चित्रकूट में रमि रहे, रहिमन अवध नरेस ।
जापर विपदा पड़त है, सो आवत यहि देस ॥५१॥
छोटेन सों सोहैं बड़े, कहि रहीम यह लेख ।
सहसन को हय बांधियत, लै दमरी की मेख ॥५२॥
चरन छुए मस्तक छुए, तेहु नहिं छांड़ति पानि ।
हियो छुवत प्रभु छोड़ि दै, कहु रहीम का जानि ॥५३॥
चारा प्यारा जगत में, छाल हित कर लेइ ।
ज्यों रहीम आटा लगे, त्यों मृदंग सुर देह ॥५४॥
छमा बड़ेन को चाहिए, छोटेन को उत्पात ।
का रहीम हरि जो घट्यो, जो भृगु मारी लात ॥५५॥
जलहिं मिलाइ रहीम ज्यों, कियों आपु सग छीर ।
अगवहिं आपुहि आप त्यों, सकल आंच की भीर ॥५६॥
जब लगि जीवन जगत में, सुख-दु:ख मिलन अगोट ।
रहिमन फूटे गोट ज्यों, परत दुहुन सिर चोट ॥५७॥
जहां गांठ तहं रस नहीं, यह रहीम जग जोय ।
मंडप तर की गांठ में, गांठ गांठ रस होय ॥५८॥
जब लगि विपुने न आपनु, तब लगि मित्त न कोय ।
रहिमन अंबुज अंबु बिन, रवि ताकर रिपु होय ॥५९॥
जाल परे जल जात बहि, तजि मीनन को मोह ।
रहिमन मछरी नीर को, तऊ न छांड़ति छोह ॥६०॥
जे अनुचितकारी तिन्हे, लगे अंक परिनाम ।
लखे उरज उर बेधिए, क्यों न होहि मुख स्याम ॥६१॥
जे गरीब सों हित करै, धनि रहीम वे लोग ।
कहा सुदामा बापुरो, कृष्ण मिताई जोग ॥६२॥
जेहि रहीम तन मन लियो, कियो हिय बिचमौन ।
तासों सुख-दुख कहन की, रही बात अब कौन ॥६३॥
जेहि अंचल दीपक दुरयो, हन्यो सो ताही गात ।
रहिमन असमय के परे, मित्र शत्रु है जात ॥६४॥
जे रहीम विधि बड़ किए, को कहि दूषन काढ़ि ।
चन्द्र दूबरो कूबरो, तऊ नखत ते बाढ़ि ॥६५॥
जैसी परै सो सहि रहै, कहि रहीम यह देह ।
धरती ही पर परत हैं, सीत घाम और मेह ॥६६॥
जो पुरुषारथ ते कहूं, संपति मिलत रहीम ।
पेट लागि बैराट घर, तपत रसोई भीम ॥६७॥
जे सुलगे ते बुझि गए, बुझे तो सुलगे नाहिं ।
रहिमन दाहे प्रेम के, बुझि बुझि के सुलगाहिं ॥६८॥
जो घर ही में घुसि रहै, कदली सुपत सुडील ।
तो रहीम तिन ते भले, पथ के अपत करील ॥६९॥
जो बड़ेन को लघु कहे, नहिं रहीम घटि जांहि ।
गिरिधर मुरलीधर कहे, कछु दुख मानत नांहि ॥७०॥
जो रहीम करिबो हुतो, ब्रज को यही हवाल ।
तो काहे कर पर धरयो, गोबर्धन गोपाल ॥७१॥
जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग ।
चन्दन विष व्यापत नहीं, लपटे रहत भुजंग ॥७२॥
जो रहीम ओछो बढ़ै, तौ ही इतराय ।
प्यादे सों फरजी भयो, टेढ़ो टेढ़ो जाय ॥७३॥
जो मरजाद चली सदा, सोइ तो ठहराय ।
जो जल उमगें पार तें, सो रहीम बहि जाय ॥७४॥
जो रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय ।
बारे उजियारे लगै, बढ़े अंधेरो होय ॥७५॥
जो रहीम दीपक दसा, तिय राखत पट ओट ।
समय परे ते होत है, वाही पट की चोट ॥७६॥
जो रहीम भावी कतहुं, होति आपने हाथ ।
राम न जाते हरिन संग, सीय न रावण साथ ॥७७॥
जो रहीम मन हाथ है, तो मन कहुं किन जाहि ।
ज्यों जल में छाया परे, काया भीजत नाहिं ॥७८॥
जो रहीम होती कहूं, प्रभु गति अपने हाथ ।
तो काधों केहि मानतो, आप बढ़ाई साथ ॥७९॥
जो रहीम पगतर परो, रगरि नाक अरु सीस ।
निठुरा आगे रोयबो, आंसु गारिबो खीस ॥८०॥
जो विषया संतन तजो, मूढ़ ताहि लपटात ।
ज्यों नर डारत वमन कर, स्वान स्वाद सो खात ॥८१॥
टूटे सुजन मनाइए, जो टूटे सौ बार ।
रहिमन फिरि फिरि पोहिए, टूटे मुक्ताहार ॥८२॥
जो रहीम रहिबो चहो, कहौ वही को ताउ ।
जो नृप वासर निशि कहे, तो कचपची दिखाउ ॥८३॥
ज्यों नाचत कठपूतरी, करम नचावत गात ।
अपने हाथ रहीम ज्यों, नहीं आपने हाथ ॥८४॥
तरुवर फल नहीं खात है, सरवर पियत न पान ।
कहि रहीम परकाज हित, संपति-सचहिं सुजान ॥८५॥
तैं रहीम मन आपनो, कीन्हो चारु चकोर ।
निसि वासर लाग्यो रहै, कृष्ण्चन्द्र की ओर ॥८६॥
तन रहीम है करम बस, मन राखौ वहि ओर ।
जल में उलटी नाव ज्यों, खैंचत गुन के जोर ॥८७॥
तै रहीम अब कौन है, एती खैंचत बाय ।
खस काजद को पूतरा, नमी मांहि खुल जाय ॥८८॥
तबहीं लो जीबो भलो, दीबो होय न धीम ।
जग में रहिबो कुचित गति, उचित न होय रहीम ॥८९॥
तासो ही कछु पाइए, कीजे जाकी आस ।
रीते सरवर पर गए, कैसे बुझे पियास ॥९०॥
दादुर, मोर, किसान मन, लग्यौ रहै धन मांहि ।
पै रहीम चाकत रटनि, सरवर को कोउ नाहि ॥९१॥
थोथे बादर क्वार के, ज्यों रहीम घहरात ।
धनी पुरुष निर्धन भए, करे पाछिली बात ॥९२॥
दिव्य दीनता के रसहिं, का जाने जग अन्धु ।
भली विचारी दीनता, दीनबन्धु से बन्धु ॥९३॥
दीन सबन को लखत है, दीनहिं लखै न कोय ।
जो रहीम दीनहिं लखत, दीबन्धु सम होय ॥९४॥
दुरदिन परे रहीम कहि, भूलत सब पहिचानि ।
सोच नहीं वित हानि को, जो न होय हित हानि ॥९५॥
दीरघ दोहा अरथ के, आरवर थोरे आहिं ।
ज्यों रहीम नट कुंडली, सिमिटि कूदि चढ़ि जाहि ॥९६॥
दुरदिन परे रहीम कहि, दुश्थल जैयत भागि ।
ठाढ़े हूजत घूर पर, जब घर लागति आगि ॥९७॥
दु:ख नर सुनि हांसि करैं, धरत रहीम न धीर ।
कही सुनै सुनि सुनि करै, ऐसे वे रघुबीर ॥९८॥
धनि रहीम जलपंक को, लघु जिय पियत अघाय ।
उदधि बड़ाई कौन है, जगत पिआसो जाय ॥९९॥
धन थोरो इज्जत बड़ी, कह रहीम का बात ।
जैसे कुल की कुलवधु, चिथड़न माहि समात ॥१००॥