उन्नीसवाँ पटल - सिद्धिविधान

रूद्रयामल तन्त्रशास्त्र मे आद्य ग्रथ माना जाता है । कुण्डलिणी की सात्त्विक और धार्मिक उपासनाविधि रूद्रयामलतन्त्र नामक ग्रंथमे वर्णित है , जो साधक को दिव्य ज्ञान प्रदान करती है ।


आनन्दभैरवी उवाच

आनन्दभैरवी ने कहा --- हे भैरव ! अब सर्वतन्त्रों के द्वारा गुप्त रहस्यों को कहती हूँ । वह सब प्रश्नचक्र में षडाधार का भेदन है ॥१॥

उस प्रश्न चक्र में निर्विकल्पादि साधन कालचक्र का फल है । प्रश्नचक्र कामरुप है और सर्वदा अपेक्षा आत्मा तथा आत्मीय शरीर को चेतना प्रदान करता है । षड्‍मन्दिर में षट्‍कलाप हैं कैवल्य साधनादि भी हैं । अनेक प्रकार के भोगों एवं योग सिद्धि का त्याग कर जो मन्त्र का जप करता है । वह देवताओं का द्रोही है , करोड़ों कल्पों में उसे सिद्धि प्राप्त होती है । किन्तु जिकसे ह्रदय में महान् उदय वाली महाभक्ति भासित हो रही है उसे क्षणमात्र में सिद्धि मिल जाती है , जप एवं मन्त्र साधनों से क्या लाभ ? अतः देवता में अपनी भावनी सिद्धि के लिए सदैव देव भक्ति करनी चाहिए ॥२ - ५॥

भैरव ने कहा --- हे भैरवि ! इस चक्र की कृपा से किसने कब सिद्धि प्राप्त की है , इस चक्र की भावना करने से कौना सा शुभ भावना वाला फल प्राप्त होता है ॥६॥

हे सुन्दरि ! प्रश्नादि के कथन में कौन सक्षम है अतः फलसिद्धि के लिए आप उसके प्रकार को विधान पूर्वक कहिए ॥७॥

आनन्दभैरवी ने कहा --- जो योगसिद्धि के लिए अथवा पुत्र के लिए कुण्डली के क्रम के योग से बारम्बार क्रमशः पूर्ण होम करता है वही इस चक्र के अर्थ के भाव को जानने वाला है , इसमें संशय नहीं । हे नाथ ! जो शरीर से वायु के निर्मम रुप लक्षण को करता रहता है और उसे ऊपर उठाकर विधिवत् इस चक्र की भावना करता है , वही सिद्धिमार्ग में सिद्धि प्राप्त करता है इसमें संशय नहीं ॥८ - १०॥

यह फल भावना के लिए गया है , अतः काम क्रोधादि दोषों से विवर्जित हो इसकी भावना करनी चाहिए । भावना फल की सिद्धि के लिए धर्म पूर्वक अधर्म का विरोध करते हुए सूक्ष्म वायु के क्रम से लीपे शुद्ध करे बारम्बार मन्त्र का जप करे । तब साधक महती सिद्धि प्राप्त करता है , वही इस चक्र का फल है । प्रश्ना चक्र के स्थूल और सूक्ष्म दो फल कहे गए हैं ॥११ - १३॥

जब जब मन स्थूल फल को त्याग कर सूक्ष्म में प्रवेश करे , तभी उसे महती सिद्धि प्राप्त होती है और साधक तत्क्षण अमर हो जाता है । जो एक बार भी सिद्धि चक्र के वर्णों का ध्यान करता है , उसी को भावसिद्धि प्राप्त होती है , क्योकि भाव सिद्धि से क्या नहीं प्राप्त होता ? हे नाथ ! बिना महान् भाव के कौन सिद्धि के फल का आग्रही बन सकता है ? स्थूल फल में भावना करने वाला योग भ्रष्ट हो जाता है उसे अन्य जन्म में सिद्धि मिलती है ॥१४ - १६॥

सूक्ष्म फल में भावना क्रम से साधक इसी जन्म में सिद्धि प्राप्त कर लेता है जो योगी सूक्ष्म फल को जानता है वह निश्चय ही योगी बन जाता है । जो सूक्ष्म फल का भोग करने वाला तथा अपनी क्रिया के गोपन में उद्यत रहता हि ऐसा साधक ही अपने प्रश्न कथन में योग्य होता है ॥१७ - १८॥

आज्ञा चक्र पर स्थित रहने वाले प्रश्न चक्र का निरन्तर ध्यान करने से काल सिद्धि होती है , वही सर्वज्ञ एवं वेदों का पारगामी हो जाता है । कालज्ञानी ही सर्वज्ञ है ऐसा तत्त्वार्थ का निर्णय है । प्रश्नचक्र में रहने वाले वे वे वर्ण सूक्ष्म काल के फलों को देने वाले हैं ॥१९ - २०॥

काल में दण्डादि ( दण्ड , पल , विपल ) तथा वर्ग सहित मास भेद ( द्वादस मास भेद , कृष्ण पक्ष भेद , शुक्ल पक्ष भेद तथा सप्ताहादि भेद )

मन के स्वरुप हैं , ये सभी मन के भ्रम हैं , वस्तुतः काल एक ही है इसमें संशय नहीं ॥२१॥

काल ज्ञानी योगिराज है वह मृत्यु को भी अपने वश में कर लेता है एक काल ही ऐसा है जो समस्त चराचर जगत् को अपने में लीन कर लेता है । यह सारा जगत् कालाधीन है इसलिए काल को अपने वश में करना चाहिए । वह सूक्ष्म का निलय है । हे भैरव ! अब सर्वथा दुर्वाच्य कथन न करने योग्य , अर्थात् गुप्त प्रश्नों के विषय में सुनिए ॥२२ - २३॥

मेष और तुला राशि सदैव श्रेष्ठ हैं , ये दोनों वैशाख मास में फलसिद्धि के कारण हैं जो इस राशि में क वर्ग तथा समस्त स्वरों को लिखकर भावना करता है , वह पृथ्वीपति बन जाता है ॥२४॥

हे महा प्रभो ! आज्ञाचक्र के ऊपर जो सर्वचक्र का ध्यान करता है उस पर ( परमात्मा ) में भावना के कारण एक क्षणमात्र में सिद्धि हो जाती है । हे भैरव ! जो इस पृथ्वी तल में सिद्धेशचक्र को महीने के नित्य दिन और रात के क्रम से चेतन करना जानता है , उसे वाक्सिद्धि प्राप्त हो जाती है ॥२५ - २६॥

वर्णमालाओं से परिपूर्ण तथा राशियों एवं नक्षत्रों से युक्त ग्रहचक्र की भावना करने वाला साधक सब कुछ जानने में समर्थ हो जाता है । वृष तथा मीन राशि में रहने वाला च वर्ग किशोरावस्था में सिद्धि का कारण है , साधक दो मास पर्यन्त इसकी साधना से निश्चित रुप से सर्वज्ञ हो जाता है ॥२७ - २८॥

योगिनी , आकाश मण्डल से उन सज्जनों के पास जाती है । बहुत क्या कहें साधक ग्रहचक्र की कृपा से जीवन्मुक्त हो जाता है । यदि साधक निश्चित रुप से अपने चित्त को निर्मल कर कर्म करता है , तो उसे इस त्रिलोकी में कुछ भी असाध्य नहीं होता

॥२९ - ३०॥

प्रश्न चक्र की कृपा होने पर इस भूमि में सभी योगी हो सकते हैं और यदि योगी बन जाये तो निश्चित ही उन्हें मुक्ति भी मिल सकती है । जब तक योग साधन न हो तब तक पृथ्वीमण्डल में कौन सिद्ध हो सकता है ? भला बिना योग साधन के किस भक्त को सिद्धि मिल सकती है ? महर्षि गण भक्तों के निकट ही निवास करते हैं । इसलिए समस्त धर्मों का त्याग कर सदैव भक्ति करनी चाहिए ॥३१ - ३३॥

प्रश्नचक्र की कृपा होते ही तत्क्षण साधक भाक्ति प्राप्त कर लेता है उस प्रकार वाले महाधर्म को कहने में कौन समर्थ हो सकता

है । इस प्रश्न चक्र में मैं उसके कुछ भावसार को कहती हूँ । साधक व वर्ग की भावना , मान से भक्ति प्राप्त कर लेता है ॥३४ - ३५॥

हे प्रभो ! आज्ञाचक्र पर परमात्मा को स्थापित कर उनकी नित्यता का ध्यान कर साधक उसकी कला को भी प्राप्त कर लेता है । उसके नेत्रों से आनन्दाश्रु प्रवाहित होते रहते हैं , शरीर में परमात्मा का आवेश होने लगता है , मन का लय हो जाता है , स्वयं सर्वकर्म का त्याग कर देता है , ऐसा जो करता है वह योगिराज बन जाता है ॥३६ - ३७॥

ट वर्ग में ध्यान करने से वासनासिद्धि होती है साधक संसार वासना से रहित हो जाता है , बलवान् एवं सर्वविज्ञानी बन जाता है , मात्र तीन महीने में वह खेचर ( आकाशचारी ) हो जाता है । उसे चक्र द्वारा खेचरी से मिलते ही परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है ट वर्ग को व्याप्त कर मिथुन तथा कुम्भराशियॉ स्थित रहती है ॥३८ - ३९॥

इस प्रकार उन राशियों पर अपने नक्षत्र से अपने को युक्त कर ध्यान करने से साधक योगिराज बन जाता है , तवर्ण की भी साधना करने से साधक चार मास मे पूर्ण योगी बन जाता है । ऐसा साधक वेतालादि महासिद्धियाँ तथा इन्द्र की भी सिद्धि प्राप्त कर लेता है । त वर्ग को व्याप्त कर मकर वृश्चिक एवं कर्क राशि स्थित रहते हैं ॥४० - ४१॥

हे ईश ! त वर्ग की भावना करने वाला चिरजीवी रहता है इन्द्र के समान सबको प्रिय हो जाता है । वह महाप्रलय का रुप धारण कर प्रलय पर्यन्ता स्थित रहता है ॥४२॥

महाचक्र में स्थित सूर्य के मध्य में वहिन मण्डल के मध्य में तथा महावायु में महालय करके मन्त्रज्ञ साधक काल को अपने वश में करे ॥४३॥

उसे वाग्देवता साक्षाद्रुप में दर्शन देते हैं इसमें संशय नहीं । प वर्ग को व्याप्त कर चित्कला से परिपूर्ण धनु तथा सिंह राशि स्थित रहते हैं ॥४४॥

साधक त्रिलोकी , अष्टवर्ग , षट्‍चक्र तथा चक्षुरिद्रिय से महानिल का ध्यान कर स्वयं का नाश नहीं करता है ॥४५॥

फिर सम्पूर्ण तीर्थ पदों का आश्रय , महासत्त्वगुण से आक्रान्त ब्रह्मस्वरुप वान्तबीज का अपने निर्मल चक्षु द्वारा दर्शन कर कन्या वृश्चिक राशि से ब्रह्ममार्ग का अवलोकन करता है । ऐसा करने से उसे छः महीने में सिद्धि हो जाती है और वह निश्चित रुप से कुल मार्गा का उपासक बन जाता है ॥४६ - ४७॥

वह मौनी तथा एकान्त भक्त हो जाता है उसे महाश्री के चरणकमलों का दर्शन प्राप्त हो जाता है । फिर तो ऐसा साधक श्रेष्ठ सायुज्यपदवी प्राप्त कर लेता है ॥४८॥

जिस सायुज्यपदवी को तत्त्व चिन्तक योगी जन प्राप्त करते हैं । श से लेकर ( क्ष है अन्त में जिसके अर्थात् ह श ष स ह ) पर्यन्त वर्ण वाले चतुष्कोण का , जो सभी योगाश्रयों का स्थान है , उसका ध्यान करने से साधक शीघ्र ही देवी लोकमण्डल में पहुँच जाता है , फिर वह प्रश्न चक्र का भावना करने वाला महाकाल हो जाता है ॥४९ - ५०॥

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Last Updated : July 30, 2011

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