एक स्थान पर तीक्ष्णविषाण नाम का बैल रहता था । बहुत उन्मत्त होने के कारण उसे किसान ने छोड़ दिया था । अपने साथी बैलों से भी छूटकर वह जंगल में ही मतवाले हाथी की तरह वे रोक-टोक घूमा करता है ।

उसी जंगल में प्रलोभक नाम का एक गीदड़ भी था । एक दिन वह अपनी पत्‍नी समेत नदी के किनारे बैठा था कि वह बैल वहीं पानी पीने आ गया । बैल के मांसल कन्धों पर लटकते हुए मांस को देखकर गीदड़ी ने गीदड़ से कहा---"स्वामी ! इस बैल की लटकती हुई लोथ को देखो । न जाने किस दिन यह जमीन पर गिर जाय । तुम इसके पीछे-पीछे जाओ----जब यह जमीन पर गिरे, ले आना ।"

गीदड़ ने उत्तर दिया----"प्रिये ! न जाने यह लोथ गिरे या न गिरे । कब तक इसका पीछा करुँगा ? इस व्यर्थ के काम में मुझे मत लगाओ । हम यहाँ चैन से बैठे हैं । जो चूहे इस रास्ते से जायेंगे उन्हें मारकर ही हम भोजन कर लेंगे । तुझे यहाँ अकेली छोड़कर जाऊँगा तो शायद कोई दूसरा गीदड़ ही इस घर को अपना बना ले । अनिश्चित लाभ की आशा में निश्चित वस्तु का परित्याग कभी अच्छा नहीं होता ।"

गीदड़ी बोली ----"मैं नहीं जानती थी कि तू इतना कायर और आलसी है । तुझ में इतना भी उत्साह नहीं है । जो थोडे़ से धन से सन्तुष्ट हो जाता है वह थोड़े से धन को भी गंवा बैठता है । इसके अतिरिक्त अब मैं चूहे के मांस से ऊब गई हूँ । बैल के ये मांसपिण्ड अब गिरने ही वाले दिखाई देते हैं । इसलिए अब इसका पीछा करना ही चाहिए ।"

गीदड़ी के आग्रह पर गीदड़ को बैल के पीछे जाना पड़ा । सच तो यह है कि पुरुष तभी तक प्रभु होता है जब तक उस पर स्त्री का अंकुश नहीं पड़ता । स्त्री का हठ पुरुष से सब कुछ करा देता है ।

तब से गीदड़-गीदड़ी दोनों बैल के पीछे-पीछे घूमने लगे । उनकी आंखें उसके लटकते मांस-पिण्ड पर लगी थीं, लेकिन वह मांस-पिण्ड ’अब गिरा’, ’तब गिरा’ लगते हुए भी गिरता नहीं था । अन्त में १०-१५ वर्ष इसी तरह बैल का पीछा करने के बाद एक दिन गीदड़ ने कहा---"प्रिये ! न मालूम यह गिरे भी या नहीं गिरे, इसलिए अब इसकी आशा छोड़कर अपनी राह लो ।"

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कहानी सुनने के बाद पौरुष ने कहा ----"यदि यही बात है, धन की इच्छा इतनी ही प्रबल है तो तू फिर वर्धमानपुर चला जा । वहां दो बनियों के पुत्र हैं; एक गुप्तधन, दूसरा उपभुक्त धन । इन दोनों प्रकार के धनों का स्वरुप जानकर तू किसी एक का वरदान मांगना । यदि तू उपभोग की योग्यता के बिना धन चाहेगा तो तुझे गुप्त धन दे दूंगा और यदि खर्च के लिये धन चाहेगा तो उपभुक्त धन दे दूंगा ।"

यह कहकर वह देवता लुप्त हो गया । सोमिलक उसके आदेशानुसार फिर वर्धमानपुर पहुँचा । शाम हो गई थी । पूछता-पूछता वह गुप्तधन के घर पर चला गया । घर पर उसका किसी ने सत्कार नहीं किया । इसके विपरीत उसे भला-बुरा कहकर गुप्तधन और उसकी पत्‍नी ने घर से बाहिर धकेलना चाहा । किन्तु, सोमिलक भी अपने संकल्पा का पक्का था । सब के विरुद्ध होते हुए भी वह घर में घुसकर जा बैठा । भोजन के समय उसे गुप्तधन ने रुखीसूखी रोटी दे दी । उसे खाकर वह वहीं सो गया । स्वप्न में उसने फिर वही दोनों देव देखे । वे बातें कर रहे थे । एक कह रहा था --- "हे पौरुष ! तूने गुप्तधन को भोग्य से इतना अधिक धन क्यों दे दिया कि उसने सोमिलक को भी रोटी देदी ।" पौरुष ने उत्तर दिया----"मेरा इसमें दोष नहीं । मुझे पुरुष के हाथों धर्म-पालन करवाना ही है, उसका फल देना तेरे अधीन है ।"

दूसरे दिन गुप्तधन पेचिश से बीमार हो गया और उसे उपवास करना पड़ा । इस तरह उसकी क्षतिपूर्त्ति हो गई ।

सोमिलक अगले दिन सुबह उपभुक्त धन के घर गया । वहां उसने भोजनादि द्वारा उसका सत्कार किया । सोने के लिये सुन्दर शय्या भी दी । सोते-सोते उसने फिर सुना; वही दोनों देव बातें कर रहे थे । एक कह रहा था ---"हे पौरुष ! इसने सोमिलक का सत्कार करते हुए बहुत धन व्यय कर दिया है । अब इसकी क्षतिपूर्त्ति कैसे होगी ?" दूसरे ने कहा ---"हे भाग्य ! सत्कार के लिये धन व्यय करवाना मेरा धर्म था, इसका फल देना तेरे अधीन है ।"

सुबह होने पर सोमिलक ने देखा कि राज-दरबार से एक राज-पुरुष राज-प्रसाद के रुप में धन की भेंट लाकर उपभुक्त धन को दे रहा था । यह देखकर सोमिलक ने विचार किया कि "यह संचय-रहित उपभुक्त धन ही गुप्तधन से श्रेष्ठ है । जिस धन का दान कर दिया जाय या सत्कार्यों में व्यय कर दिया जाय वह धन संचित धन की अपेक्षा बहुत अच्छा होता है ।"

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मन्थरक ने ये कहानियाँ सुनाकर हिरण्यक से कहा कि इस कारण तुझे भी धन-विषयक चिन्ता नहीं करनी चाहिये । तेरा जमीन में गड़ा हुआ खजाना चला गया तो जाने दे । भोग के बिना उसका तेरे लिये उपयोग भी क्या था ? उपार्जित धन का सबसे अच्छा संरक्षण यही है कि उसका दान कर दिया जाय । शहद की मक्खियाँ इतना मधु-सन्चय करती हैं, किन्तु उपभोग नहीं कर सकतीं । इस सन्चय से क्या लाभ ?

मन्थरक कछुआ, लघुपतनक कौवा और हिरण्यक चूहा वहां बैठे-बैठे यही बातें कर रहे थे कि वहां चित्रांग नाम का हिरण कहीं से दौड़ता-हांफता आ गया । एक व्याध उसका पीछा कर रहा था । उसे आता देखकर कौवा उड़कर वृक्ष की शाखा पर बैठ गया । हिरण्यक पास के बिल में घुस गया और मन्थरक तालाव के पानी में जा छिपा ।

कौवे ने हिरण को अच्छी तरह देखने के बाद मन्थरक से कहा----"मित्र मन्थरक ! यह तो हिरण के आने की आवाज है । एक प्यासा हिरण पानी पीने के लिये तालाब पर आया है । उसी का यह शब्द है, मनुष्य का नहीं ।"

मन्थरक----"यह हिरण बार-बार पीछे मुड़कर देख रहा है और डरा हुआ सा है । इसलिये यह प्यासा नहीं, बल्कि व्याध के डर से भागा हुआ है । देख तो सही, इसके पीछे व्याध आ रहा है या नहीं ?"

दोनों की बात सुनकर चित्रांग हिरण बोला----"मन्थरक ! मेरे भय का कारण तुम जान गये हो । मैं व्याध के बाणों से डरकर बड़ी कठिनाई से यहाँ पहुँच पाया हूँ । तुम मेरी रक्षा करो । अब तुम्हारी शरण में हूँ । मुझे कोई ऐसी जगह बतलाओ जहाँ व्याध न पहुँच सके ।"

मन्थरक ने हिरण को घने जङगलों में भाग जाने की सलाह दी । किन्तु लघुपतनक ने ऊपर से देखकर बतलाया कि व्याध दूसरी दिशा में चले गये हैं, इसलिये अब डर की कोई बात नहीं है । इसके बाद चारों मित्र तालाब के किनारे वृक्षों की छाया में मिलकर देर तक बातें करते रहे ।

कुछ समय बाद एक दिन जब कछुआ, कौवा और चूहा बातें कर रहे थे, शाम हो गई । बहुत देर बाद भी हिरण नहीं आया । तीनों को सन्देह होने लगा कि कहीं फिर वह व्याध के जाल में न फँस गया हो; अथवा शेर, बाघ आदि ने उस पर हमला न कर दिया हो । घर में बैठे स्वजन अपने प्रवासी प्रियजनों के सम्बन्ध में सदा शंकित रहते हैं ।

बहुत देर तक भी चित्राँग हिरण नहीं आया तो मन्थरक कछुए ने लघुपतनक कौवे को जङगल में जाकर हिरण के खोजने की सलाह दी । लघुपतनक ने कुछ दूर जाकर ही देखा कि वहाँ चित्राँग एक जाल में बँधा हुआ है । लघुपतनक उसके पास गया । उसे देखकर चित्राँग की आँखों में आँसू आ गये । वह बोला ----"अब मेरी मृत्यु निश्‍चित है । अन्तिम समय में तुम्हारे दर्शन कर के मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई । प्राण विसर्जन के समय मित्र-दर्शन बड़ा सुखद होता है । मेरे अपराध क्षमा करना ।"
लघुपतनक ने धीरज बँधाते हुए कहा----"घबराओ मत । मैं अभी हिरण्यक चूहे को बुला लाता हूँ । वह तुम्हारे जाल काट देगा ।"
यह कहकर वह हिरण्यक के पास चला गया और शीघ्र ही उसे पीठ पर बिठाकर ले आया । हिरण्यक अभी जाल काटने की विधि सोच ही रहा था कि लघुपतनक ने वृक्ष के ऊपर से दूर पर किसी को देखकर कहा----"यह तो बहुत बुरा हुआ ।"

हिरण्यक ने पूछा---"क्या कोई व्याध आ रहा है ?"

लघुपतनक----"नहीं, व्याध तो नहीं, किन्तु मन्थरक कछुआ इधर चला आ रहा है ।"

हिरण्यक----"तब तो खुशी की बात है । दुःखी क्यों होता है ?"
लघुपतनक ----"दुःखी इसलिये होता हूँ कि व्याध के आने पर मैं ऊपर उड़ जाऊँगा, हिरण्यक बिल में घुस जायगा, चित्राँग भी छलागें मारकर घने जङगल में घुस जायगा; लेकिन यह मन्थरक कैसे अपनी जान बचायगा ? यही सोचकर चिन्तित हो रहा हूँ ।"

मन्थरक के वहाँ आने पर हिरण्यक ने मन्थरक से कहा----"मित्र ! तुमने यहाँ आकर अच्छा नहीं किया । अब भी वापिस लौट जाओ, कहीं व्याध न आ जाय ।"
मन्थरक ने कहा---"मित्र ! मैं अपने मित्र को आपत्ति में जानकर वहाँ नहीं रह सका । सोचा, उसकी आपत्ति में हाथ बटाऊँगा, तभी चला आया ।"
ये बातें हो ही रही थीं कि उन्होंने व्याध को उसी ओर आते देखा । उसे देखकर चूहे ने उसी क्षण चित्राँग के बन्धन काट दिये । चित्राँग भी उठकर घूम-घूमकर पीछे देखता हुआ आगे भाग खड़ा हुआ । लघुपतनक वृक्ष पर उड़ गया । हिरण्यक पास के बिल में घुस गया ।

व्याध अपने जाल में किसी को न पाकर बड़ा दुःखी हुआ । वहाँ से वापिस जाने को मुड़ा ही था कि उसकी दृष्टि धीरे-धीरे जाने वाले मन्थरक पर पड़ गई । उसने सोचा, "आज हिरण तो हाथ आया नहीं , कछुए को ही ले चलता हूँ । कछुए को ही आज भोजन बनाऊँगा । उससे ही पेट भरुँगा ।" यह सोचकर वह कछुए को कन्धे पर डालकर चल दिया । उसे ले जाते देख हिरण्यक और लघुपतनक को बड़ा दुःख हुआ । दोनों मित्र मन्थरक को बड़े प्रेम और आदर से देखते थे । चित्राँग ने भी मन्थरक को व्याध के कन्धों पर देखा तो व्याकुल हो गया । तीनों मित्र मन्थरक की मुक्ति का उपाय सोचने लगे ।

कौए ने तब एक उपाय ढूंढ निकाला । वह यह कि ----"चित्रांग व्याध के मार्ग में, तालाब के किनारे जाकर लेट जाय । मैं तब उसे चोंच मारने लगूंगा । व्याध समझेगा कि हिरण मरा हुआ है । वह मन्थरक को जमीन पर रखकर इसे लेने के लिये जब आयगा तो हिरण्यक जल्दी-जल्दी मन्थरक के बन्धन काट दे । मन्थरक तालाब में घुस जाय, और चित्रांग छलांगें मारकर घने जंगल में चला जाय । मैं उड़कर वृक्ष पर चला ही जाऊँगा । सभी बच जायंगे, मन्थरक भी छूट जायगा ।"

तीनों मित्रों ने यही उपाय किया । चित्रांग तालाब के किनारे मृतवत जा लेटा । कौवा उसकी गरदन पर सवार होकर चोंच चलाने लगा । व्याध ने देखा तो समझा कि हिरण जाल से छूट कर दौड़ता-दौड़ता यहाँ मर गया है । उसे लेने के लिये वह जालबद्ध कछुए को जमीन पर छोड़कर आगे बढ़ा तो हिरण्यक ने अपने वज्र समान तीखे दांतों से जाल के बन्धन काट दिये । मन्थरक पानी में घुस गया । चित्रांग भी दौड़ गया ।

व्याध ने चित्रांग को हाथ से निकलकर जाते देखा तो आश्चर्य में डूब गया । वापिस जाकर जब उसने देखा कि कछुआ भी जाल से निकलकर भाग गया है, तब उसके दुःख की सीमा न रही । वहीं एक शिला पर बैठकर वह विलाप करने लगा ।

दूसरी ओर चारों मित्र लघुपतनक, मन्थरक, हिरण्यक और चित्रांग प्रसन्नता से फूले नहीं समाते थे । मित्रता के बल पर ही चारों ने व्याध से मुक्ति पाई थी ।

मित्रता में बड़ी शक्ति है । मित्र-संग्रह करना जीवन की सफलता में बड़ा सहायक है । विवेकी व्यक्ति को सदा मित्र-प्राप्ति में यत्‍नशील रहना चाहिये ।

॥द्वितीय तन्त्र समाप्त॥

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Last Updated : February 20, 2008

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