अथ शुक्रास्तादिनिषिद्धकाले त्याज्यकर्माणि ॥ वापीकूपतडागयज्ञगमनं क्षौरं प्रतिष्ठाव्रतं विद्यामंदिरकर्णवेधनमहादानं गुरो: सेवनम् । तीर्थस्नानविवाहकाम्यहवनं मन्त्रोपदेशं शुभं दुरेणैव जिजीविषु; परिहरेदस्ते गुरौ भार्गवे ॥१३॥
अथ विशेष: ॥ जलाशयगृहारामप्रतिष्ठारंभेण तथा । व्रतारम्भसमाप्ती च दीक्षां सोमाऽध्वरादिकम् ॥१४॥
महादानमुपाकर्माग्रयणारम्भमष्टकम् । केशांतं वृषभीत्सर्गं देवतास्थापनं प्रपा ॥१५॥
व्रतबन्धमथोद्वाहं मुण्डनं कर्णवेधनम् । गर्भाधानादिसंस्कारान्कालातिक्रमणे शिशो: ॥१६॥
देवतीर्थे क्षण चाद्यं भूमिपालाभिषेचनम् । अग्न्याधानं च संन्यासं चातुर्मास्यमथो गमम् ॥१७॥
वेदब्रतं व्रतोत्सर्गमाद्यं वध्वा: प्रवेशनम् । अस्ते शुक्रेज्ययोर्बाल्ये वार्द्धके सिंहगे गुरौ ॥१८॥
त्रयोदशदिने पक्षे मासे न्य़ूनेऽधिके त्यजेत् । धार्यं नेति जगु: केचिदस्तादौ भूषणादिकम् ॥१९॥
केचिद्वक्रेऽतिचारेऽपि नीचराशिगते गुरौ । धनुर्मीनगते सूर्यें गुरुणा संयुतेऽपि च ॥२०॥
( शुक्रादिकोके अस्तसमयमें त्याज्य कर्म ) बावडी, कुवा, तालाव आदिका आरंभ, यज्ञ, यात्रा, प्रथम क्षौरकर्म, देवालय, तालाव आदिकी प्रतिष्ठा, यज्ञोपवीत, प्रथम विद्यारंभ, गृहारंभ, गृहप्रवेश, कर्णवेंध, तुलादान, गुरुसेवारंभ, तीथंस्नान, विवाह, काम्यहोम, मंत्रोपदेश इत्यादि शुभकार्य शुक्र और बृहस्पतिके अस्तमें नहीं करना चाहिये ॥१३॥
( ग्रंथांतरमें विशेष ) जलाशय, घर, बगीचा आदिका आरंभ तथा प्रतिष्ठा, यज्ञोपवीत, दीक्षा, सोमयज्ञ, तुलादान, उपाकर्म, आग्रयणारंभ, अष्टकाश्राद्ध, केशांतकर्म, काम्यवृषोत्सर्ग, देवस्थापन, प्रपा, विवाह, चौलकर्म, कर्णवेध गर्भाधानादि संस्कार, देव, या तीर्थदर्शन, राज्याभिषेक, अग्न्याधान, सन्यास, चातुर्मास्ययाग, देवद्रत, उद्यापन, वधूप्रवेश, यात्रा इत्यादि कर्म शुक्रके तथा गुरुके अस्तमें और बालक तथा वृद्धपनेमें और सिंहके वृहस्पतिमें और तेरा १३ दिनके पक्षमें तथा क्षय, अधिकमासमें नहीं करना चाहिये । और कई आचार्योंका ऐसा भी मत है कि आभूषण, चूढा, आदिका धारण भी नहीं करता योग्य है और केचित् का यह भी मत है कि गुरु वक्री हो अर्थात अपनी राशिसे पीछेकी राशिपर पीछा चला जावे अथवा अतिशीघ्रतासे दूसरी राशिमें जानेको होवे तब भी और धन मीनके सूर्य्में तथा गुरुके साथ सूर्य होवे तो भी शुभकार्य नहीं करना ॥१४॥२०॥
अथगुरुशुक्रयोर्बाल्यवार्धक्यम् । बाले वृद्धे च संध्यंशे चतु४ष्पंच ५ त्रि ३ वासरान् । जीवे च भार्गवे चैव विवाहादिषु वर्जयेत् ॥२१॥
अथ गुरोर्वक्रातिचारे विशेष: । वक्रातिचारगे जीवे त्वष्टाविंशति २८ वासरान् । परित्यज्य तत: कुर्याह्नतोद्वाहादिकं शुभम् ॥२२॥
अथ वक्रातिचारदोषापवाद: । त्रिकोण ९ । ५ द्वायाय २ । ११ संस्थे तु जीवे वक्रातिचारगे । न दोषस्तत्र विज्ञेय: कुर्यादुद्वाहनादिकम् ॥२३॥
अथ सिंहस्थगुरोदोंष: । सिंहसिंहांशगे जीवे विवाहादि न कारयेत् । गोदाया उत्तरे भागे भागीरथ्याश्च दक्षिणे ॥२४॥
( गुरुशुक्रकी बाल वृद्ध अवस्था ) गुरु शुक्रके बालकपनेके चार ४ दिन हैं, और वृद्धपनेके पांच ५ दिन जानना, और संधिके ३ दिन हैं । सो विवाह आदि शुभ कार्योंमें त्याज्य हैं । और केचित् आचार्य ऐसे भी कहते हैं कि अस्तके पहले सात ७ दिन वृद्धसंज्ञाके हैं और उदयके अनन्तर सात ७ दिन बालकसंज्ञाके हैं परंतु अति आवश्यकतामें तीन ३ दिन भी वर्ज्य हैं ॥२१॥
( गुरुके वक्रातिचारमें विशेष ) और गुरु वक्र हो या अतिचार हो तो अठ्ठाईस दिन त्यागके यज्ञोपवीत, विवाह आदि करना शुभ है ॥२२॥
परंतु जन्मराशिसे गुरु त्रिकोण ९।५ में या २।१ १ में हो तो वक्र अतिचारका दोष नहीं है जरूर विवाह आदि शुभकार्य करो ॥२३॥
( सिंहके गुरुका देष ) सिंहराशिमें तथा सिंहके नवांशकमें गुरु हो तो विवाहादि नहीं करना परंतु गोदावरी नदीके उत्तर भागमें और भागीरथी ) गंगा ) के दक्षिण भागमें त्याज्या है ॥२४॥