ग्रामविन्यास
ग्रामयोजना - अब ग्राम आदि का नियमानुसार प्रमाण एवं विन्यास (निर्माण-योजना) का वर्णन किया जा रहा है ।
पुनर्मानोपकरण
पुनः प्रमाण-चर्चा -पाँच सौ दण्डों का एक क्रोश एव उसके दुगने (दो क्रोश) का एक अर्धगव्यूत मान होता है ॥१॥
एक अर्धगव्यूत का दुगुना एक गव्यूत होता है । आठ हजार दण्ड का एक योजन होता है । आठ धनु (दण्ड) का चौकोर माप
काकनीका एवं उसका चौगुना माप माष कहलाता है ॥२॥
माश का चार गुना वर्तनक एवं पाँच गुना वाटिकासंज्ञक माप होता है । वाटिका का चार गुना स्थान ग्राम मे एक परिवार के
लिये उत्तम होता है ॥३॥
इस प्रकार दण्डमाप के द्वारा भूमि का मान होता है । उनका मान (इस प्रकार) कहा जा रहा है ।
ग्रामादिमानम्
ग्रामादि का प्रमाण - (सबसे बड़े) ग्राम का मान सौ हजार दण्ड कहा गया है ॥४॥
बीस हजार दण्ड से प्रारम्भ कर सम संख्या में मानवृद्धि करते हुये ग्रामों के पाँच प्रकार के प्रमाण होते है । ग्राम के बीस भाग
में एक भाग एक कुटुम्ब की भुमि होती है ॥५॥
हीन (सबसे छोटे) ग्राम का मान पाँच सौ दण्ड का होता है । इससे प्रारम्भ कर पाँच सौ दण्ड बढ़ाते हुये बीस हजार दण्ड तक
मान प्राप्त करना चाहिये ॥६॥
ग्राम के चालीस भेद होते है । यह ग्राम का मान है । (चौड़ाई में) दो हजार दण्ड, एक हजार पाँच सौ दण्ड तथा हजार दण्ड
(ग्राम का मान है) ॥७॥
नौ सौ, सात सौ, पाँच सौ एवं तिन सौ (ग्राम का) विस्तार होता है । नगर का दण्डमान एक हजार दण्ड से प्रारम्भ कर दो
हजार दण्डपर्यन्त होता है ॥८॥
(सबसे बड़े) नगर का मान आठ हजार दण्ड होता है । दो-दो हजार दन्ड कम करते हुये नगर के चार प्रकार के मान प्राप्त होते
है ॥९॥
ग्राम, खेट, खर्वट, दुर्ग एवं नगर - ये पाँच प्रकार के (वसति-विन्यास) होते है । अब मै (मय ऋषि) दण्ड के द्वारा प्रत्येक के तीन
- तीन भेद कहता हूँ ॥१०॥
छोटे मे भी सबसे छोटा ग्राम चौसठ दण्ड होता है । मध्यम ग्राम का उसका दुगुना एवं उत्तम तीन गुना होता है ॥११॥
छोटे खेट का माप दो सौ छप्पन, मध्यम खेट का तीन सौ बीस तथा उत्तम खेट का माप तीन सौ चौरासी दण्ड होता है ॥१२॥
छोटे खर्वट का माप चार सौ अड़तालीस, मध्यम खर्वट का माप पाँच सौ बारह तथा उत्तम खर्वट का माप पाँच सौ छिहत्तर दण्ड
कहा गया है ॥१३॥
कनिष्ठ दुर्ग छः सौ चालीस दण्ड, मध्यम दुर्ग सात सौ चार दण्ड एवं उत्तम दुर्ग सात सौ अड़सठ दण्ड का होता है ॥१४॥
कनिष्ठ नगर आठ सौ बत्तीस दण्ड, मध्यम नगर आठ सौ छियानबे दण्ड तथा उत्तम नगर नौ सौ साठ दण्ड माप का होता है
॥१५॥
सोलह दण्ड की वृद्धि करते हुये प्रत्येक के नौ भेद होते है । इनकी लम्बाई चौड़ाई की दुगुनी, तीन चौथाई, आधी या चौथाई
अधिक होती है ॥१६॥
अथवा छः या आठ भाग अधिक हो सकता है । इच्छानुसार इसकी लम्बाई-चौड़ाई समान भी हो सकती है । इनकी लम्बाई
एवं चौड़ाई विषम दण्डसंख्या में होनी चाहिये ॥१७॥
शेष का सम्बन्ध उस क्षेत्र से होता है, जिस पर निर्माणकार्य नहीं हुआ रहता । इस विधि का प्रयोग सभी ग्राम आदि
वास्तुक्षेत्रों पर होता है ।
आयादि
आयादि को प्राप्त करने के लिये दण्डो को बढ़ाया-घटाया जा सकता है ॥१८॥
जिस वास्तु का माप आय, व्यय, नक्षत्र, योनि, आयु, तिथि एवं वार के विपरीत न हो एवं न ही यजमान (गृहस्वामी) के नाम,
जन्मनक्षत्र अथवा स्थान से विपरीत होना चाहिये (कहने का तात्पर्य यह है कि ग्राम आदि वसतिविन्यास के सभी विचारणीय
बिन्दु गृहस्वामी एवं उसकी भूमि के अनुकूल होने चाहिये) ॥१९॥
सभी प्रकार की सम्पत्तियो की प्राप्ति के लिये वास्तुक्षेत्र को उसके मान समेत ग्रहण करना चाहिये । वास्तुक्षेत्र के चौड़ाई एवं
लम्बाई को जोड़ कर आठ से एवं नौ से गुणा करना चाहिये । प्राप्त गुणनफल में क्रमशः बारह एवं दश का भाग देना चाहिये
॥२०॥
शेष संख्या से क्रमशः आय एवं व्यय का ज्ञान करना चाहिये । (लम्बाई एवं चौड़ाई के योग में) तीन से गुणा कर आठ से
भाग देने पर जो शेष बचे, उससे योनियों की प्राप्ति होती है । ये योनियाँ ध्वज, धूम, सिंह, श्वान, वृष, खर, गज एवं काक कही
गई है ॥२१॥
(उपर्युक्त) आठ योनियाँ कही गई है । इनमे ध्वज, सिंह, वृष एवं गज प्रशस्त है । पुनः (लम्बाई एं चौड़ाई के योग में) आठ का
गुना कर सत्ताईस का भाग देने पर भागफल से वय का ज्ञान होता है ॥२२॥
लम्बाई एवं चौड़ाई के योग में तीस का भाग देने पर शेष संख्या से सौर दिनों का ज्ञान होता है । प्रथम वार रविवार होता है
। सभी प्रकार के वास्तुओं में इसी प्रकार ज्ञात कर कार्य करना चाहिये ॥२३॥
आय का अधिक होना सुखदायक होता है एवं व्यय का अधिक होना नाश का कारण होता है । इसके विपरीत होना
विपत्तिकारक होता है । अतः भली-भाँति इसकी परीक्षा करने के पश्चात् ही कार्य करना चाहिये ॥२४॥
विप्रसंख्या
ब्राह्मणों की संख्या - सर्वश्रेष्ठ ग्राम वह है, जहाँ बारह हजार ब्राह्मण हों । मध्यम ग्राम में दस हजार तथा छोटे ग्राम में आठ
हजार ब्राह्मण होते हैं ॥२५॥
सात हजार ब्राह्मण मध्योत्तम ग्राम में होते है । छः हजार ब्राह्मण मध्यम-मध्यम ग्राम मे तथा पाँच हजार ब्राह्मण मध्यम के
अधम ग्राम मे होते है ॥२६॥
अधमोत्तम (छोटे ग्राम मे उत्तम) ग्राम मे चार हजार, अधमसम (छोटे मे मध्यम) ग्राम मे तीन हजार तथा अधमाधम (छोटे मे
सबसे छोटे) ग्राम मे दो हजार ब्राह्मण रहते है ॥२७॥
नीचोत्तम ग्राम में एक हजार ब्राह्मण रहते है । नीच-मध्यम ग्राम में सात सौ एवं नीचाल्प ग्राम में पाँच सौ ब्राह्मण होते है,
ऐसा आचार्यों का कथन है ॥२८॥
ब्राह्मणों के आवास की दृष्टी से दस प्रकार के क्षुद्रक ग्राम इस प्रकार है - एक हजार आठ, दो हजार सोलह, तीन हजार चौबीस,
चौरासी, चौंसठ, पचास, बत्तीस तथा चौबीस ॥२९॥
बारह एवं सोलह ब्राह्मण (आवास) की दृष्टी से क्षुद्रक ग्राम के दस भेद होते है । यदि ऐसा न हो तो एक से दस ब्राह्मण को
भूमि दान मे देना चाहिये ॥३०॥
जिस ग्राम में एक ब्राह्मण-परिवार रहता हो, उसे 'कुटिक' ग्राम तथा 'एकभोग' ग्राम कहते है । वहाँ 'सुखालय' प्रशस्त होता है
तथा 'दण्डक' आदि अन्य ग्रामो में प्रशस्त होता है ॥३१॥
सभी प्रकार के वास्तु-विन्यास दो विभागों-युग्म एवं अयुग्म (सम संख्या एवं विषम संख्या) मे रक्खे जाते है । युग्म
वास्तुविन्यास मे सूत्रपथ से मार्गविन्यास एवं अयुग्म विन्यास मे मध्यम पद से वीथी का विन्यास किया जाता है ॥३२॥
ग्रामनामानि
ग्रामो के नाम - ग्राम आठ प्रकार के होते है - दण्डक, स्वस्तिक, प्रस्तर, प्रकीर्णक, नन्द्यावर्त, पराग, पद्म एवं श्रीप्रतिष्ठित ॥३३-३४॥
वीथिविधानम्
मार्ग-विधान - सभी ग्राम अन्दर एवं बाहर से मङ्गलजीवी से आवृत होते है । ग्राम मे ब्रह्मस्थान (मध्य भाग) में देवालय या
पीठ (देवों के निमित्त बना चबूतरा) होता है ॥३५॥
मार्गों की चौड़ाई एक, दो, तीन, चार या पाँच कार्मुक (दण्ड) होती है; किन्तु पूर्व से पश्चिम जाने वाले 'महापथ' संज्ञक मार्ग छः
दण्ड चौड़े होते है ॥३६॥
ग्राम की मध्य-वीथी 'ब्रह्मवीथी' होती है । वही ग्राम की नाभि होती है । द्वार से युक्त वीथी 'राजवीथी' होती है । दोनो पार्श्वों से
बनी वीथी 'क्षुद्रा' होती है ॥३७॥
सभी विथियाँ 'कुट्टिमका' संज्ञक होती है । इसी प्रकार मङ्गलवीथी 'रथमार्ग' कहलाती है । तिर्यग द्वार (प्रधान द्वार का सहायक
द्वार) युक्त वीथियाँ 'नाराचपथा' कहलाती है । उत्तर की ओर जाने वाले मार्ग 'क्षुद्र', 'अर्गल' एवं 'वामन कहे जाते है ॥३८॥
ग्राम को घेरने वाली वीथी 'मङ्गलवीथिका' तथा पुर को आवृत करने वाल वीथी 'जनवीथिका' होती है । इन दोनों को 'रथ्या' भी
कहा जाता है । प्राचीन विद्वानों के अनुसार अन्य मार्गो को भी इसी प्रकार समझना चाहिये ॥३९॥
ग्रामभेद
ग्राम के भेद - ब्राह्मणों से परिपूर्ण वसति-विन्यास को 'मङ्गल' कहते है । राजा (क्षत्रिय) तथा व्यापारियों से युक्त स्थान 'पुर'
कहलाता है । जहाँ अन्य जन निवास करते है, उसे 'ग्राम' कहते है । जहाँ तपस्वियो का निवास होता है, उसे 'मठ' कहते है
॥४०॥
पूर्व एवं उत्तर की ओर सीधी रेखा से बने हुये दण्ड के समान मार्ग होते है एवं चार द्वार से युक्त होते है । ऐसे ग्राम को
मुनिजन दण्डक कहते है । जहाँ दण्ड के सदृश एक वीथी होती है, उसे भी 'दण्डक' ग्राम कहते है ॥४१-४२॥
नौ पदों से युक्त ग्राम में पद से बाहर चारो ओर एक मार्ग होता है । एक वीथी उत्तर-पूर्व से प्रारम्भ होकर पूर्व की ओर जाती
है । वह दक्षिण से प्रारम्भ होती है ॥४३॥
दक्षिण वीथी पूर्व-दक्षिण से प्रारम्भ होकर पश्चिम की ओर जाती है । दक्षिण से पश्चिम होकर जाने वाली वीथी उत्तर की ओर
जाती है ॥४४॥
दूसरी वीथी उत्तरसे प्रारम्भ होती है, इसलिये उत्तरवीथी है । इसका मुख पूर्व की ओर होता है । इस ग्राम को 'स्वस्तिक' कहा
गया है । इसके चार मार्ग स्वस्तिक की आकृति के होते है ॥४५॥
'प्रस्तर' ग्राम पाँच प्रकार के होते है । इसमें पूर्व से पश्चिम तीन मार्ग जाते है । उत्तर से जाने वाले मार्ग तीन, चार, पाँच, छः
या सात होते है ॥४६॥
'प्रकीर्णक' ग्राम पाँच प्रकार के होते है । इसमे चार मार्ग पूर्व से पश्चिम जाते है । उत्तर से बारह, ग्यारह, दस, नौ या आठ मार्ग
जाते है ॥४७॥
(नन्द्यावर्त ग्राम का लक्षण इस प्रकार है-) पाँच सड़के पूर्व से पश्चिम की ओर जाती है । उत्तर दिशा से तेरह, इक्कीस, पन्द्रह,
सोलह एवं सत्रह मार्गो द्वारा । (इस ग्राम का विन्यास किया जाता है) ॥४८॥
नन्द्यावर्त ग्राम (उपर्युक्त मार्गो से) युक्त होता है । यह नन्द्यावर्त आकृति का होता है । बाहर की ओर जाने वाले मार्गो के बाहर
चारो दिशाओं में चार द्वार होते है ॥४९॥
अनेक मार्गो के आपस मे संयुक्त होने से अनेक मार्ग-संयोग (तिराहे, चौराहे आदि) बनते है । नन्द्यावर्त की आकृति के सदृश
होने के कारण इस ग्राम को 'नन्द्यावत' कहते है ।
पराग ग्राम का लक्षण इस प्रकार है - यहाँ अट्ठारह से बाईस संख्या तक मार्ग उत्तर से जाते है ॥५०॥
छः मार्ग पूर्व से निकलते है । इस ग्राम को 'पराग' कहते है । (पद्म ग्राम में) पूर्व-पश्चिम में सात मार्ग होते है तथा उत्तर से
तीन, चार, पाँच- ॥५१॥
छः या सात मार्ग निकलते है तथा बीस मार्ग-संयोग बनते है । इस प्रकार 'पद्म' ग्राम के पाँच भेद बनते है । (श्रीप्रतिष्ठित ग्राम
में) आठ मार्ग पूर्व दिशा से तथा अट्ठाईस से प्रारम्भ कर ॥५२॥
बत्तीस संख्या तक मार्ग उत्तर दिशा से निकलते है । इसे 'श्रीप्रतिष्ठित' ग्राम कहते है । इस प्रकार आठ प्रकार के ग्राम होते है
॥५३॥
अथवा 'श्रीवत्स' आदि अन्य ग्रामों का भी विन्यास करना चाहिये । सभी ग्रामों के नाभि (केन्द्र-स्थल) को बुद्धिमान व्यक्ति को
विद्ध नही करना चाहिये ॥५४॥
ग्राम अथवा गृह में दण्डच्छेद नही करना चाहिये । बुद्धिमान व्यक्ति को ग्राम अथवा गृह के विन्यास हेतु सकल (एकपद वास्तु)
से लेकर आसन (एक हजार पद वास्तु) तक (किसी उपयुक्त) पदविन्यास को ग्रहण करना चाहिये ॥५५॥
छोटे ग्राम में चार मार्ग, मध्यम ग्राम में आठ मार्ग एवं उत्तम ग्राम में बारह अथवा सोलह मार्ग होते है ॥५६॥
द्वार
द्वार - भल्लाट, महेन्द्र, राक्षस एवं पुष्पदन्त पद द्वारस्थापन के स्थान है तथा जलमार्ग भी चार है ॥५७॥
जलमार्ग के चार वास्तु-पद वितथ, जयन्त, सुग्रीव एवं मुख्य है । भृश, पूषा, भृङ्गराज, दौवारिक, शोष, नाग, दिति एवं जलद
॥५८॥
इन आठ वास्तुदेवों के पद उपद्वार के स्थान है । इन उपद्वारों का विस्तार तीन, पाँच या सात हस्त होता है ॥५९॥
इन उपद्वारों की ऊँचाई उसकी चौड़ाई की दुगुनी, डेढ़ गुनी अथवा तिन चौथाई होनी चाहिये । सभी ग्रामों के चारो ओर बारह
परिका (खाई) एवं वप्र (प्राचीर, घेरने वाली भित्ति) होनी चाहिये ॥६०॥
नदि के दक्षिण तट पर उससे घिरे ग्राम (उत्तम) होते है । इक्यासी वास्तुपद एवं चौसठ वास्तुपद-विन्यास से युक्त ग्राम का
मध्य भाग ब्राह्मक्षेत्र एवं इसके पश्चात् दैव क्षेत्र होता है ॥६१॥
इसके पश्चात् मानुष एवं पैशाच क्षेत्र का निश्चय करना चाहिये । दैव एवं मानुष क्षेत्र में ब्राह्मणों के गृह होने चाहिये ॥६२॥
अपने कार्य के द्वारा अपनी आजीविका चलाने वालों का गृह पैशाच क्षेत्र में होना चाहिये अथवा वहाँ ब्राह्मणों का आवास होना
चाहिये । उनके मध्य पूर्व आदि दिशाओं में क्रमानुसार देवालय की स्थापना करनी चाहिये ॥६३॥
प्रासादस्थान
वास्तु-क्षेत्र के भीतर ब्राह्मण एवं देवता की स्थापना करनी चाहिये । शिवालय की स्थापना ग्राम के बाहर होनी चाहिये अर्थात्
शिवालय की स्थापना इच्छानुसार ग्राम के भीतर या बाहर कही भी हो सकती है ॥६४॥
भृङ्गराज के या पावक के भाग पर विनायक का मन्दिर होना चाहिये । ईश के पद पर, सोम के पद पर अथवा अन्य किसी
वास्तुपद पर शिवमन्दिर की स्थापना करनी चाहिये ॥६५॥
देवालय के बाहर गृहो की श्रेणी पूर्ववर्णित मान के अनुसार नियमपूर्वक होनी चाहिये । शिव के परिवार-देवताओ के स्थान का
यहाँ वर्णन किया जा रहा है ॥६६॥
सूर्य के वास्तुपद पर सूर्यदेवता का स्थान एवं अग्नि के पद पर कालिका का मन्दिर होना चाहिये । भृश के वास्तुपद पर
विष्णुमन्दिर तथा यम के पद पर षण्मुख (कार्तिकेय) का मन्दिर होना चाहिये ॥६७॥
भृश, मृग या नैऋत्य स्थानपर केशव का मन्दिर होना चाहिये । सुग्रीव के पद पर या पुष्पदन्त के पद पर गणाध्यक्ष (गणेश)
का मन्दिर होना चाहिये ॥६८॥
आर्यक का भवन नैऋत्य कोण मे एवं विष्णु का विमान (देवालय) वरुण के पद पर होना चाहिये । मन्दिर में ऊपरी तल से
क्रमशः विष्णु की स्थानक (खड़ी), आसन (बैठी) एवं शयन प्रतिमा होनी चाहिये ॥६९॥
अथवा भूतल पर बड़ी एवं भारी तथा ऊपरी तल पर स्थानक मुद्रा में विष्णुप्रतिमा होनी चाहिये । सुगल के पद पर सुगत
(बुद्ध) की प्रतिमा एवं भृङ्गराज के पद पर जिन-देवालय होना चाहिये ॥७०॥
वायु के पद पर मदिरा का मन्दिर, मुख्य के पद पर कात्यायनी का मन्दिर, सोम के पद पर धनद (कुबेर) का मन्दिर अथवा
मातृदेवियों का मन्दिर होना चाहिये ॥७१॥
शिवालय ईश, पर्जन्य या जयन्त के पद पर, कुबेर का मन्दिर सोम अथवा शोष के पद पर निर्मित कराना चाहिये ॥७२॥
वही गणेश का भवन होना चाहिये । अथवा अदिति के पद पर मातृदेवियो का मन्दिर होना चाहिये । मध्य में विष्णु का
मन्दिर होना चाहिये । वही सभामण्डप भी होना चाहिये- ऐसा कहा गया है ॥७३॥
अथवा सभास्थल ब्रह्मा के पद पर ईशान कोण या आग्नेय कोण में होना चाहिये । विष्णुमन्दिर उत्तर-पश्चिम मे अथवा दक्षिण
में होना चाहिये ॥७४॥
मध्य के पाँच पदों पर निर्माणकार्य दुःखकारक होता है । वास्तुमण्डल के युग्म पद से तथा अयुग्म पद (समसंख्या एवं
विषमसंख्या) से निर्मित होने पर ब्रह्मस्थान आठ भाग एवं नौ भाग से निर्मित होना चाहिये ॥७५॥
ब्रह्मा के भाग को छोड़ कर पूर्व दिशा से प्रारम्भ कर क्रमशः नलिनक, स्वस्तिक,नन्द्यावर्त, प्रलीनक, श्रीप्रतिष्ठित, चतुर्मुख एवं
पद्मसम भवन का निर्माण करना चाहिये । वहाँ तीन तल से लेकर बारह तलपर्यन्त विष्णुच्छन्द विमान का निर्माण होना
चाहिये ॥७६॥७७॥
यह विष्णुमन्दिर ग्रामादि से बाहर भी हो सकता है । इसमें विष्णु की खड़ी, बैठी या शयन करती हुई मूर्ति स्थापित करनी
चाहिये ॥७८॥
ग्रामों में क्रमानुसार उत्कृष्ट, मध्यम, अधम एवं नीच आदि भवन होने चाहिये; किन्तु उत्तर ग्राम में नीच भवन नहीं होना
चाहिये ॥७९॥
यदि ग्राम क्षुद्र हो तो वहाँ क्षुद्र विमान (छोटा मन्दिर) ही उचित है एवं वही बनाना चाहिये । तीन, चार एवं पाँच तल का
देवालय हीन ग्राम में होना चाहिये तथा हीन ग्राम में सामान्य भवन होना चाहिये ॥८०॥
उत्कृष्ट ग्राम अथवा नगर में यदि नीच श्रेणी का देवालय हो तो वहाँ के पुरुषो में नीच प्रवृत्ति एवं स्त्रियों में दुःशीलता होती है
॥८१॥
इसलिये ग्राम अथवा नगर की श्रेणी के समान या अधिक श्रेणी का मन्दिर निर्मित होना चाहिये । हरिहर मन्दिर अथवा अन्य
सभी वास्तुनिर्मित यथोचित होनी चाहिये ॥८२॥
दौवारिक
चण्डश्वर, कुमार, धनद, काली, पूतना, कालीसुत तथा खड्गी - ये देवता दौवारिक कहे गये है ॥८३॥
ग्राम आदि में पूर्वमुख या पश्चिममुख शिव का स्थान होना चाहिये । यदि उनका मुख ग्रामादि से बाहर की ओर हो तो प्रशस्त
होता है । विष्णु का मुख सभी दिशाओं में हो सकता है; किन्तु उनका मुख यदि ग्राम कि ओर हो तो शुभ होता है ॥८४॥
शेष देवगण पूर्वमुख होने चाहिये । मातृदेवियों को उत्तरमुख स्थापित करना चाहिये । सूर्यमन्दिर का द्वार पश्चिममुख होना
चाहिये । पुर आदि में मनुष्यों के गृह से पहले देवालयों का निर्माण कराना चाहिये ॥८५॥
त्याज्य स्थान - वास्तुमण्डल के ह्रदय, वंश, सूत्र, सन्धिस्थल तथा कर्णसिराओं इन छः स्थलों पर देवालय आदि का निर्माण
नहीं होना चाहिये ॥८६॥
अन्य श्रेणी के भवन - स्थान - (पुर तथा ग्राम आदि के) दक्षिण ओर गोशाला एव उत्तर में पुष्पवाटिका होनी चाहिये । पूर्व
या पश्चिम द्वार के निकट तपस्वियों का आवास होना चाहिये ॥८७॥
जलाशय, वापी एवं कूप सभी स्थानों पर होना चाहिये । वैश्यों का आवास दक्षिण में एवं शूद्रों का आवास चारो ओर होना
चाहिये ॥८८॥
पूर्व अथवा उत्तर दिशा में कुम्हारो के गृह होने चाहिये । वही नाइयों का एवं अन्य हस्तकौशल वालों के भी गृह होने चाहिये
॥८९॥
उत्तर-पश्चिम दिशा में मछुआरों का निवास होना चाहिये । पश्चिमी क्षेत्र में मांस से आजीविका चलाने वालों का निवास होना
चाहिये ॥९०॥
तेलियों के गृह उत्तर दिशा में होने चाहिये ।
गृहलक्षण
गृह के लक्षण - गृहों की चौड़ाई तीन, पाँच, सात या नौ धनुप्रमाण होनी चाहिये ॥९१॥
गृहों की लम्बाई चौड़ाई से क्रमशः दो-दो दण्ड बढ़ानी चाहिये । लम्बाई उतनी ही ग्रहण करनी चाहिये, जितनी कि चौड़ाई की
दुगुनी से अधिक न हो जाय ॥९२॥
गृहों का निर्माण विधि के अनुसार हस्तप्रमाण से करना चाहिये । ये गृह रुचक, स्वस्तिक, नन्द्यावर्त और सर्वतोभद्र (किसी एक
शैली के) हो सकते है ॥९३॥
गृह (सर्वतोभद्र या) वर्धमान हो सकता है । आकृति की दृष्टि से ये चार गृह कहे गये है । अथवा दण्डक, लाङ्गल या शूर्प गृह
इच्छानुसार हो सकते है ॥९४॥
ग्राम से कुछ दूर आग्नेय अथवा वायव्य कोण में स्थपतियों का आवास होना चाहिये । शेष का आवास भी वही बनवाना
चाहिये ॥९५॥
उससे कुछ दूर रजक (धोबी) आदि का आवास होना चाहिये । ग्राम से पूर्व दिशा मे एक कोस की दूरी पर चण्डाल वर्ग का
आवास होना चाहिये ॥९६॥
वहाँ चण्डाल-स्त्रियाँ ताम्र, अयस् एवं सीसे के आभूषण पहने हुये निवास करे । दिन के प्रथम प्रहर में ग्राम में प्रवेश कर
चण्डाल वर्ग ग्राम की गन्दगी साफ करें ॥९७॥
पूर्वोत्तर दिशा में ग्राम से पाँच सौ दण्ड दूर शवों (की अन्त्येष्टि क्रिया) का स्थान होना चाहिये । शेष लोगों (सामान्य जनों से
पृथक् ) का श्मशान उससे दूर होना चाहिये ॥९८॥
विन्यासदोष
भवन-विन्यास के दोष - चण्डाल एवं चर्मकार का आवास, श्मशान, जलाशय, देवालय, विश्वकोष्ठ (सभी पदार्थो का संग्रहस्थल),
ग्राम के चारो ओर का परिवेश एवं ग्राम के चारो ओर के मार्ग यदि उचित स्थान पर नहीं होते है (तो उनका परिणाम कष्टकर
होता है ) ॥९९॥
उपर्युक्त का दुष्परिणाम ग्राम का विनाश, राजा का भङ्ग (हानि) एवं मृत्यु होता है । देवालय एवं हाट का रिक्त होना, कूड़े का
संग्रह तथा मार्ग में अशुद्ध वस्तुओं (कूड़े आदि) का फेंका जाना ग्राम को शून्य कर देता है ॥१००॥
गर्भविन्यास
शिलान्यास - सभी ग्रामादिकों के गर्भ-विन्यास का वर्णन किया जाता है ॥१०१॥
(ग्रामादि का) गर्भयुक्त होना सभी प्रकार की सम्पत्तियों का एवं गर्भहीन होना सभी प्रकार के विनाश का कारण होता है ।
इसलिये प्रयत्नपूर्वक सही रीति से गर्भविन्यास करना चाहिये ॥१०२॥
गर्भविन्यास - भूमि मे खोदे गये गर्त में आगे के श्लोकों मे वर्णित पदार्थों का डाला जाना गर्भ-विन्यास कहलाता है ।
मृत्तिका, कन्द (मूल, जड़), लोहयुक्त अन्न (लोह-पात्र मे रक्खा अन्न), धातु, इन्द्रनील आदि रत्न गर्भविन्यास के द्रव्य है ।
इन्हे दोषहीन ही होना चाहिये तथा इन्हे पैसों से क्रय करके संगृहीत करना चाहिये ॥१०३॥
भूमि में खोदे गये गर्त में जल भरने के पश्चात् मृत्तिका आदि डालनी चाहिये । अन्न के ऊपर दोषहीन ताम्रपात्र रखना चाहिये
॥१०४॥
ताम्रपात्र की चौड़ाई पाँच प्रकार की कही गई है । इनका प्रमाण चौदह, बारह, दश, आठ या चार अङ्गुल होना चाहिये ॥१०५॥
ताम्रपात्र की ऊँचाई चौड़ाई के समान होनी चाहिये । उसमें पच्चीस अथवा नौ कोष्ठ होने चाहिये ॥१०६॥
उपपीठ पद से युक्त (पच्चीस कोष्ठ वाले) उस पात्र में वास्तुदेवों को स्थान देना चाहिये । सूर्य के कोष्ठ में रजतनिर्मित वृष एवं
सुवर्णनिर्मित इन्द्र को स्थापित करना चाहिये ॥१०७॥
यम के पद पर ताम्रनिर्मित यमराज, लौहनिर्मित सिंह एवं रजतनिर्मित वरुण को स्थापित करना चाहिये ॥१०८॥
सोम के पद पर श्वेत वर्ण का (रजतमय) अश्व तथा रजतनिर्मित गज रखना चाहिये । ईश के पद पर पारा, अग्नि पर टिन,
निऋति पर सीसा रखना चाहिये ॥१०९॥
समीरण के पद पर सुवर्ण, जयन्त पर सिन्दूर, भृश पर हरिताल तथा वितथ पर मनःशिला (मैनसिल) रखना चाहिये ॥११०॥
भृङ्गराज पर माक्षिक (एक खनिज पदार्थ), सुकन्धर पर लाजावर्त, शोष पर गैरिक (गेरु) तथा गणमुख्य पर अञ्जन रखना
चाहिये ॥१११॥
अदिति पर रक्त वर्ण का ताम्र रखना चाहिये । उपर्युक्त सभी को भली भाँति जान कर क्रमानुसार रखना चाहिये । चतुष्पदो पर
लोकनाथों को इस प्रकार स्थापित करना चाहिये, जिससे उनका मुख केन्द्र की ओर रहे ॥११२॥
इन देवों की प्रतिमा की ऊँचाई छः, पाँच, चार, तीन या दो अङ्गुल होनी चाहिये एवं उनके वाहनों की ऊँचाई पूर्वोक्त माप की
आधी होनी चाहिये । प्रतिमायें स्थानक मुद्रा (खड़ी) अथवा आसन मुद्रा (बैठी) में होनी चाहिये ॥११३॥
आपवत्स पर मोती, मरीचि पर मूँगा, सविता पर पुष्पराग (पोखराज) तथा विवस्वान् पर वैदूर्य मणि रखना चाहिये ॥११४॥
इन्द्रजय पर हीरा, मित्रक पर इन्द्रनील, रुद्रराज पर महानील तथा महीधर पर मरकत (पन्ना) रखना चाहिये ॥११५॥
पात्र के मध्य मे पद्मराग (रुबी) रखना चाहिये । रत्न एवं धातुओं को पात्र में उनके उचित स्थान पर रखना चाहिये ॥११६॥
उन देवों के स्थान एवं स्थिति को विधिपूर्वक ज्ञात कर रत्नादि को रखना चाहिये । चारो दिशाओं में सुवर्ण, आयस (लौह),
ताँबे एवं चाँदी के स्वस्तिक रखने चाहिये ॥११७॥
ब्रह्मस्थान के बाहर पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, पश्चिम एवं उत्तर दिशा में सुवर्ण के साथ शालिधान्य, चाँदी के साथ व्रीहि, अयस के
साथ कोद्रव (कोदो) रखना चाहिये ॥११८॥
टिन के साथ कङ्कु धान्य, सीसा के साथ माष (उड़द), तिल पारे के साथ, मूँग को अयस (लोह) के साथ तथा कुलत्थ को ताम्र
धातु के साथ रखना चाहिये ॥११९॥
प्रथमतः पात्र के लिये बलि (उपर्युक्त वर्णित पदार्थ) प्रदान करना चाहिये । इसके पश्चात् सभी पदार्थो को पात्र में रख देना
चाहिये । (पात्र को ढकने के लिये) एक अङ्गुल से अधिक चौड़ा तथा बारह अङ्गुल लम्बा पत्र लेना चाहिये ॥१२०॥
बारह अङ्गुल से लेकर पाँच-पाँच अङ्गुल के वृद्धि-मान से बत्तीस अङ्गुल तक (पत्र) का प्रमाण हो सकता है । यह
इन्द्रकीलसंज्ञक पत्र खदिर के काष्ठ का गोलाकार निर्मित होना चाहिये ॥१२१॥
गर्भ-विन्यास के ज्ञाता को इस पत्र को पात्र के ऊपर रखना चाहिये । यह गर्भ विन्यास स्थानीय, द्रोणमुख तथा खर्वट एवं
प्रत्येक प्रकार के नगर मे करना चाहिये ।
(उपर्युक्त के अतिरिक्त) ग्राम, निगम, खेट, पत्तन तथा कोत्मकोलक आदि वसतिविन्यासों में गर्भ-विन्यास ब्रह्मा, आर्य, अर्क,
विवस्वान्, यम, मित्र, वरुण, सोम एवं पृथिवीधर के भाग में या द्वार के दक्षिण भाग में करना चाहिये ॥१२३-१२४॥
(द्वार के दक्षिण भाग में) पुष्पदन्त, भल्लाट, महेन्द्र एवं गृहक्षत के पद पर अथवा विष्णु के स्थान (मन्दिर), लक्ष्मी के स्थान
या स्कन्द के स्थान में ग्राम की रक्षा के लिये एवं सभी प्रकार की कामनाओं की वृद्धी के लिये गर्भ-विन्यास करना चाहिये ।
प्रथमतः (गर्त्त में) गर्भ-विन्यास करना चाहिये । तत्पश्चत् उसके ऊपर मूर्तियों को स्थापित करना चाहिये ॥१२५-१२६॥
गर्भ-विन्यास वाले क्षेत्र को (गर्त्त को) शिलाओं एवं इष्टकाओं से निर्मित करना चाहिये । इसका माप पुरुष का अञ्जलिप्रमाण
रखना चाहिये । अवर्णित सभी पदार्थों को ब्रह्म आदि के भाग में रखना चाहिये (अवर्णित पदार्थो का वर्णन 'गर्भविन्यास'
अध्याय मे प्राप्त होता है) ॥१२७॥
जिस विधे से गर्भविन्यास सुरक्षित एवं स्थिर है (तथा भवननिर्माण भी सुरक्षित एवं स्थिर रहे), उसी रीति से स्थपति को गर्भ
स्थापित करना चाहिये । यहाँ जिनका वर्णन नहीं किया गया है, उन सभी का वर्णन गर्भलक्षण (गर्भविन्यास, अध्याय-१२) में
किया गया है ॥१२८॥
इस प्रकार देवों के अनुरूप भूमि का माप (वास्तुमण्डल), वर्ण एवं अन्य जातियों के अनुकूल माप, ग्रामादिकों का प्रमाण,
मार्गयोजना आदि को तन्त्रों से अलङ्कारसहित, सुन्दर ढंग से एवं संक्षेप में लिया गया है ॥१२९॥
राजा को मापन आदि कर्म में निपुण चारो स्थपतियों को भूमि एवं गाये प्रदान करनी चाहिये; जो व्यक्ति इस प्रकार करता है,
उसे संसार मे चन्द्रमा एवं तारों की स्थितिपर्यन्त सर्वदा धन एवं अनेक (समृद्धिदायक) वस्तुओं की प्राप्ति होती रहती है एवं वह
सर्वदा प्रसन्न रहता है ॥१३०॥