स्वर्गचक्र का निरुपण --- दक्षिण के द्वितीय पत्र में अत्यन्त प्रकाशित वान्त ( लं ) बीज है योगीन्द्रों को अपने योग रुप प्रयोजन की सिद्धि के लिए उसी में मन लगाकर ध्यान करना चाहिए ।
विमर्श --- वान्त का अर्थ २१ . ४२ में बहुब्रीहि समास करके ल किया गया है ॥५७॥
वहीं स्वर्ग की शोभा से संयुक्त स्वर्ग चक्र का ध्यान करना चाहिए । उस चक्र का ध्यान करने से साधक इस पृथ्वी पर ही स्वर्ग का स्वामी बन जाता है ॥५८॥
पञ्चकोण का भेदन करने के बाद भी एक पञ्चकोण शोभित होता दिखाई पड़्ता है । उस दृश्यमान् पञ्चकोण के मध्य में दो वृत्त हैं । उन दोनों वृतों में रहने वाले षट्कोण का ध्यान करना चाहिए । यही स्वर्ग नामक चक्र है । इसके दक्षिण उत्तर वाले पत्र के मध्य में दो भूपुर हैं उसमें ’ व ’ बीज एवं ईश्वर स्थित हैं , उनका ध्यान करे ॥५९ - ६०॥
करोड़ों विद्युत् के समान प्रभा वाले षट्कोणान्तर्गत उस वान्त बीज का आश्रय लेकर ही उसके दशकोणों में सभी देवताओं का निवास है । उस वकार रुप बीज के पूर्वकोण में सभी देवताओं से संयुक्त इन्द्राणी सहित इन्द्र का ध्यान करने से साधक निश्चित रुप से योगीन्द्र हो जाता है । उसके दक्षिण रक्त वर्ण वाले कोण में करोड़ों कालानल के समान चञ्चल परिवार समन्वित स्वाहा युक्त अग्निदेव का ध्यान करना चाहिए ॥६१ - ६३॥
उसके भी दक्षिण शक्ति संयुक्त कालरुपधारी स्वयं प्रभु ( शिव ) विराजमान हैं । परिवार सहित उन ( शिव एवं शक्ति ) का ध्यान करने से साधक उस मृत्यु को अपने वश में कर लेता है । उसके बाद कन्दर्प का दमन करने वाले विद्युत् के समान देदीप्यमान् नैऋत्य हैं । शक्ति युक्त स्वरानन्द उना नैऋत्य का ध्यान करने से साधक समस्त योगिनियों का पति हो जाता है ॥६४ - ६५॥
उसके नीचे सुन्दर शक्ति से लालित , जलों के अधिपति सत्त्व स्वरुप वरुण का ध्यान कर नित्य सत्त्व युक्त श्री से सम्पन्न हो जाता है । उसके बायें वायुकोण है जहाँ मरुद् गणों को विभावित करने वाला सबके लय का स्थान है वह वायु का स्थान है । वहाँ ( वायु ) का ध्यान करने से सुधी साधक वायु से व्याप्त हो जाता है । उसके पश्चात् मदमत्त शक्ति समन्वित एवं अपने परिवार गणों से आनन्द पूर्वक रहने वाले गणनाथ गणेश का ध्यान कर साधक गणेश्वर हो जाता है ॥६६ - ६८॥
उसके बाद एक और उत्कृष्ट स्थान है , जहाँ शक्ति एवं परिवार गणों से युक्त सदाशिव का ध्यान कर यति इच्छानुसार रुप धारण करने वाला बन जाता है । उसके बाद कोने वाले गृह में चन्द्रमा सूर्य एवं अग्नि के समान तेजस्वी एकाकार में रहने वाले ऊपर की ओर स्थित ब्रह्मदेव का ध्यान करना चाहिए । इन्द्र के बायें कोने वाले गृह में अनन्त सदृश अग्नि का रुप धारण करने वाले अनन्त का ध्यान कर साधक अनन्त के सदृश हो जाता है ॥६९ - ७१॥
इस स्वर्ग चक्र के मध्य में आठ महाप्रभा वाले दो वृत्त हैं , वह सर्वदा अग्नि से व्याप्त रहता है । अतः वहाँ जलती हुई अग्नि का ध्यान करना चाहिए । उन दोनों वृत्त के मध्य में षट्कोण हैं । जिसके प्रत्येक कोणो में लोभ मोहादि छः शत्रुगणों का गृह है । दशकोण स्थित देवताओं का ध्यान षट्कोण संस्थित लोभ - मोहादि शत्रुओं को विनष्ट कर देता है ॥७२ - ७३॥
इन्द्राग्नी योगियों के लोभ का हरण करते हैं , यमराज मोह का हरण करते हैं , नैऋत्य और वरुण काम का तथा वायु क्रोध का विनाश करते हैं । मात्रा तीन महीने ध्यान करने से ईश्वर मद का तथा ब्रह्मा और अनन्त योगियों का मात्सर्य हरण करते हैं । इस षट्कोण के मध्य में चन्द्रमा के समान प्रकाश वाले , स्वर्ण्निर्मित अलङ्कारों से विभूषित वान्त बीज का ध्यान योगसिद्धि के लिए करना चाहिए ॥७४ - ७६॥
ये चक्र कुण्डलिनी से सदैव व्याप्त रहने वाले हैं और उसी से उसी प्रकार पालित तथा मण्डित भी हैं जिस प्रकार तेल में दीप - पुञ्ज भासित होता है , इसका ध्यान करने से सुधी साधक योगिराज बन जाता है । वहीं स्वयंभू लिङ्र है । जितेन्द्रिय एवं मन्त्रज्ञ साधक कुण्डली सहित उस स्वयंभू लिङ्ग को चन्द्रमण्डल से आप्लावित कर उसका ध्यान करे ॥७७ - ७८॥
इस क्रम से तथा कुण्डली को बारम्बार संकुचित करने से साधक क्रमशः सिद्ध हो जाता है । इसके बाद सदाभ्यास में निरत महायोगी वायवी शक्ति का संस्थापन करे । वायवी शक्ति के अभ्यास से युक्त होने के कारण तथा इस चक्र के आश्रय करने के कारण गूँगा भी वाक्पति बन जाता है और दिन प्रतिदिन फल का भागी होता रहता है ॥७९ - ८०॥