अध्यायों का वर्णन
हे राक्षसराज ! भगवान शिव ने कहा -
ग्रन्थेऽस्मिन् कर्षणं चादौ द्वितीयोन्मादनं तथा ।
विद्वेषणं तृतीये च चतुर्थोच्चाटनं तथा ॥
इस उड्डीश तन्त्र में प्रथम में आकर्षण , द्वितीय में उन्माद , तृतीय में विद्वेषण एवं चतुर्थ में उच्चाटन है ।
ग्रामकस्योच्चाटनं पंच जलस्तम्भश्च षष्ठकम् ।
स्तम्भनं सप्तकं चैव वाजीकरणमष्टमम् ॥
पंचम में गांव का उच्चाटन , षष्ठ में स्तम्भन , सप्तम में सर्वस्तम्भन , अष्टम में वाजीकरण है ।
अन्यानपि प्रयोगांश्च बहून् श्रृण्वसुराधिप ।
अन्धी भावो मूक भावो गात्रसंकोचनं तथा ॥
इस प्रकार और भी विविध प्रयोग हैं , जैसे -- अन्धा , बहरा , गूंगा आदि करना , अंगों का संकोचन करने की कला का कथन भी मैं तुमसे करता हूं ।
प्रयोगात्मक विवरण
बधिरोमूकरणे भूतज्वरकरं तथा ।
मेघानां स्तम्भनं चैव दध्यादिकविनाशम् ॥
इस ग्रन्थ में बहरा करना , मूर्ख बना देना , भूत आदि लगाना , ज्वर चढ़ा देना , बुद्धि का स्तम्भन ( निरोध ) करना एवं दही को नष्ट कर देना है ।
मत्तोन्मत्तकरं चैव गजवाजि कोपनम् ।
आकर्षणं भुजंगानां मानवानां तथैव च ॥
पागल बनाना , हाथी - घोड़ों को अत्याधिक कुपित कर देना , सर्प तथा मनुष्यों का आकर्षण कर देना ।
सस्यादि नाशनं चैव परग्रामप्रवेशनम् ।
बेतालादिकसिद्धञ्ज पादुकाञ्जनसिद्धयः ॥
दूसरे गांव में प्रवेश करना , भूत , बैताल की सिद्धि करना , पादुकासिद्धि और अंजनासिद्धि का इसमें विशेष वर्णन है ।
कौतुकं चेन्द्रजालं च यक्षिणी - मन्त्र - साधनम् ।
गुटिका खेचरत्वं च मृतसंजीवनादिकम् ॥
अन्यान् बइंस्तथा रोद्रान् विद्यामन्त्रांस्थतापरम् ।
औषधं च तथा गुप्तं कार्यवक्ष्यामि यत्नतः ॥
उड्डीश यो न जानाति स रुष्टः किं करिष्यति ।
मेरुं चालयते स्थानात् सागरे प्लावयेन्महीम् ॥
इन्द्रजाल के कौतुक , यक्षिणी मन्त्र का साधन , आसमान में उड़ने की गुटिका , मृत संजीवनी विद्या आदि के अतिरिक्त अन्य घातक विद्याओं का प्रयोग मन्त्र , औषधि , गुप्त कार्यों का यत्नपूर्वक वर्णम मैं तुमसे कहता हूं । जो उड्डीश तन्त्र को नहीं जानता है , वह किसी से क्रोधित होकर भला क्या कर सकता है ? यह तन्त्र सुमेरु पर्वत को चलायमान करने वाला , पृथ्वी को समुद्र में डुबो देने वाला है ।
अकुलीनोऽधमोऽबुद्धिर्भक्तिहीनः क्षुधान्वितः ।
मोहितः शंकितश्चापि निन्दकश्च विशेषतः ॥
जो व्यक्ति सत्कुल में न हो , जिसकी बुद्धिभ्रष्ट हो , भक्तिरहित तथा क्षुधायुक्त हो । मोहित , संदेहशील या निन्दित हो ।
अभक्ताय न दातव्यं तन्त्र शास्त्रमनुत्तमम् ।
तथै ते सह संयोगे कार्य नोड्डीशकीध्रुवम् ॥
जो व्यक्ति तन्त्र में श्रद्धा न रखते हों , ऐसे व्यक्तियों को इस उत्तम तन्त्रशास्त्र को नहीं देना चाहिए और न ही इन सबके साथ उड्डीश तन्त्र मर्मज्ञ को संबंध बनाए रखना चाहिए ।
यदि रक्षेत् सिद्धिमेतामात्मानं तु तथैव च ।
देवतागुरुभक्ताय वातव्यं सज्जनाय च ॥
यदि इस तंत्र विद्या की सिद्धि प्राप्त करना एवं अपनी आत्मा को सुरक्षित रखना चाहते हैं तो इस तंत्र को सदैव किसी गुरुभक्त या देवस्वरुप ( मनुष्य ) को ही प्रदान करें ।
तपस्वीबालवृद्धानां तथा चैवोपकारिणाम् ।
निश्चितं सुमतिं प्राप्य यथोक्तं भाषितानि च ॥
कोई तपस्वी बालक हो , कोई वृद्ध पुरुष या परोपकार करने वाला हो , तंत्र में जो श्रद्धा और विश्वास रखता हो तथा जो सत्य व्रतधारी हो , उसी को यह तंत्र विद्या देनी चाहिए ।
न तिथिर्न च नक्षत्रं नियमो नास्ति वासरः ।
न व्रतं नियमो होमः कालवेला विवर्जितम् ॥
इस तंत्र में कथन किए गए प्रयोग को करने में न किसी विधि का नियम हैं , न नक्षत्र का और न ही किसी व्रत या हवन का ; न ही समय आदि का नियम हैं ।
केवलं तंत्र मात्रेण ह्योषधि सिद्धिरुपिणी ।
यस्य साधनमात्रेण क्षणात् सिद्धिश्च जायते ॥
केवल तंत्र मात्र से इसमें सब औषधियां सिद्धि स्वरुप हैं । इनके साधन करने से क्षण भर में ही सिद्धि प्राप्त हो जाती है ।
शशि हीना यथा रात्रो रविहीनं यथा दिनम् ।
नृपहीनं यथा राज्यं गुरुहीनं च मंत्रकन् ॥
चंद्रमा के बिना जिस प्रकार रात्रि , सूर्य के बिना दिन और राजा के बिना राज्य संभव नहीं हैं , उसी प्रकार गुरु के बिना सिद्धि संभव नहीं होती ।
इन्द्रस्य च यथा वज्र पाशश्च वरुणस्य च ।
यमस्य च यथा दण्डो वह्नेशक्तिर्यथा दहेत् ॥
जिस प्रकार इन्द्र का वज्र , वरुण का पाश , यमराज का दण्ड और अग्नि की शक्ति जला देती है ।
तथै ते महायोगाः प्रयोज्यः क्षेम कर्मणि ।
सूर्यम् प्रपातद् भूमौ नेदं मिथ्या भविष्यति ॥
इन महाप्रयोगों का ऐसे ही अच्छे कर्मों में प्रयोग करना चाहिए । इनके प्रभाव से सूर्य को भी भूमि पर लाया जा सकता है । यह बात मिथ्या नहीं हैं ।