आश्विन : कृष्ण पक्ष
कृष्ण भक्ति से सरोबार होकर अर्जुन बोले - ’हे भगवन् ! अब आप कृपापूर्वक आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी की कथा को कहिए । इस एकादशी का क्या नाम है तथा इसका व्रत करने से कौन-सा फल मिलता है । कृपा करके यह सब समझाकर कहिए ।’
श्री कृष्ण भगवान् बोले - "हे अर्जुन ! आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी का नाम इन्दिरा है । इस एकादशी का व्रत करने से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं । नरक में गये हुए पितरों का उद्धार हो जाता है । हे पार्थ ! इस एकादशी की कथा के सुनने मात्र से ही मनुष्य को अनन्त फल मिलता है । मैं कथा कहता हूं, तुम ध्यानपूर्वक सुनो -
सतयुग में महिष्मती नाम की नगरी में इन्द्रसेन नाम का एक प्रतापी राजा राज्य करता था । वह पुत्र, पौत्र, धन-धान्य आदि से पूर्ण था । उसके शत्रु सदैव उससे भयभीत रहते थे । एक दिन राजा अपनी राज्य सभा में सुखपूर्वक बैठा था कि महर्षि नारद वहां आये । नारदजी को देखकर राजा आसन से उठा, प्रणाम करके उन्हें सम्मान सहित आसन दिया । तब महर्षि नारद ने कहा - हे राजन् ! आपके राज्य में सब कुशल से तो हैं ? मैं आपकी धर्मपरायणता देखकर अत्यन्त प्रसन्न हूं ।"
राजा बोला - "हे महर्षि ! आपकी कृपा से मेरे राज्य में सब कुशलपूर्वक हैं तथा आपकी कृपा से मेरे समस्त यज्ञ कर्म आदि सफल हो गये हैं । हे देव ! अब आप कृपा कर यह बताएं कि आपका यहां आगमन किस प्रयोजन से हुआ है ? मैं आपकी क्या सेवा करुं ?"
नारदजी बोले - "हे राजन् ! मुझे एक महान् आश्चर्य हो रहा है कि एक समय जब मैं ब्रह्मलोक से यमलोक गया था, तब मैंने यमराज की सभा में तुम्हारे पिता को बैठे देखा । तुम्हारा पिता महान् ज्ञानी, दानी तथा धर्मात्मा था मगर एकादशी के व्रत के बिगड़ जाने के कारण वह यमलोक को गया है । तुम्हारे पिता ने तुम्हारे लिए एक संदेश भेजा है ।"
"क्या संदेश है ऋषिवर ? कृपा कर यथाशीघ्र कहें ।" उत्सुकता से राजा ने पूछा ।
"उसने कहा है कि महर्षि ! आप मेरे पुत्र इन्द्रसेन, जो कि महिष्मती नगरी का राजा है, के पास जाकर एक संदेश देने की कृपा करें कि मेरे किसी पूर्व जन्म के बुरे कर्म के कारण ही मुझे यह लोक मिला है । यदि मेरा पुत्र आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की इन्दिरा एकादशी का व्रत करे और उस व्रत के फल को मुझे दे दे तो मेरी मुक्ति हो जाय । मैं भी इस लोक से छूटकर स्वर्ग लोक में वास करुं ।"
अपने पिता के यमलोक में पड़े होने की बात सुनकर इन्द्रसेन को अपार दुःख पहुंचा और उसने नारदजी से कहा - "हे मुनिवर ! यह तो बड़े दुःख की बात है कि मेरे पिता यमलोक में पड़े हैं । मैं उनकी मुक्ति का उपाय अवश्य करुंगा, आप कृपा करके मुझे इन्दिरा एकादशी व्रत की विधि बताएं ।"
इस पर नारद जी बोले - "हे राजन् ! आश्विन मास की कृष्ण पक्ष की दशमी के दिन प्रातःकाल श्रद्धा सहित स्नान करना चाहिए । इसके पश्चात् दोपहर को भी स्नान करना चाहिए । उस समय जल से निकलकर श्रद्धापूर्वक पितरों का श्राद्ध करें और उस दिन एक समय भोजन करें और रात्रि को पृथ्वी का शयन करें । इसके दूसरे दिन अर्थात् एकादशी के दिन नित्यकर्मों से निवृत्त होकर स्नानादि के पश्चात् भक्तिपूर्वक व्रत को धारण करें और इस प्रकार संकल्प करें कि - मैं आज निराहार रहूंगा और समस्त भोगों को त्याग दूंगा । इसके पश्चात् कल भोजन करुंगा । हे भगवन् ! आप मेरी रक्षा करने वाले हैं । आप मेरे व्रत को सम्पूर्ण कराइए ।’
इस प्रकार आचरण करके दोपहर को सालिगरामजी की मूर्ति को स्थापित करें और ब्राह्मण को बुलाकर भोजन करायें तथा दक्षिणा दें ।
भोजन में से कुछ हिस्सा गाय को दें और विष्णु भगवान् की धूप, दीप, नैवेद्य आदि से पूजा करें तथा रात्रि को जागरण करें । इसके उपरान्त द्वादशी के दिन मौन होकर बन्धु-बान्धवों सहित भोजन करें । हे राजन् ! यह इन्दिरा एकादशी के व्रत की विधि है । यदि तुम आलस्यरहित होकर इस एकादशी के व्रत को करोगे तो तुम्हारे पिता अवश्य ही स्वर्ग के अधिकारी हो जायेंगे ।"
महर्षि नारद राजा को सब उपदेश देकर अन्तर्धान हो गये ।
राजा ने इन्दिरा एकादशी के आने पर उसका विधिपूर्वक व्रत किया । बन्धु-बान्धव सहित इस व्रत के करने से आकाश से पुष्पों की वर्षा हुई और राजा का पिता यमलोक से रथ पर चढ़कर स्वर्ग को गया ।
राजा इन्द्रसेन भी इस एकादशी के प्रभाव से इस लोक में सुख भोगकर अन्त में स्वर्ग लोक को गया ।
श्री कृष्ण भगवान् बोले - "हे अर्जुन ! यह मैंने तुम्हारे सामने इन्दिरा एकादशी का माहात्म्य वर्णन किया । इस कथा के पढ़ने व सुनने मात्र से ही समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और अन्त में मनुष्य स्वर्ग लोक में जाकर वास करता है ।"
कथासार
मनुष्य को चाहिए कि वह जो भी संकल्प करे, उसे तन-मन-धन से पूरा करे । किसी भी कार्य का संकल्प करके तोड़ना उचित नहीं होता ।