बीसवाँ पटल - सिद्धमंत्रस्वरूपकथन

रूद्रयामल तन्त्रशास्त्र मे आद्य ग्रथ माना जाता है । कुण्डलिणी की सात्त्विक और धार्मिक उपासनाविधि रूद्रयामलतन्त्र नामक ग्रंथमे वर्णित है , जो साधक को दिव्य ज्ञान प्रदान करती है ।


आनन्दभैरवी उवाच

आनन्द भैरवी ने कहा --- हे महादेव ! अब इसके अनन्तर सिद्धमन्त्र पर विचार कहती , हूँ , जिनका जप तथा ध्यान करने से मनुष्य सङ्कट से छुटकारा पा जाता है ॥१॥

फल चक्र में सभी मन्त्रों का समावेश है जो सब मन्त्रों का सार एवं अत्यन्त सूक्ष्म है वायवी शक्ति सेवन रुप क्रिया योग से उनकी सिद्धि होती है ॥२॥

हे प्रभो ! त्रिकोण में स्थित वहिनबीज ( रं ) तथा उसके बाहर रहने वाले षट्‍कोण में छः मन्त्रों का ध्यान कर साधक छः महीने में रुद्रस्वरुप हो जाते हैं ॥३॥

उसके बाहर रहने वाले अष्टकोण में स्थित रहने वाले वर्णों को पण्डित साधक अङक भेद से लिखे । अङ्क संख्या के क्रम से उन - उन संख्या वाले वर्णों का ध्यान करे तो साधक खेचर हो जाता है । प्रथमा कहे गए त्रिकोण में तथा षट्‍कोण में स्थित उन - उन वर्णों का ध्यान ( द्र० २० . ३ ) न करे ॥४ - ५॥

आज्ञाचक्र के मध्य में अत्यन्त मनोरम कामचक्र है । उस कामचक्र के मध्य देश में महासूक्ष्म फल का उदय करने वाला प्रश्नचक्र है , जिसमें षट्‍चक्र के फलों का साधन करने वाले षट् पदार्थ हैं । उसी प्रश्नचक्र में फल चक्र है जो योग के आठों अङ्रो के फलों को देने वाला है ॥६ - ७॥

फलचक्रा के ऊर्ध्व भाग में वर्णमाला के क्रम से स्थापित कर उन वर्णों का मौन हो कर जप करने से समस्त फलों के सार की प्राप्ति होती है । फलचक्र की कृपा होने पर साधक की मति तत्त्वचिन्ता में निमग्न हो जाती है । जिससे साधक दोनों भ्रुमध्य के कुहर में स्थित हो कर ईश्वर का ध्यान करने लग जाता है ॥८ - ९॥

मूर्ख भी भावना करने से भावज्ञानी हो जाता है । हे शङ्रकर ! अब सर्व प्रथम वर्णभेद से उनका सूक्ष्म फल कहती हूँ ॥१०॥

तीनों जगत् की रक्षा करने वाले अग्निदेव तीनों जगत् के विनाश के लिए भी भासमान रहते हैं । वही सभी प्राणियों के जीवन को धारण करते हैं तथा चराचर जगत् में रहने वाली समस्त वस्तुओं को जला भी देते हैं । इतना ही नहीं श्रीकालिका के विग्रहवान् स्वरुप हैं , इस प्रकार जिनका ध्यान करने से साधक तुरन्त श्रेष्ठ शिव - ज्ञानी हो जाता है ॥११॥

वहिन बीज ( रं ) सूक्ष्म फल वाला है तथा साक्षात् प्रत्यक्ष प्रमाण में कारण है । किन्यु उक्त ( द्र० २० . ३ ) त्रिकोणस्थ वहिन बीज ( रं ) ब्रह्मविद्या का प्रकाशक है । अकस्मात् सिद्धि देने वाले उस वहिनबीज का जो भजन करता है वह सुखी हो जाता है ॥१२ - १३॥

हे आनन्दभैरव ! अब षट‍कोणों में रहने वाले ( द्र० २१ . ३ ) उन - उन वर्णों को सुनिए । जिनको जान लेने से सभी देवता दिशाओं के तथा विदिशाओं ( कोणों ) के प्रपालक बन गए । सङ्केत शुद्धि से युक्त उन वर्णों के भेद अत्यन्त रमणीय अर्थ वाले हैं ॥१३ - १४॥

वहिनबीज के ऊपरी भाग में सर्वश्रेष्ठ चन्द्र बीज है , उस चन्द्र बीज का जो मन्त्रज्ञ साधक ध्यान करता है , वह सिद्ध हो जाता है , इसमें संशय नहीं ॥१५॥

चन्द्रमा का बीज सूक्ष्म है , स्वच्छ कमल के समान विमल है , उसकी किरणें अत्यन्त कमनीय हैं । वह जोवों का स्थान है प्रलयकारी एवं वायु के द्वारा जटित है । उसके वाम भाग में सूर्यं है जो सम्पूर्ण विपरीत फलों का विध्वंसक है । सुजन लोग ऐसे महावहिनस्थान का भावना की विधि से भजन करते हैं ॥१६॥

उसके नीचे कोण वाले गृह में पञ्चम स्वर से युक्त श्रीबीज ( श्री ) है जो भाव कल्पलता का सार है एवं अकारादि कुलाक्षरों से युक्त है । उसके नीचे चौंवन पर्यन्त अङ्को से युक्त वायु बीज है । नराधिप उसका ध्यान कर वायवी सिद्धि प्राप्त कर लेता है ।

हे नाथ ! उसके दक्षिण में भवानी बीज मण्डल है , जो उसी का अङ्र है और वह दो स्वरों से समाक्रान्त है । उस भवानी बीज मण्डल का ध्यान करने से साधक योगिराज बन जाता है ॥१७ - १९॥

उसके भी दक्षिण ऊर्ध्वकोण में सर्वश्रेष्ठ सोमबीज है , साधक जन उसका ध्यान करने से जगदीश का दर्शन प्राप्त कर लेते हैं । उसके भी ऊपर परमात्मा का बीज ( ॐ ?) है , जो साक्षात् फल देने वाला है , मात्र एक मास तक परमात्मा बीज की भावना से साधक की गति देवलोक तक हो जाती है । उसके भी ऊपर वाले कोण गृह में अदभुत रुक्मिणी बीज है । उसके साधे साधन से सिद्धि तो प्राप्त होती ही है , साधक इसी लोक में लक्ष्मीनाथ भी बन जाता है ॥२० - २२॥

अङ्ग के क्रम से सर्वत्र स्वर का विधान भी उन - उन कोणों के बीज मन्त्र में समझना चाहिए । फल देने वाले बीज मन्त्र जिस क्रम से कहे गए हैं उसी क्रम से स्वरों द्वारा भी वे वेष्टित हैं ॥२३॥

हे महादेव ! ये स्वर वायु सिद्धि आदि में आवश्यक रुप से कारण हैं । हे नाथ ! अष्टकोण के नीचे षट्‍कोण में जो बीज हैं , उन - उन बीजों को तथा उनके उन - उन फलों का ध्यान कर साधक वाक्सिद्धि प्राप्त कर लेता है । रेफ के ऊपर कमला बीज है , जो भावरुप कल्पद्रुम का समूह है । वह सर्वत्र तेज से व्याप्त है उसका ध्यान करने से साधक योगिनीपति हो जाता है , बायें भाग के क्रम से उसके नीचे शीतला बीज है , उसका ध्यान कर साधक परमानन्द रस में निमग्न होकर महासुखी हो जाता है , उसके नीचे कामनाफल की सिद्धि देने वाला कामबीज है ॥२४ - २७॥

जो उस कामबीज का जप करता है वह वायु के द्वारा परमानन्द तथा नित्यज्ञान प्राप्त कर लेता है , उसके आगे चतुर्थ कोण में अत्यन्त उत्तम वरुण बीज है । उसका ध्यान कर भावुक बनने वाला साधक बहुत काल तक जीवित रहता है ॥२८ - २९॥

उसके ऊपर पञ्चम कोण में ’ वकार ’ नाम वाला वज्रबीज है । वह आठों प्रकार की सिद्धि देने वाला तथा भजन करने वालों को साक्षात् रुप में शीघ्र सिद्धि देने वाला है । उसके ऊपर षट्‍कोण में सुरबीज है जो महा फलों वाला है ॥३०॥

जो मन्त्रज्ञ भावना मात्र से जगदीश्वर सर्वज्ञ बन गए । ओ औ तथा प वर्ग को जो निरन्तर भजता रहता है , उस वायवी रुप की भावना से उसे क्षणमात्र में सिद्धि हो जाती है , यह चन्द्रबीज के ऊपर वाले देश में पूर्ण तेज से शोभित होता है ॥३२ - ३३॥

लृ ए ऐ तथा त वर्ग वर्ग उसके दक्षिण में विधान पूर्वक स्थित हैं । यही तेजोमयी वायुशक्ति है जो सब प्रकार का मङ्रल करने वाली है । ऋ ऋ और लृ स्वरों से संयुक्त ट वर्ग की मन्त्रज्ञ साधक को भावना करनी चाहिए , जो नित्य ही आठों प्रकार का ऐश्वर्य देने वाला है तथा कमलासन ब्रह्मदेव की सिद्धि देने वाला है ॥३४ - ३५॥

ट वर्ग चन्द्रबीज के नीचे जो उक्त वर्णों का ध्यान करता है , वह कल्पवृक्ष के समान हो जाता है । भवानी बीजरुप के अधोभाग में इ ई इन दो वर्णों की तथा च वर्ग की भावना करने वाला अमर हो जाता है । हे नाथ ! अ आ इ के सहित क वर्ग का ध्यान विजय देता है ॥३६ - ३७॥

जो पराभक्ति से संयुक्त हो कर इनका ध्यान करता है , वह अभीष्ट फल प्राप्त करता है , हे नाथ ! शारदा देवता वाले फल चक्र का मैने इस प्रकार वर्णन किया ॥३८॥

इस फलचक्र की भावनाओं से साधक महाविद्यापति बना जाता है , कामरुप नामक महापीठ में तथा लिङ्र पीठ में स्थित आज्ञाचक्र तथा चतुश्चक्र की भावना कर साधक अमर बन जाता है मात्र एका मास में इसकी भावना के कारण ही हिरण्याक्ष महायोगी बन गया , फिर सातों द्वीपों का अधीश्वर बनकर अन्त में वही विष्णु भी बन गया । अतः इसकी भावना करने वाला स्थिर चित्त तथा योगी हो जाता , है , यही इसा तन्त्रार्थ का निर्णय है ॥३९ - ४१॥

आज्ञाचक्र में रहने वाले इतने ’ ही प्रधान चक्र हैं परमानन्द पूर्वक इन चक्रों का ध्यान करने से निश्चित ही आत्मसिद्धि हो जाती है । वह सूक्ष्म वायु की कृपा से इस लोक में चिरञ्जीवी हो जाता है ॥४२ - ४३॥

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Last Updated : July 30, 2011

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