शिकवणनाम - ॥ समास तीसरा - करंटलक्षणनिरूपणनाम ॥

परमलाभ प्राप्त करने के लिए स्वदेव का अर्थात अन्तरस्थित आत्माराम का अधिष्ठान चाहिये!


॥ श्रीरामसमर्थ ॥
सुचित कर अंतःकरण । सुनो करंटलक्षण' । इन्हें त्यागने से सदेवलक्षण । शरीर में दृढ होते ॥१॥
पाप के कारण दरिद्र प्राप्त । दरिद्र से हो पाप संचित । ऐसे ही होते रहता यह । प्रत्येक क्षण ॥२॥
इस कारण करंट लक्षण । सुनकर है त्याग ही करना । याने कुछ सदेवलक्षण । होंगे सदृढ ॥३॥
अभागे को आलस भाये । यत्न कदापि न भाये। उसकी वासना भटकती है। अधर्म में सदा ॥४॥
सदा भ्रमित निद्रातुर । व्यर्थ ही बोले अंट संट । किसी का भी अंतरंग । मानें ही नहीं ॥५॥
लिखना ना जाने पढ़ना ना जाने । सौदा सूद लेना ना जाने । हिसाब किताब रखना ना जाने । धारणा नहीं ॥६॥
खोये छोडे गिराये फोड़े । बिसरे चूके नाना उपद्रव करे । भलों की संगति भाये । कदापि नहीं ॥७॥
छछोर दोस्त जमा किये । कुकर्मी मित्र जुटाये । खट नट इकट्ठा किये। चोर पापी ॥८॥
हर किसी से तकरार । स्वयं सदा ही चोर । परघातकी मस्तवाल । बटमारी करे ॥९॥
दीर्घसूचना सूझे ना । न्यायनीति चाहे ना । परअभिलाष वासना में । निरंतर ॥१०॥
आलस से शरीर पोषण । परंतु पेट को न मिले अन्न । फटा वसन भी मिले न । ओढने को ॥११॥
आलस से शरीर पाले । अखंड कांख खुजलाये । निद्रा का सुकाल करे । अपने लिये ॥१२॥
जनों से मैत्री करे ना । कठिन शब्द बोले नाना । मूर्खतावश संवारे ना। किसी एक को ॥१३॥
पवित्र लोगों में संकोच करे । गंदे लोगो में निःशंक दौडे । सदा मन को भाये । जननिंद्य क्रिया ॥१४॥
वहां कैसा परोपकार । किया बहुतों का संहार । पापी अनर्थी अपस्मार । सर्व अबद्धी ॥१५॥
शब्द सम्हाल कर बोले ना । सम्हालने पर भी सम्हलेना । कोई भी मानेना । कहना उसका ॥१६॥
किसी पर भी विश्वास नहीं । किसी से भी सख्य नहीं। विद्या वैभव कुछ भी नहीं । व्यर्थ ही अकड ॥१७॥
राखें बहुतों के अंतर । भाग्य आता है तद्नंतर । ऐसे ये विवेक के उत्तर । सुनता नहीं ॥१८॥
स्वयं को अपना समझेना । सिखाया वह सुनेना । उस पर उपाय नाना । क्या करेंगे ॥१९॥
कल्पना करे उदंड की । प्राप्तव्य तो कुछ भी नहीं। अखंड संदेह स्थिति । अनुमान की ॥२०॥
पुण्यमार्ग छोड़ा मन से । तो पाप झडेंगे कैसे । निश्चय नहीं अनुमान ने । नाश किया ॥२१॥
कुछ एक पूर्ता समझेना । सभा में बोले बिना रहे ना । बड़बड़ी धूर्त ऐसा । जनों को पहचान हुई ॥२२॥
कुछ नियमितता अपने । बहुत जनों को समझे । वही मनुष्य मान्य हुये । भूमंडल में ॥२३॥
बिना जूझे कैसी कीर्ति । मुफ्त मान्यता नहीं मिलती । जहां वहां छी छी होती । अवलक्षण से ॥२४॥
भलों की संगति करे ना । स्वयं को सयाना करे ना । उसे जानो स्वयं वैरी अपना । स्वहित न जाने ॥२५॥
लोगों का भला करे । तो उधार अपने आप चुकता होये । ऐसा जिसके जीव ने । जाना ही नहीं ॥२६॥
जहां नहीं उत्तम गुण । वे अभागेपन के लक्षण । बहुतों को ना माने वे अवलक्षण । सहज ही आये ॥२७॥
सब कुछ कार्यकारण । कुछ भी नहीं कार्य के बिन । निक्कमा वह दुःख प्रवाह । में बहते ही गया ॥२८॥
बहुतों में मान्यता थोड़ी । उसके पापों की नहीं जोड़ी । निराश्रयी की पोल खुलती । जहां वहां ॥२९॥
इस कारण अवगुण त्यागें । उत्तम गुण जानकर लें । जिससे मन के अनुसार पायें । सब कुछ ॥३०॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे करंटलक्षणनिरूपणनाम समास तीसरा ॥३॥

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Last Updated : December 09, 2023

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