आनन्दभैरव उवाच
आनन्दभैरवी ने कहा --- अब हे आनन्दभैरव ! त्रैलोक्य मङ्रल नामक सर्वकल्याणकारी कुमारी कवच मैं कहती हूँ , जो समस्त पापों का नाश करने वाला है । इसके पाठ से और धारण करने से साधक महासिद्ध एवं तेजस्वी हो जाते हैं । इसके प्रभाव से इन्द्रदेव श्रीसम्पन्न एवं देवराज बन गये और बृहस्पति देवगुरु बन गए ॥१ - २॥
अग्नि महातेजस्वी तथा धर्मराज ( यम ) भयानक हो गए , इतना ही नहीं वरुण स्वयं देवपूज्य तथा स्वयं जलाधिनाथ बन गये । वायु सर्वहर्त्ता , कुबेर हाथी पर चढ़ने वाले , धराधिप , सदाशिव के प्रिय मित्र हो गये , इसके धारण करने से समस्त देवता दिगीश्वर बन गये । निर्मल सुमेरु केवल एक पृथ्वी के ही स्वामी नहीं , अपितु दो लोकों के स्वामी बन गये । इस प्रकार इस कवच के पाठ से सभी धनाधिप राजा बन गये ॥३ - ५॥
प्रणव हमारे शिर की रक्षा करे । माया सान्दायिका सती , महामाया और श्रीसरस्वती मेरे ललाट के ऊपरी भाग ( मस्तिष्क ) की रक्षा करें ॥६॥
कामाक्षी , बटुका , ईशानी एवं त्रिमूर्ति मेरे भाल प्रदेश की रक्षा करें । बीजरूपा चामुण्डा तथा कालिका मेरे मुख की रक्षा करें । सूर्य में रहने वाली देवी मेरी तथा मेरे दोनों नेत्रों की नित्य रक्षा करें । दोनों कानों की कामबीज ( क्लीं ) स्वरुपा उमा तथा तपस्विनी रक्षा करें ॥७ - ८॥
इसी प्रकार वाग्देवी तथा मालिनी मेरे रसनाग्र भाग की रक्षा करें । डामर में निवास करने वाली कामरूपा तथा कुञ्जिका देवी मेरे दन्ताग्रभाग की रक्षा करें । प्रणवरुपा शक्ति तथा बीजात्मिका स्वाहास्वरूपिणी शिवा देवी मेरे ऊपर के ओष्ठ एवं नीचे के अधर की रक्षा करें ॥९ - १०॥
काल को भी डँसने वाली पञ्चवायुस्वरूपिणी ’ अपराजिता ’ महारौद्री मेरे गले की रक्षा करें । स्वाहा से युक्त रुद्राणी तथा ’ क्षौम " बीज मेरे कण्ठ की रक्षा करें । भैरवी महाविद्या तथा षोडश ( स्वर ) स्वरूपा देवी मेरे ह्रदाय प्रदेश की रक्षा करें ॥११ - १२॥
सभी देवियों में प्रधान रुप से निवास करने वाली ’ महालक्ष्मी ’ मेरे दोनों बाहुओं की रक्षा करें । सभी मन्त्रों की मूर्तिमान् स्वरुपा पीठाधिष्ठात्री देवी मेरे उदर की रक्षा करें । वाग्भवात्मिका ( ऐं बीज स्वरूपा ) कुमारी मेरे दोनों पार्श्वभाग की रक्षा करें । माया बीज ( हीं ) स्वरुपा एवं किशोरावस्था सम्पन्न देवी मेरे कटिभाग की रक्षा करें ॥१३ - १४॥
कुल्लुका से युक्त योगिनी ’ जयन्ती ’ देवी मेरे दोनों जांघों की रक्षा करें । मन्त्रार्थ में गमन करने वाली ’ अम्बिका ’ देवी मेरे सर्वांग की रक्षा करें । कमला देवी केशों के अग्रभाग की , विन्ध्यवासिनी ( दुर्गा ) देवी नासा के अग्रभाग की , चण्डिका देवी चिबुक की तथा कुमारी सर्वदा मेरी रक्षा करें ॥१५ - १६॥
ललिता देवी ह्रदय की और पर्वतवासिनी देवी पृष्ठभाग की रक्षा करें । ज्ञान , इच्छा एवं कर्मरुप तीन शक्तियों से युक्त ’ षोडशी ’ देवी मेरे लिङ्ग तथा गुह्य स्थान की सर्वदा रक्षा करें । अम्बिका देवी श्मशान में , गङ्ग गर्भ में , मन्त्र यन्त्र का प्रकाश करने वाली पञ्चमुद्रा रुपा वैष्णवी देवी शून्यागार में मेरी रक्षा करें ॥१७ - १८॥
वज्रधारण करने वाली चौराहे पर मात्र मेरी रक्षा करें । शव के आसन पर विराजनाम मुण्डमाला से विभूषित शक्ति स्वरुपिणी वैखरी शब्द रुपा चण्डिका मेरे मान को तथा कलिङ्ग की रक्षा करें । वन में महाबाला मेरी रक्षा करें । घोर अरण्य में रणप्रिया हमारी रक्षा करें ॥१० - २०॥
महाजल के तडाग में तथा शत्रुओं के मध्य में सरस्वती मेरी रक्षा करें । महाकाश के पथ में पृथ्वी मेरी रक्षा करे तथा शीतल देवी सर्वदा मेरी रक्षा करें । कुमारी कुलकामिनी तथा राजलक्ष्मी रण के मध्य में मेरी रक्षा करें । अर्द्धनारीश्वरी तथा मही मेरे पादतल की रक्षा करें ॥२१ - २२॥
करोड़ो सूर्य के समान प्रकाश करने वाली , करोड़ों चन्द्रमा के समान शीतलता प्रदान करने वाली , कुमारी रुप धारण करने वाली , नव लक्षमहाविद्यायें , वरदा वाणी तथा बटुकेश्वर कामिनी मेरी रक्षा करें । हे नाथ ! यह महान् अदभुत कवच मैंने आपसे कहा ॥२३ - २४॥
फलश्रुति --- हे पञ्चतत्त्वार्थ पारग ! जो पञ्चतत्त्व नामक स्तोत्र एवं कवच के साथ कुलदायिनी कुमारी के सहस्त्रनाम का पाठ करता है , उसे आकाशगामिनी सिद्धि प्राप्त हो जाती है इसमें संशय नहीं ॥२५ - २६॥
केवल कवच के पाठ से ही साधक का शरीर शीघ्रता से वज्र के समान हो जाता है। इस प्रकार जो पाठ करता है वह सर्व सिद्धीश्वर योगी तथा ज्ञानी बन जाता है । शत्रु के साथ विवाद में , मुकदमे में , संग्राम में , समाज मे , महापथ में तथा श्मशान में इसका पाठ करने वाला योगसिद्ध हो जाता है ॥२७ - २८॥
हे कुलेश्वर ! इस कवच के पाठ से साधक विजय प्राप्त कर लेता है । यह सत्य है , यह सत्य है । यही वशीकरण कवच सभी स्थान में विजय देता है और कल्याणकारी है । पुण्यव्रती नित्य इसका पाठ करे तो वह निश्चय ही यति ( संयमी ) श्रीमान्
( श्रीसम्पन्न ) हो जाता है । यह कुमारी सिद्ध विद्या कही जाती है । अतः वह अपने उपासक को उत्तम सिद्धि प्रदान करती है ॥२९ - ३०॥
जो इसका पाठ करता है अथवा श्रवण करता है वह कल्पवृक्ष के समान हो जाता है । वह भुक्ति , मुक्ति , तुष्टि पुष्ट , राजलक्ष्मी तथा सुसस्पदा प्राप्त करता है । यदि साधक श्रेष्ठ इसे धारण कर कुमारी मन्त्र का जप करे , पुनः कवच का पाठ करे तो वह विद्वान् असाध्य को भी साध्य बना देता है ॥३१ - ३२॥
यह धनियों को महासौख्य , धर्म , अर्थ , काम तथा मोक्ष प्रदान करने वाला है । जो संयमशील पुरुष अपने इन्द्रियों को वश में रखकर दिन रात उपचार विशेष से कुमरी का पूजन करते हैं । वह त्रैलोक्य को अपने वश में कर सकते हैं । पलल ( मांस ) आसव , मत्स्य , मुद्रा के सहित अनेक प्रकार के भक्ष्य , भोज्य , सुगन्धित इत्रादि द्रव्य , माला , सुवर्ण तथा रजत निर्मित अलुङ्कार तथा उत्तम प्रकार के वस्त्र से साधक कुमारी का पूजना कर जप करे ॥३३ - ३५॥
फिर उस सुन्दरी का तर्पण करे । तन्निमित्तक यज्ञ , दान , तपस्या और अनुष्ठान करे । फिर , हे महेश्वर ! कुमारी की स्तुति पढ़कर अनन्यमन से कवच का पाठ करे तो उसे अवश्य सिद्धि मिल जाती है , और वह राजराजेश्वर बन जाता है ॥३६ - ३७॥
उसे अपने मन में जितनी भी अभिलाषायें है , सभी अभिलाषाओं का फल प्राप्त हो जाता है । यदि इस कवच को भोजपत्र पर लिखकर शनिवार , मङ्गलवार को विशेषतः कृष्णपक्ष की नवमी , अष्टमी , चतुर्दशी और पूर्णमासी तिथि आने पर विद्वान् साधक उत्तराभिमुख हो ह्रदय पर धारण करे तो वह ब्रह्महत्यादि महापातकों से युक्त होने पर भी सभी प्रकार के पापों से मुक्त हो
जाता है ॥३८ - ४०॥
स्त्री यदि भोजपत्र पर लिखित इस कवच को अपनी बाई भुजा में धारण करे तो वह समस्त कल्याण प्राप्त करती हैं , ऐसी स्त्री अनेक संतानो से युक्त हो जाती है और सब प्रकार की सम्पत्ति भी प्राप्त कर लेती है । इसी प्रकार यदि श्रेष्ठ पुरुष भोजपत्र पर लिखे हुये कवच को अपनी दाहिनी भुजा में धारण करे तो वह इस जन्म में ही दिव्य देह संयुक्त हो जाता है तथा पञ्चानन सदाशिव के समान तेजस्वी बन जाता है ॥४१ - ४२॥
विमर्श --- बहुभिः पुत्रैरन्विता युक्त । यद्यपि ’ बहुप्रजा निऋतिमाविवेश ’ इतिअ मन्त्रे सन्ततीनामाधिक्यं निन्दितमस्ति , तथापि दुष्टसन्ततीनां कृते एषा स्थितिः । वीरसन्ततयः सदगुणसम्पन्नाः सन्ततयस्तु श्लाघ्या एव । अत एव गोत्रं नो वर्धतामित्यपि प्रार्थनामन्त्रः श्राद्धकर्मणि । सम्पन्नाः सन्ततयस्तु श्लाघ्या एव । अत एव गोत्रं नो वर्धतामित्यपि प्रार्थनामन्त्रः श्राद्धकर्मणि ।
वह इस लोक में निरामय ( नीरोग ) रहता है । फिर वायु के समान वगवान् हो कर परब्रह्म सदाशिव के लोक में जाता है , अथवा सूर्य मण्डल का भेदन कर परब्रह्म के लोक में चला जाता है ॥४३॥
यह कवच समस्त साधकों को अत्यन्त सौख्य प्रदान करता है भयहरण करता है । श्री के चरणों में भक्ति प्रदान करता है । मोक्ष के लिए पाठ करने वाले मनुष्यों को आनन्द सिन्धु में उत्पन्न समस्त कल्याण प्रदान करता है । यह कलिकाल के घोर कालुष्य ( पाप ) को नष्ट करने का एक मात्र हेतु है । तथा जय प्रदान करता है । इसलिए जो इसका पाठ करते हैं वे अतुलनीय धर्म प्राप्त करते हैं और क्षण भर में मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं ॥४४॥