुनते हैं, गाते हैं और वर्णन करते हैं । भगवानकी भक्ति - भावनासे शून्य निर्मल निरञ्जन नैष्कर्म्य ज्ञान भी शोभा नहीं देता; फिर वह सदा अकल्याणकारी कर्म तो कैसे शोभा दे सकता है, जो निष्कामभावसे भगवानको समर्पित नहीं कर दिया गया है ।'
भगवान् श्रीकृष्णने नारदजीके गुणोंकी प्रशंसा करते हुए एक बार राजा उग्रसेनसे कहा था -
अहं हि सर्वदा स्तौमि नारदं देवदर्शनम् ।
महेन्द्रगदितेनैव स्तोत्रेण श्रृणु तन्नृप ॥
उत्सङ्गाद्रह्नणो जातो यस्याहन्ता न विद्यते ।
अगुप्तश्रुतिचारित्रं नारदं तं नमाभ्यहम् ॥
अरतिः क्रोधचापल्ये भयं नैतानि यस्य च ।
अदीर्घसूत्रं तं धीरं नारदं प्रणमाम्यहम् ॥
कामाद्वा यदि वा लोभाद् वाचं यो नान्यथा वदेत् ।
उपास्यं सर्वजन्तूनां नारदं तं नमाम्यहम् ॥
अध्यात्मगतितत्त्वज्ञं ज्ञानशक्तिं जितेन्द्रियम् ।
ऋजुं यथार्थवक्ता नारदं तं नमाम्यहम् ॥
तेजसा यशसा बुद्धया नयेन विनयेन च ।
जन्मना तपसा वृद्धं नारदं प्रणमाम्यहम् ॥
सुखशीलं सुसंवेषं सुभोजं भास्वरं शुचिम् ।
सुचक्षुषं सुवाक्यं च नारदं प्रणमाम्यहम् ॥
कल्याणं कुरुते बाढं पापं यस्मिन्न विद्यते ।
न प्रीयते परार्थेन योऽसौ तं नौमि नारदम् ॥
वेदस्मृतिपुराणोक्तं धर्म थो नित्यमास्थितः ।
प्रियाप्रियविमुक्तं तं नारदं प्रणमाम्यहम् ॥
अशनादिष्वलिप्तं च पण्डितं नालसं द्विजम् ।
बहुश्रुतं चित्रकथं नारदं प्रणमाम्यहम् ॥
नार्थे क्रोधे च कामे च भूतपूर्वोऽस्थ विभ्रमः ।
येनैते नाशिता दोषा नारदं तं नमाम्यहम् ॥
वीतसम्मोहदोषो यो दृढभक्तिश्च श्रेयसि ।
सुनयं सन्नपं तं च नारदं प्रणमाम्यहम् ॥
असक्तः सर्वसङ्गेषु यः सक्तात्मेव लक्ष्यते ।
अदीर्घसंशयो वाग्मी नारदं प्रणमाम्यहम् ॥
नासूयत्यागमं किञ्चित् तपःकृत्येन जीवति ।
अवध्यकालो वश्यात्मा तमहं नौमि नारदम् ॥
कृतश्रमं कृतप्रज्ञं न च तृप्तं समाधितः ।
नित्ययत्नाप्रभत्तं च नारदं तं नमाम्यहम् ॥
न हष्यत्यर्थलाभेन योऽलाभे न व्यथत्यपि ।
स्थिरबुद्धिरसक्तात्मा तमहं नौमि नारदम् ॥
तं सर्वगुणमस्म्पन्नं दक्षं शुचिमकातरम् ।
कालज्ञं च नयज्ञं च शरणं यामि नारदम् ॥
इमं स्तवं नारदस्य नित्यं राजन् जपाम्यहम् ।
तेन मे परमां प्रीतिं करोति मुनिसत्तमः ॥
अन्योऽपि यः शुचिर्भूत्वा नित्यमेतां स्तुतिं जपेत् ।
अचिरात्तस्य देवर्षिः प्रसादं कुरुते परम् ॥
एतान् गुणान्नारदस्य त्वमप्याकर्ण्य पार्थिव ।
जप नित्यं स्तवं पुण्यं प्रीतस्ते भविता मुनिः ॥
( स्कन्द० माहे० कुमारिका० ५४।७-४६ )
'' मैं देवराज इन्द्रद्वारा किये गये स्तोत्रसे दिव्यदृष्टिसम्पन्न श्रीनारदजीकी सदा स्तुति करता हूँ । वह स्तोत्र श्रवण कीजिये -
' जो ब्रह्माजीकी मोदसे प्रकट हुए हैं, जिनके मनमें अहङ्कार नहीं है, जिनका शास्त्र - ज्ञान और चरित्र किसीसे छिपा नहीं है, उन देवर्षि नारदको मैं नमस्कार करता हूँ । जिनमें अरति ( उद्वेग ), क्रोध, चपलता और भयका सर्वथा अभाव है, जो धीर होते हुए भी दीर्घसूत्री ( किसी कार्यमें अधिक विलम्ब करनेवाले ) नहीं हैं, उन नारदजीको मैं प्रणाम करता हूँ । जो कामना अथवा लोभवश झूठी बात मुँहसे नहीं निकालते और समस्त प्राणी जिनकी उपासना करते हैं, उन नारदजीको मैं नमस्कार करता हूँ । जो अध्यात्मगतिके तत्त्वको जाननेवाले, ज्ञानशक्तिसम्पन्न तथा जितेन्द्रिय हैं, जिनमें सरलता भरी है तथा जो यथार्थ बात कहनेवाले हैं, उन नारदजीको मैं प्रणाम करता हूँ । जो तेज, यश, बुद्धि, नय, विनय, जन्म तथा तपस्या सभी दृष्टियोंसे बढ़े हुए हैं, उन नारदजीको मैं नमस्कार करता हूँ । जिनका स्वभाव सुखमय, वेष सुन्दर तथा भोजन उत्तम है, जो प्रकाशमान, पवित्र, शुभदृष्टिसम्पन्न तथा सुन्दर वचन बोलनेवाले हैं, उन नारदजीको मैं प्रणाम करता हूँ । जो उत्साहपूर्वक सबका कल्याण करते हैं, जिनमें पापका लेश भी नहीं है तथा जो परोपकार करनेसे कभी अघाते नहीं हैं, उन नारदजीको मैं नमस्कार करता हूँ । जो सदा वेद, स्मृति और पुराणोंमे बताये हुए धर्मका आश्रय लेते हैं तथा प्रिय और अप्रियसे रहित हैं, उन नारदजीको मैं प्रणाम करता हूँ । जो खान पान आदि भोगोंमें कभी लिप्त नहीं होते हैं, जो पण्डित, आलस्यरहित तथा बहुश्रुत ब्राह्मण हैं, जिनके मुखसे अदभुत बातें - विचित्र कथाएँ सुननेको मिलती हैं, उन नारदजीको मैं प्रणाम करता हूँ । जिनहें अर्थ ( धन ) के लोभ, काम अथवा क्रोधके कारण भी पहले कभी भ्रम नहीं हुआ है, जिन्होंने इन ( काम, क्रोध और लोभ ) तीनों दोषोंका नाश कर दिया है, उन नारदजीको मैं प्रणाम करता हूँ । जिनके अन्तःकरणसे सम्मोहरुप दोष दूर हो गया है, जो कल्याणमय भगवान् और भागवतधर्ममें दृढ भक्ति रखते हैं, जिनकी नीति बहुत उत्तम है तथा जो सङ्कोची स्वभावके हैं, उन नारदजीको मैं प्रणाम करता हूँ । जो समस्त सङ्गोंसे अनासक्त हैं, तथापि सबमें आसक्त हुए से दिखायी देते हैं, जिनके मनमें किसी संशयके लिये स्थान नहीं है, जो बड़े अच्छे वक्ता हैं, उन नारदजीको मैं नमस्कार करता हूँ । जो किसी भी शास्त्रमें दोषदृष्टि नहीं करते, तपस्याका अनुष्ठान ही जिनका जीवन हैं, जिनका समय कभी भगवच्चिन्तनके बिना व्यर्थ नहीं जाता और जो अपने मनको सदा वशमें रखते हैं, उन श्रीनारदजीको मैं प्रणाम करता हूँ । जिन्होंने तपके लिये श्रम किया है, जिनकी बुद्धि पवित्र एवं वशमें है, जो समाधिसे कभी तृप्त नहीं होते, अपने प्रयत्नमें सदा सावधान रहनेवाले उन नारदीजीको मैं नमस्कार करता हूँ । जो अर्थलाभ होनेसे हर्ष नहीं मानते और लाभ न होनेपर मनमें क्लेशका अनुभव नहीं करते, जिनकी बुद्धि स्थिर तथा आत्मा अनासक्त है, उन नारदजीको मैं नमस्कार करता हूँ । जो सर्वगुणसम्पन्न, दक्ष, पवित्र, कातरतारहित, कालज्ञ और नीतिज्ञ हैं, उन देवर्षि नारदको मैं भजता हूँ ।'
नारदजीके इस स्तोत्रका मैं नित्य जप करता हूँ । इससे वे मुनिश्रेष्ठ मुझपर अधिक प्रेम रखते हैं । दूसरा कोई भी यदि पवित्र होकर प्रतिदिन इस स्तुतिका पाठ करता है तो देवर्षि नारद बहुत शीघ्र उसपर अपना अतिशय कृपाप्रसाद प्रकट करते हैं । राजन् ! आप भी नारदजीके इन गुणोंको सुनकर प्रतिदिन इस पवित्र स्तोत्रका जप करें, इससे वे मुनि आपपर बहुत प्रसन्न होंगे ।''
देवर्षि नारदजीका स्तवन करके भगवान् कई रहस्योंको खोलते हैं ( १ ) भक्तोंमें कैसे आदर्श गुण होने चाहिये । ( २ ) भक्तोंके गुणोंका स्मरण करनेसे मनुष्य उनका प्रीतिभाजन होता है और उसमें भी वे गुण आते हैं । ( ३ ) भक्तके गुण स्मरणसे अन्तःकरण पवित्र होता है । ( ४ ) भक्तकी इतनी महिमा है कि स्वयं भगवान् भी उसकी स्तुति भक्ति करते हैं और ( ५ ) भक्तकी स्मृति तथा गुणचर्चासे जगतका मङ्गल होता है; क्योंकि भक्तोंके गुणोंको धारण करनेसे ही जगतके अमङ्गलोंका नाश तथा मङ्गलोंकी प्राप्ति होती है । गुणोंका धारण - स्मरण कथा - चर्चाके बिना होता नहीं । ऐसे परमपुण्यजीवन देवर्षिके चरणोंमें हमारे अनन्त प्रणाम् ।