शुक्लपक्ष की एकादशी

फाल्गुन माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी को आमलकी एकादशी कहते है ।


फाल्गुन : शुक्लपक्ष

सूत जी ने अट्‌ठासी हजार ऋषियों को सम्बोधित करते हुए कहा - "हे ऋषियो ! एक बार की बात है । महान् राजा मान्धाता ने वशिष्‍ठ जी से पूछा - हे वशिष्‍ठजी ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो ऐसे व्रत की कथा कहिए जिससे मेरा कल्याण हो ।"

महर्षि वशिष्‍ठजी बोले - "हे राजन् ! सब व्रतों से उत्तम और अन्त में मोक्ष देने वाला, आमलकी एकादशी का व्रत है ।"

राजा मान्धाता ने कहा - ’हे मुनिवर ! इस आमलकी एकादशी के व्रत की उत्पत्ति कैसे हुई ? इस व्रत के करने की विधि क्या है ? हे वेदों के ज्ञाता ! कृपा करके इसका सब विवरण मुझसे विस्तारपूर्वक कहें ।’

मुनि वशिष्‍ठ ने कहा - "हे नृप श्रेष्‍ठ ! मैं तुम्हारे समक्ष विस्तार से इस व्रत का वर्णन करता हूं - यह व्रत फाल्गुन माह शुक्ल पक्ष में होता है । इस व्रत के फल से समस्त पाप नष्‍ट हो जाते हैं । इस व्रत का पुण्य एक हजार गौ दान के फल के बराबर है । आमलकी (आंवले) की महत्ता उसके गुणों से अतिरिक्‍त इस बात में भी है कि इसकी उत्पत्ति भगवान् विष्णु के श्रीमुख से हुई है । अब मैं आपसे एक पौराणिक कथा कहता हूं । उसे ध्यानपूर्वक सुनो -

वैदिक नामक एक नगर था । उस नगर में ब्राह्मण, वैश्‍य, क्षत्रिय, शुद्र, चारों वर्ण आनन्दपूर्वक रहते थे । नगर में सदैव वेदध्वनि गूंजा करती थी । उस नगरी में कोई भी पापी, दुराचारी, नास्तिक आदि न था । उस नगर मेम चैत्ररथ नामक चन्द्रवंशी राजा राज्य करता था । वह महान् विद्वान् तथा धार्मिक वृत्ति का था, उसके राज्य में कोई भी दरिद्र तथा कंजूस नहीं था । उस राज्य के सभी निवासी विष्णुभक्‍त थे । वहां के वृद्ध से बालक तक सभी निवासी प्रत्येक एकादशी का व्रत करते थे ।

एक समय फाल्गुन मास के शुक्‍ल पक्ष की आमलकी नामक एकादशी आई । उस दिन राजा से प्रजा तक, वृद्ध से बालक तक, सबने हर्ष सहित उस एकाद्शी का व्रत किया । राजा अपनी प्रजा के साथ मन्दिर में आकर कुम्भ स्थापित करके तथा धूप, दीप, नैवेद्य, पंचरत्‍न, छत्र आदि से धात्री का पूजन करने लगे । वे सब धात्री की इस प्रकार स्तुति करने लगे - ’हे धात्री ! आप ब्रह्म स्वरुपा हैं । आप ब्रह्माजी द्वारा उत्पन्न हो और समस्त पापों को नष्‍ट करने वाली हैं , आपको नमस्कार है । आप मेरा अर्घ्य स्वीकार करो । आप श्रीरामचन्द्रजी के द्वारा सम्मानित हैं, मैं आपसे प्रार्थना करता हूं, मेरे समस्त पापों का हरण करो ।’

उस देवालय में रात्रि को सबने जागरण किया । रात्रि के समय उस जगह एक बहेलिया आया । वह महापापी तथा दुराचारी था । अपने कुटुम्ब का पालन वह जीव हिंसा करके करता था । वह भूख-प्यास से अत्यन्त व्याकुल था, कुछ भोजन पाने की इच्छा से वह मन्दिर के एक कोने में बैठ गया । उस जगह विष्णु भगवान् की कथा तथा एकादशी माहात्म्य सुनने लगा । इस प्रकार उस बहेलिये ने समस्त रात्रि को अन्य लोगों के साथ जागरण कर व्यतीत की । प्रातःकाल होते ही सभी लोग अपने-अपने घर को चले गये । इसी प्रकार वह बहेलिया भी अपने घर चला गया और वहां जाकर भोजन किया ।

कुछ समय बीतने के पश्‍चात उस बहेलिये की मृत्यु हो गई । उसने जीव हिंसा की थी, इस कारण हालांकि वह घोर नरक का अधिकारी था, किन्तु उस दिन आमलकी एकादशी के व्रत तथा जागरण के प्रभाव से उसने राजा विदुरथ के यहां जन्म लिया । उसका नाम वसुरथ रखा गया । बड़ा होने पर वह चतुरंगिणी सेना सहित तथा धन-धान्य से युक्‍त होकर दस सहस्त्र ग्रामों का पालन करने लगा ।

वह तेज में सूर्य के समान, कान्ति में चन्द्रमा के समान, वीरता में विष्णु भगवान् के समान, और क्षमा में पृथ्वी के समान था । वह अत्यन्त धार्मिक, सत्यवादी, कर्मवीर और विष्णु भक्‍त था । वह प्रज्ञा का समान भाव से पालन करता था । दान देना उसका नित्य का कर्तव्य था ।

एक दिन राजा वसुरथ शिकार खेलने के लिए गया । दैवयोग से वन में वह रास्ता भटक गया और दिशा का ज्ञान न होने के कारण उसी वन में एक वृक्ष के नीचे सो गया । उसी समय पहाड़ी डाकू वहां आये और राजा को अकेला देखकर ’मारो-मारो’ का उच्चारण करते हुए राजा वसुरथ की ओर दौड़े । वह डाकू कहने लगे कि इस दुष्‍ट राजा ने हमारे माता-पिता, पुत्र-पौत्र आदि सभी सम्बन्धियों को मारा है तथा देश से निकाल दिया । अब हमें इसे मारकर अपने अपमान का बदला लेना चाहिए ।

ऐसा कहकर वे डाकू राजा को मारने लगे और उस पर अस्त्र-शस्त्र का प्रहार करने लगे । उनके अस्त्र-शस्त्र राजा के शरीर पर गिरते ही नष्‍ट हो जाते और राजा को पुष्पों के समान प्रतीत होते थे । कुछ देर बाद विधाता की करनी ऐसी हुई कि उन डाकुओं के अस्त्र-शस्त्र उन पर उल्टा प्रहार करने लगे जिससे वे मूर्छित हो गये । उस समय राजा के शरीर से एक दिव्य देवी प्रकट हुई । वह देवी अत्यन्त सुन्दर थी तथा सुन्दर वस्त्रों तथा आभूषणों से अलंकृत थी । उसकी भृकुटी टेढ़ी थी । उसकी आंखों से लाल-लाल अग्नि निकल रही थी । वह उस समय काल के समान प्रतीत होती थी । उसने देखते ही देखते उन सभी डाकुओं को काल के गाल में पहुंचा दिया ।

जब राजा की नींद टूटी तो उन डाकुओं को मरा हुआ देखकर सोचने लगा कि इन दस्यु को किसने मारा ? मेरा इस वन में कौन हितैषी रहता है ?

जब राजा वसुरथ ऐसा विचार कर रहा था, तभी आकाशवाणी हुई - "हे राजन् ! इस संसार में विष्णु भगवान्‌ के अतिरिक्‍त तेरी रक्षा कौन कर सकता है ! "

इस आकाशवाणी को सुनकर राजा ने विष्णु भगवान को प्रणाम किया, फिर अपने नगर को वापिस आ गया और सुखपूर्वक राज्य करने लगा ।

महर्षि वशिष्‍ठ बोले - ’हे राजन् ! यह सब आमलकी एकादशी के व्रत का प्रभाव था, जो मनुष्य एक भी आमलकी एकादशी का व्रत करता है, वह प्रत्येक कार्य में सफल होता है और अन्त में विष्णु धाम को जाता है ।

कथासार

भगवान् विष्णु की शक्‍ति हमारे सभी संकटों को काटती है । यह मनुष्य की ही नहीं, देवों की रक्षा में भी पूर्णतया समर्थ है । इसी शक्‍ति के बल से भगवान् विष्णु ने मधु-कैटभ नामक दैत्यों का संहार किया था । इसी शक्‍ति ने उत्पन्ना एकादशी बनकर मुर नामक दैत्य का वध करके देवों को सुखी किया था । केवल एक बार आमलकी एकादशी का व्रत करने वाले बहेलिये को जन्म-जन्मान्तर तक विष्णु भगवान की कृपा प्राप्‍त हो रही थी ।

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Last Updated : December 15, 2007

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