अथ ग्रहमैत्रीफलम् । दंपत्यो राशिपोमैंत्री मिथ : स्याच्छोभनं तदा । अहिते त्वहिंत विंद्यात्समे वै मध्यमं स्मृतम् ॥११६॥
अथ ग्रहमैत्रीगुणा : । तत्रैकाधिपतित्वे तु प्रोक्तं तु गुणपंचकम् । चत्वार : सममित्रत्वे द्वयो : साम्ये त्रयो गुणा : ॥११७॥
मित्रवैरे गुणश्वैक : समवैरे गुणार्द्धकम् । परस्परं खेटवैरे गुणशून्यं विनिर्दिशेत् ॥११८॥
अथगणकूट : । अश्विनीमृगरेवत्यार्हस्त : पुष्य : पुनर्वसु : । अनुराधाश्रुतिस्वात्य : कथितो देवतागण : ॥११९॥
तिस्त्र : पूर्वा ३ उत्तराश्व तिस्त्रोऽप्यार्द्रा च रोहिणी । भरणी च मनुष्याख्यो गणोऽसौ कथोतो बुधै : ॥१२०॥
कृत्तिका च मृगाश्लेषा विशाखा शततारका चित्रा ज्येष्ठा धनिष्ठा च मूलं रक्षोगण : स्मृत : ॥२१२॥
( ग्रहमैत्रीफल ) स्त्रीपुरुषके राशिस्वामीकी मित्रता हो तो दोनोंको शुभ होता है और शत्रु हो तो अशुभ फल , सम हो तो मध्यम फल ॥११६॥
( ग्रहमैत्रीके गुण ) यदि दोनोंकी राशिका एक ही पति हो तो पांच ५ गुण , तथा मित्र सम हो तो चार ४ गुण , दोनों सम हों तो तीन गुण जानने ॥११७॥
और मित्र वैरी हो तो एक गुण और सम वैरीमें अर्ध ( आधा ) गुण जानना और कन्या वरके राशिके स्वामीका बैर हो तो गुण नहीं होता है ॥११८॥
( गणविचार ) अश्वि , मृग . रे . ह . पुष्य . पुन . अनु . श्र . स्वा . यह नक्षत्र देवतागणके हैं ॥११९॥
पूर्वा ३ उत्त . ३ आ . रो . भ . यह मनुष्यगणके नक्षत्र हैं ॥१२०॥
कृ . म . आश्ले . विशा . शत . चि . ज्ये . ध . मू . यह नक्षत्र राक्षसगणके हैं ॥१२१॥
अथ गणफलम् । स्वगणे परमा प्रीतिर्मध्यमा देवमर्त्ययो : । मर्त्यराक्षसयोर्मृत्यु : कलहो देवरक्षसो : ॥१२२॥
अथ गणकूटे गुणा : । षडगणा गणसाद्दश्ये पंच स्यु : सुरमानुषे । नार्या देवी नर : पुंसश्वत्वारी वा गुणास्त्रय : ॥ देवराक्षसयी : शून्यं तथैव नररक्षसो : ॥१२३॥
अथ गणदोषापवाद : । मैत्र्यां राशीशयोरंशस्वामिनोर्वरकन्ययो : । न तत्र गणदोष : स्वाद्विवाह : शुभदो मत : ॥१२४॥
यदि रक्षोगणे कन्या वरश्वेन्नृगणो भवेत् । तदोद्वाहो गुणाधिक्ये कार्यस्त्वावश्यके सति ॥१२५॥
अथ राशिकूटकम् । मृत्यु : षट्काऽष्टके ६ । ८ ज्ञेयोऽपत्यहानिर्नवा ९ त्मजे ५ । द्विर्द्वादशे २ । १२ निर्धनत्वं द्वयोरन्यत्र १ । ३ । ४ । ७ । १० । ११ सौख्यकृत् ॥१२६॥
( गणफल ) कन्यावरका एक गण हो तो परम प्रीति हो और देवमनुष्यगण हो तो मध्यम प्रीति हो और मनुष्यराक्षस हो तो मृत्यु हो और देवराक्षस गण हो तो कलह हो ॥१२२॥
दोनोंका एक गण हो तो गुण ६ होवें और देवमनुष्यका ५ गुण और स्त्री देवता हो पुरुष मनुष्य हो तो तीन ३ गुण और देव राक्षस तथा मनुष्य राक्षस गणका गुण नहीं है ॥१२३॥
परन्तु कन्यावरके राशिके तथा नवांशकके स्वामी की मित्रता हो तो गणका दोष नहीं है ॥१२४॥
और यदि कन्या राक्षसगणकी हो और वर मनुष्यगणका हो तो गुण अधिक मिलनेसे तथा अति आवश्यकतामें ८ हो तो मृत्यु होवे और नवमी ९ पांचवीं ५ हो तो संतानरहित हो और दूसरी २बारहवीं २२ होवे तो दरिद्री हो और १ । ३ । ४ । ७ । १० । ११ हो तो शुभ जाननी ॥१२६॥
अथ दुष्टराशिकूटापवाद : । भवेत्त्रिकोणे बहुपुत्रवित्ता द्विर्द्वादशे चार्थमुपैति कन्या । षडष्टके सौख्यफलं विधत्ते स्त्रीणां विवाहो ग्रहमैत्रभावे ॥१२७॥
द्विर्द्वादशे वा नवपंचमे वा षटूकाष्ठके राक्षसयोषितौ वा । ऐकाधिपत्ये भवनेशमैत्रे शुभाय पाणिग्रहणं विधेयम् ॥१२८॥
अथ नाडीदोष : । ज्येष्ठा मूलाश्विनार्द्राख्यद्वयं शतभिषग्द्वराधा च धनिष्ठा भरणी मृग : ॥ पूर्वाषाढीत्तराभाद्रं पूषैषा मध्यनाडिका ॥१३०॥
रोहिणी कृत्तिकाऽश्लेषा मघा स्वातीद्वयं तथा । रेवती चोत्तराषाढा श्रवणश्वांत्यनाडिका ॥१३१॥
अथ नाडीफलम् । एकनाडीस्थनक्षत्रे दंपत्योर्मरणं ध्रुवम् । सेवायां च भवेद्धानिर्विवाहे त्वशुभं भवेत् ॥१३२॥
आदिनाडी पतिं इंति मध्यनाडी च कन्यकाम् । अंत्यनाडी द्वयं हंति नाडीवेधं विवर्जयेत् ॥१३३॥
( दुष्टराशिकृटका अपवाद ) परंतु दोनोंके राशिस्वामीकी मित्रता हो और बरकी राशिसे कन्याकी नौवीं ९ पांचवीं ५ राशि बहुत पुत्र धनके देनेवाली है और दूसरी २ , बारहवीं १२ हो तो धनवती हो तथा छ्ठी ६ , आठवीं ८ हो तो सुख होवे ॥१२७॥
और दूसरी २ बारहवीं १२ , नौवीं ९ , पांचवीं ५ , छठी ६ , आठवीं ८ राशि हो तथा स्त्रीका राक्षस गण हो तो भी राशिके स्वामी एक होनेसे और राशिके स्वामीकी मित्रता होनेसे विवाह शुभ होता है ॥१२८॥
( नाडीदोष ) ज्ये . मू . अश्वि . आ . पुन . श . पू . भा . उ . फा . ह . यह नक्षत्र आद्यनाडीके हैं ॥१२९॥
चि . पु . अनु . ध . भ . मृ . पूर्वा षा . उ . भा . पू . भा . यह मध्यनाडीके हैं ॥१३०॥
रो . कृ . आश्ले . म . स्वा . वि . रे . उत्तराषा . श्र . यह अंत्य नाडीके नक्षत्र हैं ॥१३१॥
( नाडीफल ) एक नाडीमें स्त्रीपुरुषके नक्षत्र होंवें तो मृत्यु हो और नौकर मालकके हानि हो तथा विवाहमें अशुभ हो ॥१३२॥
प्रथम नाडी पतिको मारे , मध्य नाडी कन्याको और अंतकी नाडी दोनोंको मारे इस वास्ते निषिद्ध है परन्तु एक नक्षत्रमें जन्मनेवालोंको दोष नहीं है ( उक्तं च - एकनक्षत्रजातानां नाडीदोषो न विद्यते । अन्यर्क्षनाडीवेधेषु विवाहो वर्जित : सदा ) ॥१३३॥
अथ नाडीप्राशस्त्यम्६ । नाडीकूटं तु संग्राह्यं कूटानां तु शिरोमणिम् । बह्नणा कन्याकाकण्ठे सूत्रत्वेन विनिर्मितम् ॥१३४॥
अथावश्यके नाडयादिदोषदानानि । हेमाज्यरत्नगोदानं मृत्युंजयजपं तथा । कुर्यादावश्यकोद्वाहे नाडीदोषापनुत्तये ॥१३५॥
ताम्रं द्विर्द्वादशे दद्यात्सुवर्णं च षडष्टके । गोयुगं नवपंचाख्ये स्वर्णं वर्णादिद्षणे ॥ हेमान्नं वसनं धेनुं सर्वदोषोपशांतये ॥१३६॥
अथ वर्गप्रीति ; । अवर्गो गरुडो ज्ञेयो बिडाल : स्यात्कवर्गक : । चवर्ग : सिंहनामा स्याट्टवर्ग : कुक्कुर : स्मृत : ॥१३७॥
सर्पाख्य : स्यात्तवर्गोऽपि पवर्गो मृषको मत : । यवर्गो मृगनामा स्यात्तथा मेष : शवर्गक : ॥१३८॥
यह नाडीविचार सम्पूर्ण गुणोंमें श्रेष्ठ है और ब्रह्माजीने कन्याके कंठमें सौभाग्यका यह सूत्र रचा है परन्तु विशेषकरके ब्राह्मणोंके अति ही शुभ है ( उक्तं च - नाडीदोषस्तु विप्राणां वर्णदोषश्व क्षत्रिये । गणदोषश्व वैश्येषु योनिदोषस्तु पादजे ) ॥१३४॥
( आवश्यक काममें नाडी आदि दोषोंका दान ) यदि नाडीका दोष हो तो सुवर्ण , घृत , रत्न , गौ इनका दान और महामृत्युंजयका जप करनेसे विवाहमें दोष नहीं है ॥१३५॥
दूसरी २ बारहवीं १२ राशिमें तांबेका दान और छठी ६ आठवीं ८ में सुवर्ण , नौंवी ९ पांचवीं ५ में गोदान और वर्ण आदि अशुभ हो तो सुवर्णदान तथा सम्पूर्ण दोषनिवारणके अर्थ सुवर्ण अन्न घेनु वस्त्र दान करे तो शुभ है ॥१३६॥
( वर्गप्रीति ) अइउए गरुड , कखगघङ बिलाव . चछजझञ सिंह , टठडढण श्वान , तथदधन सर्प , पफबभम मूषा , यरलव मृग , शषसह मेष ॥१३७॥१३८॥