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गंगा यमुना संगम

प्रथम पाद - गंगा यमुना संगम

` नारदपुराण’ में शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, और छन्द- शास्त्रोंका विशद वर्णन तथा भगवानकी उपासनाका विस्तृत वर्णन है।


गंगा - यमुना - संगम , प्रयाग , काशी तथा गंगा एवं गायत्रीकी महिमा

सूतजी कहते हैं -

भगवान‌‍की भक्तिका यह माहात्म्य सुनकर नारदजी बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने ज्ञान - विज्ञानके पारगामी सनक मुनिसे पुनः इस प्रकार प्रश्न किया।

नारदजी बोले -

मुने ! आप शास्त्रोंके पारदर्शी विद्वान् ‌‍ हैं। मुझपर बड़ी भारी दया करके यह ठीक - ठीक बताइये कि क्षेत्रोंमें उत्तम क्षेत्र तथा तीर्थोंमें उत्तर तीर्थ कौन है ?

सनकजीने कहा -

ब्रह्यन् ‌‍ ! यह परम गोपनीय प्रसंग है , सुनो। उत्तम क्षेत्रोंका यह वर्णन सब प्रकारकी सम्पत्तियोंको देनेवाला , श्रेष्ठ , बुरे स्वप्रोंका नाशक , पवित्र , धर्मानुकूल , पापहारी तथा शुभ है। मुनियोंको नित्य - निरन्तर इसका श्रवण करना चाहिये। गंगा और यमुनाका जो संगम है , उसीको महर्षिलोग शास्त्रोंमें उत्तम क्षेत्र तथा तीर्थोंमें उत्तम तीर्थ कहते हैं। ब्रह्या आदि समस्त देवता , मुनि तथा पुण्यकी इच्छा रखनेवाले सब मनुष्य श्वेत और श्याम जलसे भरे हुए उस संगम - तीर्थका सेवन करते हैं। गंगाको परम पवित्र नदी समझना चाहिये ; क्योंकि वह भगवान् ‌‍ विष्णुके चरणोंसे प्रकट हुई है। इसी प्रकार यमुना भी साक्षात् ‌‍ सूर्यकी पुत्री हैं। ब्रह्यन् ‌ ! इन दोनोंका समागम परम कल्याणकारी है। मुने ! नदियोंमें श्रेष्ठ गंगा स्मरणमात्रसे समस्त क्लोशोंका नाश करनेवाली , सम्पूर्ण पापोंको दूर करनेवाली तथा सारे उपद्रवोंको मिटा देनेवाली है। महामुने ! समुद्रपर्यन्त पृथ्वीपर जो - जो पुण्यक्षेत्र हैं , उन सबसे अधिक पुण्यतम क्षेत्र प्रयागको ही जानना चाहिये। जहाँ ब्रह्याजीने यज्ञद्वारा भगवान् ‌‍ लक्ष्मीपतिका यजन किया है तथा सब महर्षियोंने भी वहाँ नाना प्रकारके य़ज्ञ किये हैं। सब तीर्थोंमें स्नान करनेसे जो पुण्य प्राप्त होते हैं , वे सब मिलकर गंगाजीके एक बूँद जलसे किये हुए अभिषेककी सोलहवीं कलाकी भी समता नहीं कर सकते। जो गंगासे सौ योजन दूर खड़ा होकर भी ’ गंगा - गंगा ’ का उच्चारण करता है , वह भी सब पापोंसे मुक्त हो जाता है ; फिर जो गंगामें स्नान करता है , उसके लिये तो कहना ही क्या है ? भगवान् ‌‍ विष्णुके चरणकमलोंसे प्रकट होकर भगवान् ‌‍ शिवके मस्तकपर विराजमान होनेवाली भगवती गंगा मुनियों और देवताओंके द्वारा भी भलीभाँति सेवन करनेयोग्य हैं , फिर साधारण मनुष्योंके लिये तो बात ही क्या है ? श्रेष्ठ मनुष्य अपने ललाटमें जहाँ गंगाजीकी बालूका तिलक लगाते हैं , वहीं अर्धचन्द्रके नीचे प्रकाशित होनेवाला तृतीय नेत्र समझना चाहिये। गंगामें किया हुआ स्नान महान् ‌ पुण्यदायक तथा देवताओंके लिये भी दुर्लभ है ; वह भगवान् ‌ विष्णुका सारूप्य देनेवाला होता है -- इससे बढ़्कर उसकी महिमाके विषयमें और क्या कहा जा सकता है ? गंगा में स्नान करनेवाले पापी भी सब पापोंसे मुक्त हो श्रेष्ठ विमानपर बैठकर परम धाम वैकुण्ठको चले जाते हैं।जिन्होंने गंगामें स्नान किया है , वे महात्मा पुरुष पिता और माताके कुलकी बहुत - सी पीढ़ियोंको उद्धार करके भगवान् ‌ विष्णुके धाममें चले जाते हैं। ब्रह्यन् ‌‍ ! जो गंगाजीका स्मरण करता है , उसने सब तीर्थोंमें स्नान और सभी पुण्य - क्षेत्रोंमें निवास कर लिया - इसमें संशय नहीं है। गंगा - स्नान किये हुए मनुष्यको देखकर पापी भी स्वर्गलोकका अधिकारी हो जाता है। उसके अङ्रोंका स्पर्श करनेमात्रसे वह देवताओंका अधिपतिहो जाता है। गंगा , तुलसी , भगवान्‌‍के चरणोंमें अविचल भक्ति तथा धर्मोपदेशक सद्‌‍गुरुमें श्रद्धा -- ये सब मनुष्योंके लिये अत्यन्त दुर्लभ हैं। उत्तम धर्मका उपदेश देनेवाले गुरुके चरणोंकी धूल , गंगाजीकी मृत्तिका तथा तुलसीवृक्षके मूलभागकी मिट्टीको जो मनुष्य भक्तिपूर्वक अपने मस्तकपर धारण करता है , वह वैकुण्ठ धामको जाता है। जो मनुष्य मन - ही - मन यह अभिलाषा करता है कि मैं कब गंगाजीके समीप जाऊँगा और कब उनका दर्शन करूँगा , वह भी वैकुण्ठ धामको जाता है। ब्रह्यन् ‌‍ भगवान् ‌‍ विष्णु भी सैकड़ों वर्षोंमें गंगाजीकी महिमाका वर्णन नहीं कर सकते।

अहो ! माया सारे जगत्‌‍को मोहमें डाले हुए है , यह कितनी अद्भुत बात है ? क्योंकि गंगा और उसके नामके रहते हुए भी लोग नरकमें जाते हैं। गंगाजीका नाम संसार - दुःखका नाश करनेवाला बताया गया है। तुलसीके नाम तथा भगवान्‌‍की कथा कहनेवाले साधु पुरुषके प्रति की हुई भक्तिका भी यही फल है। जो एक बार भी ’ गंगा ’ इस दो अक्षरका उच्चारण कर लेता है , वह सब पापोंसे मुक्त हो भगवान् ‌‍ विष्णुके लोकमें जाता है। परम पुण्यमयी इस गंगा नदीका यदि मेष , तुला और मकरकी संक्रान्तियोंमें ( अर्थात् ‌‍ वैशाख , कार्तिक और माघके महीनोंमें ) भक्तिपूर्वक सेवन किया जाय तो सेवन करनेवाले सम्पूर्ण जगत्‌‍को यह पवित्र कर देती है। द्विजश्रेष्ठ ! गोदावरी , भीमरथी , कृष्णा , नर्मदा , सरस्वती , तुंगभद्रा , कावेरी , यमुना , बाहुदा , वेत्रवती , ताम्रपर्णी तथा सरयू आदि सब तीर्थोंमें गंगाजी ही सबसे प्रधान मानी गयी हैं। जैसे सर्वव्यापी भगवान् ‌‍ विष्णु सम्पूर्ण जगत्‌‍को व्याप्त करके स्थित हैं , उसी प्रकार सब पापोंका नाश करनेवाली गंगादेवी सब तीर्थोंमें व्याप्त हैं। अहो ! महान् ‌‍ आश्चर्य है ! परम पावनी जगदम्बा गंगा स्नान - पान आदिके द्वारा सम्पूर्ण संसारको पवित्र कर रही हैं , फिर सभी मनुष्य इनका सेवन क्यों नहीं करते ?

इसी प्रकार विख्यात काशीपुरी भी तीर्थोंमें उत्तम तीर्थ और क्षेत्रोंमें उत्तम क्षेत्र है। समस्त देवता उसका सेवन करते हैं। इस लोकमें कानवाले पुरुषोंके वे ही दोनों कान धन्य हैं और वे ही बहुत - से शास्त्रोंका ज्ञान धारण करनेवाले हैं , जिनके द्वारा बारम्बार काशीका नाम श्रवण किया गया है। द्विजश्रेष्ठ ! जो मनुष्य अविमुक्त क्षेत्र काशीका स्मरण करते हैं , वे सब पापोंका नाश करके भगवान् ‌‍ शिवके लोकमें चले जाते हैं। मनुष्य सौ योजन दूर रहकर भी यदि अविमुक्त क्षेत्रका स्मरण करता है तो वह बहुतेरे पातकोंसे भरा होनेपर भी भगवान् ‌‍ शिवके रोग - शोकरहित नित्यधामको चला जाता है। ब्रह्यन् ‌ ! जो प्राण निकलते समय अविमुक्त क्षेत्रका स्मरण कर लेता है , वह भी सब पापोंसे छूटकर शिवधामको प्राप्त हो जाता है। काशीके गुणोंके विषयमें यहाँ बहुत कहनेसे क्या लाभ ; जो काशीका नाम भी लेते हैं , उनसे धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष -- ये चारों पुरुषार्थ दूर नहीं रहते। ब्रह्यन् ‌‍ ! गंगा और यमुनाका संगम ( प्रयाग ) तो काशीसे भी बढ़्कर है ; क्योंकि उसके दर्शनमात्रसे मनुष्य परम गतिको प्राप्त कर लेते हैं। सूर्यके मकर राशिपर रहते समय जहाँ कहीं भी गंगामें स्नान किया जाय , वह स्नान - पान आदिके द्वारा सम्पूर्ण जगत्‌‍को पवित्र करती और अन्तमें इन्द्रलोक पहुँचाती है। लोकका कल्याण करनेवाले लिंस्वरूप भगवान् ‌‍ शंकर भी जिस गंगाका सदा सेवन करते हैं , उसकी महिमाका पूरा - पूरा वर्णन कैसे किया जा सकता है ? शिवलिं साक्षात् ‌‍ श्रीहरिरूप है और श्रीहरि साक्षात् ‌‍ शिव - लिङरूप हैं। इन दोनोंमें थोड़ा भी अन्तर नहीं है। जो इनमें भेद करता है , उसकी बुद्धि खोटी है। अज्ञानके समुद्रमें डूबे हुए पापी मनुष्य ही आदि - अन्तरहित भगवान् ‌‍ विष्णु और शिवमें भेदभाव करते हैं। जो सम्पूर्ण जगत्‌‍के स्वामी और कारणोंके भी कारण हैं , वे भगवान् ‌‍ विष्णु ही प्रलयकालमें रुद्ररूप धारण करते हैं। ऐसा विद्वान ‌‍ पुरुषोंका कथन है। भगवान् ‌‍ रुद्र ही विष्णुरूपसे सम्पूर्ण जगत्‌‍का पालन करते हैं। वे ही ब्रह्याजीके रूपसे संसारकी सृष्टि करते हैं तथा अन्तमें हररूपसे वे ही तीनों लोकोंका संहार करते हैं। जो मनुष्य भगवान् ‌‍ विष्णु , शिव तथा ब्रह्याजीमें भेदबुद्धि करता है , वह अत्यन्त भयंकर नरकमें जाता है। जो भगवान् ‌‍ शिव , विष्णु और ब्रह्याजीको एक रूपसे देखता है , वह परमानन्दको प्राप्त होता है। यह शास्त्रोंका सिद्भान्त है। जो अनादि , सर्वज्ञ , जगत्‌‍के आदिस्त्रष्टा तथा सर्वत्र व्यापक हैं , वे भगवान् ‌‍ विष्णु ही शिवलिंग ज्योतिर्लिंग कहलाता है। श्रेष्ठ मनुष्य उसका दर्शन करके परम ज्योतिको प्राप्त होता है। जिसने त्रिभुवनको पवित्र करनेवाली काशीपुरीकी परिक्रमा कर ली , उसके द्वारा समुद्र , पर्वत तथा सात द्वीपोंसहित पृथ्वीकी परिक्रमा हो गयी। धातु , मिट्टी , लकड़ी , पत्थर अथवा चित्र आदिसे निर्मित जो भगवान् ‌‍ शिव अथवा विष्णुकी निर्मल प्रतिमाएँ हैं , उन सबमें भगवान् ‌‍ विष्णु विद्यमान हैं। जहाँ तुलसीका बगीचा , कमलोंका वन और पुराणोंका पाठ हो , वहाँ भगवान् ‌‍ विष्णु स्थित रहते हैं। ब्रह्यन् ‌‍ ! पुराणकी कथा सुननेमें जो प्रेम होता है , वह गङ्रस्नानके समान है तथा पुराणकी कथा कहनेवाले व्यासके प्रति जो भक्ति होती है , वह प्रयागके तुल्य मानी गयी है। जो पुराणोक्त धर्मका उपदेश देकर जन्म - मृत्युरूप संसार - सागरमें डूबे हुए जगत्‌का उद्धार करता है , वह साक्षात् ‌‍ श्रीहरिका स्वरूप बताया गया है। गंगाके समान कोई तीर्थ नहीं है , माताके समान कोई गुरु नहीं है . भगवान् ‌‍ विष्णुके समान कोई देवता नहीं है तथा गुरुसे बढ़्कर कोई तत्त्व नहीं है। जैसे चारों वर्णोंमें ब्राह्यण , नक्षत्रोंमें चन्द्रमा तथा सरोवरोंमें समुद्र श्रेष्ठ है , उसी प्रकार पुण्य तीर्थों और नदियोंमें गंगा सबसे श्रेष्ठ मानी गयी हैं। शान्तिके समान कोई बन्धु नहीं है , सत्यसे बढ़कर कोई तप नहीं है , मोक्षसे बड़ा कोई लाभ नहीं हैं और गंगाके समान कोई नदी नहीं है। गंगाजीका उत्तम नाम पापरूपी वनको भस्म करनेके लिये दावानलके समान है। गंगा संसाररूपी रोगको दूर करनेवाली हैं , इसलिये यत्नपूर्वक उनका सेवन करना चाहिये। गायत्री और गंगा दोनों समस्त पापोंको हर लेनेवाली मानी गयी हैं। नारदजी ! जो इन दोनोंके प्रति भक्तिभावसे रहित है , उसे पतित समझना चाहिये। गायत्री वेदोंकी माता हैं और जाह्लवी ( गंगा ) सम्पूर्ण जगत्‌की जननी हैं। वे दोनों समस्त पापोंके नाशका कारण हैं। जिसपर गायत्री प्रसन्न होती हैं , उसपर गंगा भी प्रसन्न होती हैं। वे दोनों भगवान् ‌‍ विष्णुकी शक्तिसे सम्पन्न हैं , अतः सम्पूर्ण कामनाओंकी सिद्धि देनेवाली हैं। गंगा और गायत्री धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष - इन चारों पुरुषार्थोंके फलरूपमें प्रकट हुई हैं। ये दोनों निर्मल तथा परम उत्तम हैं और सम्पूर्ण लोकोंपर अनुग्रह करनेके लिये प्रवृत्त हुई हैं। मनुष्योंके लिये गायत्री और गंगा दोनों अत्यन्त दुर्लभ हैं। इसी प्रकार तुलसीके प्रति भक्ति और भगवान् ‌‍ विष्णुके प्रति सात्त्विक भक्ति भी दुर्लभ है। अहो ! महाभागा गंगा स्मरण करनेपर समस्त पापोंका नाश करनेवाली , दर्शन करनेपर भगवान् ‌‍ विष्णुका लोक देनेवाली तथा जल पीनेपर भगवान्‌‍का सारूप्य प्रदान करनेवाली हैं। उनमें स्नान कर लेनेपर मनुष्य भगवान् ‌‍ विष्णुके उत्तम धामको जाते हैं। जगत्‌का धारण - पोषण करनेवाले सर्वव्यापी सनातन भगवान् ‌‍ नारायण गंगा - स्नान करनेवाले मनुष्योंको मनोवाञ्छत फल देते हैं। जो श्रेष्ठ मानव गंगाजलके एक कणसे भी अभिषिक्त होता है , वह सब पापोंसे मुक्त हो परम धामको प्राप्त कर लेता है। गंगाके जलविन्दुका सेवन करनेमात्रसे राजा सगरकी संतति परम पदको प्राप्त हुई।

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Last Updated : March 11, 2011

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