एकादशी व्रत परिचय, माहात्म्य और विधि-विधान
पौष : शुक्ल पक्ष
अर्जुन ने श्री कृष्ण के चरणों में प्रणाम कर श्रद्धापूर्वक विनती की - "हे सच्चिदानन्द भगवान् श्री कृष्ण ! अब आप पौष माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी के विषय में बताएं । इस एकाद्शी का क्या नाम है ? इसकी क्या विधि है और हे सखा ! इस दिन किस देवता की पूजा की जाती है । कृपा कर मेरे इन सभी प्रश्नों का विस्तार सहित उत्तर दें।"
इस पर श्रीकृष्ण बोले - "हे राजन् ! पौष मास की शुक्ल पक्ष की एकाद्शी का नाम पुत्रदा है । इसका पूजन पूर्व में बताई गई विधि अनुसार ही करना चाहिए । इस व्रत में नारायण भगवान् की पूजा करनी चाहिए । संसार में पुत्रदा एकाद्शी व्रत के समान अन्य दूसरा व्रत नहीं है । इसके पुण्य से मनुष्य तपस्वी, विद्वान और धनवान् होता है । इस संबंध में जो लोककथा प्रचलित है, वह मैं तुमसे कहता हूं, श्रद्धापूर्वक सुनो -
एक समय भद्रावती नगरी में सुकेतुमान नाम का एक राजा राज्य करता था । वह निःसन्तान था । उसकी पत्नी का नाम शैव्या था । वह सन्तानहीन होने के कारण सदैव चिन्तित रहती थी । उस पुत्रहीन राजा के मन में इस बात की बड़ी चिन्ता थी कि उसके बाद उसे और उसके पूर्वजों को कौन पिण्डदान देगा । उसके पितर भी रो-रोकर पिंड लेते थे कि इसके बाद हमें कौन पिंड देगा । इधर राजा को बन्धु-बांधव, मन्त्री, मित्र, राज्य, हाथी, घोड़ा आदि से भी संतोष नहीं होता था । उसका एकमात्र कारण पुत्रहीन होना था । बिना पुत्र पितरों और देवताओं से उऋण नहीं हो सकते । जिस घर में पुत्र न हो वहां सदैव अंधेरा ही रहता है । इस तरह राजा रात-दिन इसी चिंता में घुलता रहता था । इस चिन्ता के कारण एक दिन वह इतना व्यथित हो गया कि उसके मन में अपना शरीर त्याग देने की इच्छा उत्पन्न हो गई परन्तु वह सोचने लगा कि आत्महत्या करना तो महापाप है । अतः उसने इस विचार को मन से निकाल दिया । एक दिन इन्हीं विचारों में डूबा हुआ वह घोड़े पर सवार होकर वन को चल दिया ।
राजा घोड़े पर सवार होकर वन, पक्षियों और वृक्षों को देखने लगा । उसने वन में देखा कि मृग, बाघ, सूअर, सिंह, बन्दर, सर्प आदि भ्रमण कर रहे हैं । हाथी अपने बच्चों और हथिनियों के बीच में घूम रहा है । उस वन में राजा ने देखा कि कहीं तो सियार कर्कश शब्द कर रहे थे और कहीं मोर अपने परिवार के साथ खुशी से नाच रहे हैं । वन के दृश्यों को देखकर राजा और अधिक व्यथित हो गया कि वही पुत्रहीन क्यों है ? इसी सोच-विचार में उसे दोपहर हो गयी । अब राजा को भूख और प्यास लगने लगी । वह सोचने लगा कि मैंने अनेक यज्ञ किये हैं और ब्राह्मणों को मधुर भोजन कराया है परन्तु फिर भी मुझे यह दुःख क्यों मिल रहा है ? आखिर इसका कारण क्या है ? अपनी समस्या किससे कहूं ? कौन मेरी व्यथा को सुनने वाला है ?
यही सब सोचते-विचारते राजा को प्यास लगी । उसका कंठ सूखने लगा और पानी की तलाश में आगे बढ़ा । कुछ ही आगे जाने पर उसे एक सरोवर मिला । उस सरोवर में कमल खिल रहे थे । सारस, हंस, मगरमच्छ आदि जलक्रीड़ा कर रहे थे । सरोवर के चारों तरफ मुनियों के आश्रम बने थे । उस समय राजा के दाहिने अंग फड़कने लगे । इसे शुभ शगुन समझकर राजा मन में प्रसन्न होकर घोड़े से उतरा और सरोवर के किनारे बैठे हुए मुनियों को दंडवत् करके उनके सम्मुख बैठ गया ।
मुनीश्वर बोले - "हे राजन् ! हम तुमसे अत्यन्त प्रसन्न हैं, तुम्हारी क्या इच्छा है, सो कहो ।"
राजा ने उनसे पूछा - मुनीश्वरो ! आप कौन हैं ? और किसलिए यहां पधारे हैं ?
मुनि बोले - "राजन् ! आज पुत्र की इच्छा करने वाले को उत्तम सन्तान देने वाली पुत्रदा एकादशी है । हम लोग विश्वदेव हैं । आज से पांच दिन बाद माघ स्नान है और हम इस सरोवर पर स्नान करने आये हैं ।"
यह जानकर राजा बोला - "मुनीश्वर ! मेरे भी कोई पुत्र नहीं है, यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो कृपा कर मुझे एक पुत्र का वरदान दीजिए ।"
मुनि बोले - "हे राजन ! आज पुत्रदा एकादशी है । आप इसका व्रत करें । भगवान नारायण की कृपा से आपके घर अवश्य ही पुत्र होगा ।"
मुनि के वचनों के अनुसार राजा ने उस दिन व्रत किया और द्वादशी को व्रत का पारण किया और मुनियों को प्रणाम करके अपने महल को वापस आ गया । भगवान् श्री विष्णु की कृपा से कुछ दिनों बाद ही रानी ने गर्भ धारण किया और नौ माह के पश्चात् उसके उत्तम पुत्र उत्पन्न हुआ । वह राजकुमार बड़ा होने पर अत्यन्त वीर, धनवान, यशस्वी और प्रजापालक हुआ ।
श्रीकृष्ण भगवान् बोले - "हे अर्जुन ! पुत्र की प्राप्ति के लिए पुत्रदा एकादशी का व्रत करना चाहिए । पुत्र प्राप्ति के लिए इससे बढ़कर दूसरा कोई व्रत नहीं है । जो व्यक्ति पुत्रदा एकादशी के माहात्म्य को पढ़ता-सुनता तथा विधिपूर्वक इसका व्रत करता है, उसे सर्वगुण सम्पन्न पुत्ररत्न की प्राप्ति होती है । श्री नारायण की कृपा से वह प्राणी मोक्ष का अधिकारी होता है ।"
कथासार
पुत्र न होना बड़ा ही दुखपूर्ण है, उससे भी दुखपूर्ण है पुत्र का कुपुत्र होना, अतः सर्वगुण सम्पन्न और सुपुत्र पाना दुर्लभ है । ऐसा पुत्र उन्हें ही प्राप्त होता है जिन्हें साधुजनों का आशीर्वाद प्राप्त हो तथा जिनके मन में ईश्वर की भक्ति हो । इस कलियुग में सुयोग्य पुत्र प्राप्ति का उत्तम साधन पुत्रदा एकादशी का व्रत ही है ।