महा अकथह नामक यह चक्र सभी उत्तम चक्रों की अपेक्षा श्रेष्ठ है , जिसका विचार करने मात्र से मनुष्य इच्छानुसार रुप धारण कर सकता है ॥१॥
आप वीरों के नाथ हैं । उस अकथह चक्र के रचना की विधि सुनिए - पहले चतुष्कोष्ठ , फिर उसमें भी चतुः कोष्ठ , फिर उसमें पुनः चतुः कोष्ठ , फिर उसमें भी चार गृह बनावे । इस प्रकार कुल १६ गृह का निर्माण काम और अर्थ की सिद्धि देने वाला कहा गया है ॥२ - ३॥
चार कोष्ठक से युक्त प्रथम चतुर्भुज , फिर द्वितीय चतुःकोष्ठ समन्वित चतुर्भुज में धीमान् पुरुष क्रम से प्रदक्षिण क्रमपूर्वक सभी घरों में अकारादि क्षकारान्त वर्णों को लिखकर तदनन्तर गणना करे ॥४ - ५॥
१ , ३ , ११ , ९ , २ , ४ , १२ , १० , ६ , ८ , १६ , १४ , ५ , ७ , १५ , तथा १३ वें अङ्क वाले कोष्ठकों में क्रमशः अकारादि वर्णों को लिखे । यहाँ कोष्ठकों का सङ्केत अङ्कों से किया गया है । क्रमशः इन अङ्कों में वर्णों को लिख कर तदनन्तर नामाक्षर के आदि अक्षर से आरम्भ कर मन्त्र के आदि अक्षर तक गणना करे ॥६ - ८॥
चार कोष्ठों द्वारा एक - एक नाम , इस प्रकार चार कोष्ठक में आदि से लेकर पुनः एक - एक कोष्ठ से दूसरे कोष्ठ में नाम की गणना करे । प्रथम कोष्ठ सिद्ध , दूसरा साध्य , तीसरा सुसिद्ध और चौथा अरि इस क्रम से विद्वान् साधक गणना करे । सिद्ध मन्त्र समय से सिद्ध हो जाता है और साध्य मन्त्र जप होम से सिद्ध हो जाता है ॥९ - १०॥
सुसिद्ध मन्त्र दीक्षा ग्रहण मात्र से ज्ञान करा देता है । किन्तु शत्रु मन्त्र साधक का आयुष्य समाप्त कर देता है । सिद्ध मन्त्र बान्धव कहा गया है और साध्य मन्त्र सेवक कहा जाता है । सिद्ध कोष्ठक में रहने वाले सभी वर्ण बान्धव कहे जाते हैं ; जो सारी कामनाओं की पूर्ति करते हैं । उसके जप मात्र से सिद्धि लाभ हो जाता है । किन्तु सेवक वर्ण बहुत सेवा से सिद्धि प्रदान करते हैंज ॥११ - १२॥
सुसिद्ध वर्ण पोषक हैं , अभीष्ट हैं और साधक का पोषण करते हैं । अरि वर्ण घातक हैं निश्चय ही वे साधक का वध कर देते हैं ।
अब पुनः उसके चार भेद कहते हैं - १ सिद्धासिद्ध वर्ण तो उक्त प्रकार से सिद्ध हो जाते हैं , २ सिद्ध - साध्य द्विगुणित जप से सिद्ध होता है । ३ . सिद्ध - सुसिद्ध जप के अनन्तर सिद्ध होता है , किन्तु ४ . सिद्धारि समस्त बान्धवों का विनाश कर देता है । इस प्रकार साध्य सिद्ध तो दूने जप से सिद्ध होता है , किन्तु साध्य - साध्य निरर्थक है ॥१३ - १४॥
निष्कर्षतः साध्य सुसिद्ध दूने जप से सिद्ध होता है किन्तु साध्य अरि बान्धवों का विनाश करता है । सुसिद्ध सिद्ध जप से , सुसिद्ध - साध्य दुगुने से भी अधिक जप से सिद्ध होता है ॥१५॥
सुसिद्ध --- सिद्ध ग्रहण मात्र से सिद्ध हो जाता है , किन्तु सुसिद्धारि साधक के गोत्र का वध कर देता है , अरि - सिद्ध साधक के पुत्रों का तथा अरि - साध्य मन्त्र तो साधक के कन्या का विनाश करता है । अरि - सुसिद्ध पत्नीहन्ता होता है । अरि - अरि वर्ण बान्धवों ( गोत्रजों ) का विनाश करता है ॥१६ - १७॥
विमर्श - मन्त्रमहोदधि २४ . १ - २० में इसका विस्तृत विवेचन है ।
अरिमन्त्र से रक्षा के उपाय - यदि कदाचित् साधक को शत्रु मन्त्र दीक्षा द्वारा प्राप्त हो गया हो तो उससे अपनी रक्षा के लिए इस प्रकार की क्रिया करनी चाहिए ॥१७ - १८॥
हे गिरिजापते ! हे महावीर ! अब अरिमन्त्र से छुटकारा पाने के विधान सुनिए । ( १ ) अरिमन्त्र को वटपत्र पर लिख कर नदी के प्रवाह में छोड़ देना चाहिए । इस प्रकार से साधक को शत्रु मन्त्र से छुटकारा मिल जाता है । उसमें मेरी आज्ञा ही हेतु है ॥१८ - १९॥
( २ ) अब इसके अतिरिक्त उस मन्त्र से छुटकारा पाने का दूसरा उपाय यह है कि द्रोण परिमाण वाले गौ के दूध में १०८ बार मन्त्र का जाप कर उस दूध को पीते हुये मध्य में मन्त्र का ध्यान कर फिर उस का उच्चारण करते हुये वैरि मन्त्र से विमुक्ति के लिए पानी में कुल्ला करते हुये छोड़ देवे ॥२० - २१॥
( ३ ) इसके अतिरिक्त अब तीसरा एक प्रकार और कहता हूँ । तीन रात अथवा एक रात उपवास करे । फिर शनिवार अथवा मङ्ग के दिन पूजा कर १००८ अथवा १०८ की संख्या में अरिमन्त्र का जपा कर उस मन्त्र को क्षीर सागर के मण्डल में छोड़ देवे । अथवा उस मन्त्र के देने वाले गुरु के घर अथवा किसी अन्य स्थान पर उस मन्त्र को छोड़ देवे । फिर चक्र पर विचारे हुये मन्त्र को ग्रहण करने से साधक दोष विमुक्त हो जाता है ॥२२ - २४॥
यदि किसी उत्तम साधक को स्वप्न में किसी महामन्त्र की प्राप्तिहो जावें तो उस मन्त्र से उसको अवश्य सिद्धि लाभ हो जाता है । हे कुलेश्वर ! यह सत्य है , यह सत्य है । इसमें संशय नहीं । हे नाथ ! गुरो ! किसी कुलिक ( शाक्त ) से यदि यत्नपूर्वक मन्त्र लिया जाय तो जब लिया जाता है उसी समय सिद्धि हो जाती है , इसमें संशय नहीं ॥२५ - २६॥
हे देवदेवेश ! शत्रु मन्त्र , विग्रह कराने वाला मन्त्र , विष्णु का मन्त्र , शिव का मन्त्र अथवा अन्य मन्त्र विचार कर ग्रहण करना चाहिए । शाक्त मन्त्र यदि चक्र पर परीक्षा करने से शत्रु का फल देने वाला हो तो उसका विचार इस प्रकार करना चाहिए । उस शाक्त मन्त्र के आदि में ॐ मध्य ’ वौषट् ’ तथा अन्त में ’ स्वाहा ’ से युक्त करे ॥२७ - २८॥
शिव जी कहते है , तदनन्तर हे वरवर्णिनि ! ऐसा कर जप करने से साधक इच्छानुसार रूप धारण करते हुये महासिद्धि को प्राप्त कर लेता है , इसमें संदेह नहीं ऐसी मेरी आज्ञा है ॥२९॥