चैत्र : कृष्ण पक्ष
अर्जुन बोला - "हे मधुसूदन ! मैं ज्यों-ज्यों एकादशियों के व्रतों की कथाएं सुन रहा हूं, त्यों-त्यों अन्य एकादशियों के व्रतों की कथाएं सुनने की मेरी उत्सुकता बढ़ती ही जा रही है । हे श्री कृष्ण ! अब कृपाकर आप चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी के बारे में बतलाइए । इस एकाद्शी का नाम क्या है ? इसमें कौन से देवता की पूजा की जाती है तथा इसका व्रत करने की क्या विधि है ? हे गोपाल ! यह सब मुझे विस्तारपूर्वक बताने की कृपा करें ।"
श्री कृष्ण भगवान् बोले - "हे पाण्डुनन्दन ! एक समय यही प्रश्न पृथ्वीपति मान्धाता ने लोमश ऋषि से किया था, जो कुछ लोमश ऋषि ने नृपति मान्धाता को बताया था, वही मैं तुमसे कहता हूं । धर्म के गुह्यतम रहस्यों के ज्ञाता राजा मान्धाता ने लोमश ऋषि से पूछा - ’हे महर्षि ! मनुष्य के पापों का मोचन किस प्रकार सम्भव है ? कृपा कर कोई ऐसा सरल उपाय बताएं, जिससे सहज ही पापों से छुटकारा मिल जाए ।’
लोमष ऋषि बोले - ’हे राजन ! चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी का नाम ’पापमोचिनी’ है । उसके व्रत के प्रभाव से मनुष्यों के अनेक पाप नष्ट हो जाते हैं । मैं तुम्हे इसकी कथा सुनाता हूं , ध्यानपूर्वक सुनो - प्राचीनकाल में चैत्ररथ नामक एक वन था । उसमें अप्सराएं किन्नरों के साथ विहार करती थीं । वहां हर समय वसन्त रहता था अर्थात् उस जगह सदैव प्रत्येक तरह के पुष्प खिले रहते थे । कभी गन्धर्व कन्याएं विहार किया करती थी, कभी इन्द्र अन्य देवताओं के साथ क्रीड़ा किया करते थे । उसी वन में मेधावी नाम के एक ऋषि भी तपस्या में लीन रहते थे । वे शिवभक्त थे । एक दिन मंजुघोषा नामक एक अप्सरा ने उनको मोहित कर उनके नैकट्य का लाभ उठाने की चेष्टा की । इसके लिए वह कुछ दूरी पर बैठ वीणा बजाकर मधुर स्वर में गाने लगी । उसी समय कामदेव भी शिवभक्त उन मुनि को जीतने का प्रयास करने लगे । कामदेव ने उस सुन्दर अप्सरा के भ्रू का धुनष बनाया । कटाक्ष को उसकी प्रत्यंचा (डोरी) बनाई और उसके नेत्रों को उस मंजुघोषा अप्सरा का सेनापति बनाया । इस तरह कामदेव अपने शत्रुभक्त को जीतने को तैयार हुआ । उस समय मेधावी मुनि भी युवा तथा हृष्ट-पुष्ट थे । उन्होंने यज्ञोपवीत तथा दंड धारण कर रखा था । वे दूसरे कामदेव के समान प्रतीत होते थे । उस मुनि को देखकर कामदेव के वश में हुई मंजुघोषा ने धीरेधीरे मधुर वाणी से वीणा पर गाना शुरु किया तो मेधावी मुनि भी मंजुघोषा के मधुर गाने पर तथा उसके सौन्दर्य पर मोहित हो गये । वह अप्सरा मेधावी मुनि को कामदेव से पीड़ित जानकर उनसे आलिंगन करने लगी । मेधावी मुनि उसके सौन्दर्य पर मोहित होकर शिव रहस्य को भूल गये और काम के वशीभूत होकर उसके साथ रमण करने लगे ।
उस मुनि को काम के वशीभूत होने के कारण उस समय दिन-रात का कुछ भी ध्यान न रहा और बहुत समय तक वे रमण करते रहे । तदुपरान्त मंजुघोषा उस मुनि से बोली - "हे मुनि ! अब मुझे बहुत समय हो गया है, अतः स्वर्ग जाने की आज्ञा दीजिए ।"
उस अप्सरा की बात सुनकर मुनि बोले - "हे सुन्दरी ! संध्या को तो आई हो, प्रातःकाल होने पर चली जाना ।"
मुनि के ऐसे वचनों को सुनकर अप्सरा उनके साथ रमण करने लगी । इसी प्रकार उन्होंने साथ-साथ बहुत सम्य बिताया ।
एक दिन फिर मंजुघोषा ने मेधावी मुनि से कहा "हे देव ! अब आप मुझे स्वर्ग जाने की आज्ञा दीजिए ।"
इस बार फिर मुनि ने कहा - "हे सुन्दरी ! अभी तो कुछ भी समय नहीं व्यतीत हुआ है, अभी कुछ समय और ठहरो ।"
इस पर वह अप्सरा बोली - "हे मुनि ! आपकी रात्रि तो बहुत लम्बी है । आप स्वयं ही सोचिए कि मुझे आपके पास आये कितना समय हो गया । अब और अधिक समय तक ठहरना क्या उचित है ?"
उस अप्सरा की बात सुनकर मुनि को समय का बोध हुआ और वह गम्भीरतापूर्वक विचार करने लगे । जब उन्हें बोध हुआ कि उन्हें रमण करते-करते सत्तावन वर्ष व्यतीत हो चुके हैं तो उस अप्सरा को वह काल का रुप समझने लगे । इतना अधिक समय भोग-विलास में व्यर्थ हो जाने पर उन्हें बड़ा क्रोध आया । वह अत्यंत क्रोधित हुए और उस तप नाश करने वाली अप्सरा की तरफ भृकुटी तानकर देखने लगे । उनके अधर कांपने लगे और इन्द्रियां बेकाबू होने लगीं । क्रोध से थरथराते स्वर में वह उस अप्सरा से बोले - "अरी दुष्टा ! मेरे तप को नष्ट करने वाली, तू महान् पापिन और दुराचारिणी है, तुझे धिक्कार है । अब तू मेरे शाप से पिशाचिनी हो जा ।"
उन मुनि के क्रोध युक्त शाप से वह पिशाचिनी हो गई । फिर व्यथित होकर बोली - "हे मुनि ! अब मुझ पर क्रोध को त्याग कर प्रसन्न होइए और कृपा करके बताइए कि इस शाप का निवारण किस प्रकार होगा ? विद्वानों ने कहा है, साधुओं की संगत अच्छा फल देने वाली है, इसलिए आपके साथ तो मेरे बहुत वर्ष व्यतीत हुए हैं । अतः अब आप मुझ पर प्रसन्न हो जाइए अन्यथा लोग कहेंगे कि एक पुण्य आत्मा के साथ रहने पर मंजुघोषा को पिशाचिनी होना पड़ा ।" मंजुघोषा की बात सुनकर मेधावी मुनि को अपने क्रोध पर ग्लानि भी हुई और अपनी अपकीर्ति का भी भय हुआ । अतः पिशाचिनी बनी मंजुघोषा से उन्होंने कहा - "तूने मेरा बड़ा बुरा किया है परन्तु फिर भी मैं तुझे इस शाप से छूटने का उपाय बतलाता हूं । चैत्र माह के कृष्ण पक्ष की जो एकादशी है, उसका नाम पापमोचिनी है । उस एकादशी का व्रत करने से तू पिशाचिनी की देह से छूट जायेगी ।"
इस प्रकार मुनि ने उसको समस्त विधि बतला दी । फिर अपने पापों के प्रायश्चित के लिए वे अपने पिता च्यवन ऋषि के पास गये ।
च्यवन ऋषि अपने पुत्र मेधावी को देखकर बोले - "रे पुत्र ! तूने ऐसा क्या किया है, तेरे समस्त तप नष्ट हो गये हैं ? जिससे तुम्हारा सारा तेज क्षीण हो गया है ?"
मेधावी लज्जा से सिर झुकाकर बोले - "पिताजी ! मैंने एक अप्सरा से रमण करके बहुत बड़ा पाप किया है । इसी पाप के कारण सम्भवतः मेरा सारा तेज और मेरे तप नष्ट हो गए हैं । कृपा करके आप इस पाप से छूटने का उपाय बतलाइए ।"
च्यवन ऋषि बोले - " हे तात ! तुम चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की पापमोचिनी एकादशी का विधि तथा भक्तिपूर्वक व्रत करो, इससे तुम्हारे समस्त पाप नष्ट हो जायेंगे ।"
पिता के वचनों को सुनकर मेधावी ऋषि ने पापमोचिनी एकादशी का विधिपूर्वक उपवास किया । उसके प्रभाव से उनके समस्त पाप नष्ट हो गये । मंजुघोषा अप्सरा भी पापमोचिनी एकादशी का व्रत करने से पिशाचिनी की देह से छूट गई और सुन्दर रुप धारण करके स्वर्ग लोक चली गई ।
लोमश मुनि बोले - "हे राजन् ! इस पापमोचिनी एकादशी के प्रभाव से सब पाप नष्ट हो जाते हैं । इस एकादशी की कथा के श्रवण व पठन से एक हजार गौदान करने का फल मिलता है । इस व्रत के करने से ब्रह्म हत्या करने वाले, स्वर्ण चुराने वाले, मद्यपान करने वाले, अगम्या गमन करने वाले आदि पाप नष्ट हो जाते हैं और अन्त में स्वर्ग लोक की प्राप्ति होती है ।
कथासार
इस कथा से स्पष्ट है कि देहजन्य आकर्षण अधिक समय तक नहीं रहता । देह के लोभ में पड़कर मेधावी ऋषि अपने तप संकल्प को भूल गये । इसे घोर अपराध माना जाता है, किन्तु भगवान् विष्णु की पापमोचिनी शक्ति इस घोर अपराध के पाप से भी सहज ही मुक्ति दिलाने में सक्षम है । जो प्राणी सद्कर्मों का संकल्प करके बाद में लोभ-लालच और भोग-विलास के वशीभूत होकर अपने संकल्प से गिर जाते हैं, वे घोर नरक के अपराधी होते हैं, किन्तु पापमोचिनी सभी पापों से मुक्त करके प्राणी को स्वर्ग का अधिकारी बना देती है ।