अथ होमादौ वह्निवासफलम् । सैका १ तिथिर्वारयुता कृता ४ प्ता शेषे गुणे ३ऽभ्रे० भुवि वह्निवास : । सौख्याय होमे शशि १ युग्म २ शेषे प्राणार्थनाशो दिवि भूतले च ॥७९॥
अग्ने : स्थापनवेलायां पूर्णऽत्यामथा , पिवा । आहुतिवह्निवह्निवासश्व विलोक्यौ शांतिकर्मणि । सस्कारेषु विचारीऽस्य न कायों नापि वैष्णवे । नित्ये नैमित्तिके कार्ये न चाब्दे मुनिभि :स्मृत : ॥८०॥
अथ होमे खेटाहुतिफलम् । सूर्यभात्रि ३ त्रिभे चांद्रे सूर्यविच्छुक्रपंगव : । चन्द्रारेज्यागुशिखिनो नेष्टा होमाहुति : खले ॥८१॥
अथ दैवात् कृतस्य पापग्रहमुखे हवनस्य शांति : । क्रूरग्रहमुखे चैव संजाते हवने शुभे । शांतिं विधाय गां दद्याद् ब्राह्मणाय कुडुंबिने ॥८२॥
आयसीं प्रतिमां कृत्वा निक्षिपेत्तामधोमुखीम् । गोमूत्रमधुगंधाद्यैरार्चितां प्रतिमां तत : । कुंडे निधाय संपूज्य तत्र होमो विधीयते ॥८३॥
अथ दत्तकपुत्रपरिग्रहमुहूर्त्त : । हस्तादिपंचक ५ भिषग्वसुषुष्यभेषु सूर्यक्षमाजगरुभार्गववासरेषु । रिक्ता ४ । ९ । १४ विवर्जिततिथिष्वलि ८ कुंभ ११ लग्ने १ सिंहे ५ वृषे २ भवति दत्तपरिग्रहोऽयम् ॥८४॥
( होमे अग्निवासफ . ) शुक्लपक्षकी प्रतिपदासे लेके दिनकी तिथितक गिने फिर १ मिलावे और ( वारकी ) संख्या मिलावे और ४ का भाग देवे यदि ३ या शुन्य बचेतो पृथ्वीमें अग्निका वास जानना सो यह अग्निकावास होममें सुख करता है और यदि १ । २ बचें तो अग्नीका वास स्वर्ग पातालमें क्रमसे जानना यह अग्निवास होमेंम प्राण और धनका नाश करता है ॥७९॥
परन्तु यह अग्निवास विवाह आदि संस्कारोंमें तथा विष्णुके यज्ञमें और नित्यके अग्निहोत्रादिकमें , तथा मूलशांत्यादिक नैमित्तिक कर्ममें और जन्मदिन निमित्तक कायेमें नहीं देखना चाहिये ॥८०॥
( ग्रहोंके मुखमें आहुतिका फला ) सूर्यके नक्षत्रसे दिनके नक्षत्रतक गिने और तीन तीन नक्षत्र क्रमसे सूर्य बुध शुक्र राहु चन्द्र मंगल गुरु शनि केतुके मुखके हैं सो अशुभ ग्रहोंके मुखमें नक्षत्रोंमें आहुति अशुभ हैं ॥८१॥
( पापमुखकृत हवनशान्ति ) यदि क्रूर ग्रहके मुखमें आहुति दी जावे तो शांति करके ब्राह्मणोंके अर्थ गौ देनी चाहिये ॥८२॥
अथवा लोहेकी मूर्ति बनाके अधोमुखी कुण्डमें रखे फिर गोसूत्रसहित गन्धादिकोंसे पूजा करे फिर उसके ऊपर हवन करे तो दोष नहीं हैं ॥८३॥
( पुत्र खोलें ) ( दत्तक ) ( लेनेका मु . ) ह . चि . स्वा . वि . अनु . अवि . ध . पुष्य इन नक्षत्रोंमें और रवि मंगल गुरु शुक्र वारोंमें रिक्ता ४ । ९ । १४ विना अन्य तिथियोंमें और वृश्चिक ८ , कुंभ ११ , सिंह ५ , वृष २ लग्नमें पुत्र खोले लेना चाहिये ॥८४॥
अथौषधकरणं तत्सेवनं च । हस्तत्रयेऽनुराधायां मूले षुष्ये श्रवस्त्रये । मृगभे रेवतीयुग्मे पुनर्वस्वोर्विजन्मभे । ज्ञेंदुशुकेज्यसूर्याणां वासरे सत्तिथावपि ॥८५॥
द्विस्वभावे शुभे लग्ने शुद्ध द्यून ७ मृति ८ व्यये १२ । भैषज्यं शुभदं प्रोक्तं द्दष्टवा शकुनमुत्तमम् ॥९६॥
अथ रसोत्पादनं रससेवन च । विशाखाकृत्तिकामूले धनिष्ठायां करे मृगे । ज्येष्ठायामार्द्रभे सौम्यवासरेषु रसक्रिया ॥८७॥
हस्तत्रयेऽश्विनीषुष्येऽनुराधांत्ये श्रवस्त्रये । पुनर्भे मृगशीर्षेऽर्के भौमेज्ये रसभक्षणम् ॥८८॥
अथ वातरोगादौ तैलोपसेवनम् । हित्वाऽऽश्लेषामघामूलं द्वीशार्द्रा भरणीदयम् । मन्देऽब्जे ज्ञे स्थितिस्तैले तृतीयादित्रिके तिथौ ॥८९॥
अथ रक्तविमोक्षणं विरेकवमनं च । हस्तत्रयेऽश्विनीपुष्ये शतभे रोहिणीद्वये । श्रवणे चानुराधायां ज्येष्ठायां रक्तमोक्षणम् ॥९०॥
गुरुभौमार्कवारेषु कार्यं शुभतिथौ तथा । विरेको वमनं शुक्रे चन्द्रे चैवोक्तभादिषु ॥९१॥
( औषध लेनेका मु० ) ह . चि . स्वा . अनु . मू . षुष्य . श्र . ध . श . मृ . रे अश्वि . पुन . जन्मनक्षत्र विना इन नक्षत्रोंमें , बुध . सोम , शुक्र , गुरु , रविवारोंमें तथा शुभ तिथियोंमें और सप्तम , अष्टम ८ , द्वादश १२ स्थानोंमें ग्रहरहित द्विस्वभाव लग्नमें औषधी लेना श्रेष्ठ है परंतु शकुन उत्तम देखना चाहिये ॥८५॥८६॥
( रस बनाना , रससेवनमु . ) वि . कृ . मू . ध . ह . मृ . ज्ये . ज्ये . आ . इन नक्षत्रोंमें तथा शुभ बारोंमें रस बनाना शुभ है ॥८७॥
और ह . चि . स्वा . अश्वि . षुष्य . अनु . रे . श्र ध . श . पुन . मृ . इन नक्षत्रोंमें तथा मंगल गुरुवारोंमें रस भक्षण करना शुभ है ॥८८॥
( वातरोगादिमें तैलसेवन मु . ) आश्लेषा . मघा . विशाखा . आर्द्वा , भरणी , कृतिका इन नक्षत्रोंके विना अन्य नक्षत्रोमें और शनि , ( सोम , ) बुढवारमें तृतीया , चब्रुर्थी , पंचमी तिथियोंमें तेल सेवन श्रेष्ठ है ॥८९॥
( रक्तविमोक्षणमु . ) ह . चि . स्वा अश्वि . षुष्य . श . रो . मृ . श्र . अनु . ज्ये . इन नक्षत्रोंमें और गुरु . भौम रविवारमें तथा शुभतिथियोंमें रक्तमोचन ( खून काढूना ) और पूर्वोक्त नक्षत्रोंमें शुक्र सोमवारमें जुलाब , वमन करना श्रेष्ठ है ॥९०॥९१॥
अथ तप्तलोहदाह : । शतचित्राश्विनीमूले विशाखाकृत्तिकाद्रभे । ज्येष्ठाऽऽश्लेषे कुजेऽर्केंगं कूरलोहाग्निभैषजम् ॥९२॥
अथ रोगोत्पत्तौ नक्षत्रवशात्पीडादिनसंख्या । अश्विनीकृत्तिकामूले ज्यरार्त्तो नव वसरा : । रोहिण्यामुत्तराभाद्रे पुनर्वसौ च पुष्यभे ॥९३॥
उफायां वासरा : सप्त मधायां विंशतिस्तथा । शतभे भरणी चित्राश्रवे चैकादश स्मृता : ॥९४॥
धनिष्ठायां विशाखायां हस्तभे पक्ष एव च । मासं मृगोत्तराषाढे कृच्छ्रादंत्यानुराधयो : ॥९५॥
पूर्वात्रये तथाऽऽश्लेषाज्येष्ठार्द्रास्वातिभेष्वपि । रोगीत्पत्तिभवेद्यस्य मरणं तस्य निश्वितम् ॥९६॥
( तप्तलोहदाहसु , श . चि . अश्वि . मू . वि . कृ . आ . ज्ये . आश्ले . इन नक्षत्रोंमें मंगल सूर्य और शनि वारोंमें लोहका दाग लगाना शुभ है ॥९२॥
रागेकी उत्पत्तिमें नक्षत्रोंके पीडाके दिन अश्विनी , कृत्तिका . मूलमें ज्वर चढे तो नौ ९ दिन रहे और रो . उ . भा . पुन . पुष्य . उ . फा . इनमें सात दिन ७ , मघामें २० दिन , शत . भ . चि . श्र . में . ११ दिन . ध . वि . ह . में १५ दिन , मृ . उ . षा . में १ मास तक और रे . अनु . में . बहुत दु :खसे ज्वर दूर हो जाता है ॥९३॥९४॥९५॥
पू . ३ आश्ले . ज्ये . आ . स्वा . इन नक्षत्रोंमें ज्वर चढा हो तो मृत्युकारक है ॥९६॥
अथ ज्वरोत्पत्तावनिष्टयोग : । आश्लेषाभग्णीमूलेस्वातीपूर्वाद्रभे तथा शतभे पापवारे च प्रतिपद्दादशीदिने ॥९७॥
चतुर्दश्यां तथाऽष्टम्यां पूर्णिमायां ज्वरोदय : । स नरो मृत्युमाप्नोति स्ववैंद्येनापि रक्षित : ॥९८॥
अथ रोगशांतिप्रकार : रोगशांतिं प्रवक्ष्यामि रोगार्त्तानां शरीरिणाम् । बलि पूजांगहोमैश्व जपब्राह्मण भोजनै : ॥९९॥
यस्मिन् धिष्ण्ये यदा नृणां रोग : संजायते तदा । तद्धिष्ण्यपूजा कर्त्तव्या तदीश्वरसुतुष्टये ॥१००॥
अथ रोगनिर्मुक्तस्नानम् । मघापुनर्वसुस्वातीरोहिणीषूत्तरात्रये । आश्लेषायां च रेवत्यां भा्र्गवे चंद्रवासरे ॥१०१॥
न स्नायाद्रोगनिर्मुक्त : शुभे चन्द्रे तथैव च । रिक्तायां निशि भौमार्कवासरे चरलग्नके ॥१०२॥
दुष्टचन्द्रे तथा विष्टयां ताताद्यैर्दूषितेऽहनि । रोगमुक्तो नर : स्नायाद्दानं कुर्यादनन्तरम् ॥१०३॥
( ज्वरमें अनिष्टयोग ) आश्ले . भ . मू . स्वा . पू . ३ आ . श . इन नक्षत्रोंमें तथा पापवारमें और १ । १२ । १४ । ८ । १५ इन तिथियोंमें ज्वर चढे तो रोगीकी मृत्यु होनी चाहिये यदि अश्विनीकुमार भी रक्षा करे तो भी ॥९७॥९८॥
( रोगशांति ) रोगियोंके रोगोंकी शांति लिखते हैं - वलि , पूजा . होम , जप . ब्राह्मणभोजन इत्यादि कमोंके करनेसे रोग दूर होता है ॥९९॥
और जिस नक्षत्रमें ज्वर हो उसी नक्षत्रके स्वामीकी पूजा करे तो रोगशांति होवे ॥१००॥
( रोगविमुक्तस्नानमु . ) म . पुन . स्वा . रो . उ . ३ आश्ले . रे . इन नक्षत्रोमें और शुक्र सोम वारोंमें तथा श्रेष्ठचंद्रमामें स्नान नहीं करे अर्थात् रिक्त ४ । ९ । १४ तिथि , रात्रि , मंगल आदित्यवार . चर लग्न . अशुभ चन्द्रमा , भद्रा . व्यतीपात आदि निषिद्ध दिनमें रोगीको स्नान करना योग्य है ॥१०१॥१०२॥१०३॥
अथ सर्पदंशेऽनिष्टम् । विशाखाकृत्तिकामूले रेवत्यार्द्रामधासु च । ऋक्षेऽश्लेषाभिधाने च सर्पदष्टो न जीवति ॥१०४॥
अथ सेतुबंधनम् । त्र्युत्तरे रोहिणीस्वातीमृगेऽकें मंगले गुरौ । सेतूनां बंधनं शस्तं शुभे लग्ने शुभेक्षिते १०५ अथ वत्सवासचक्रम् । भ्रमत्यैंद्रीदिशंवत्सो मासानां च त्रिकं त्रिकम् । आदौ भाद्रपदं कृत्वा सव्यतो दिक्चतुष्टयम् ॥१०६॥
यात्रां विवाहं संबधं द्वारं च गृहहर्म्ययो : । भूपतेर्मिलनं युद्धं वत्सस्याभिमुखं त्यजेत् ॥१०७॥
अथ ग्रामवासफलम् । ग्रामो यत्र भवेद्दक्षे तदाद्या : सप्त ७ मस्तके । पृष्ठे सप्त ७ हदि सप्त ७ पदि सप्त ७ च तारका : ॥१०८॥
मस्तके च धनी मान्य : पृष्ठे हीनश्व निर्धन : । ह्रदये सुखसंपत्ति : पादे पर्यटनं फलम् ॥१०९॥