विवेकवैराग्यनाम - ॥ समास दसवां - उत्तमपुरुषनिरूपणनाम ॥

इस ग्रंथमें प्रत्येक छंद ‘मुख्य आत्मनुभूति से’ एवं सभी ग्रंथों की सम्मति लेकर लिखा है ।   


॥ श्रीरामसमर्थ ॥
स्वयं यथेष्ट खाना । बचा जो अन्न बांटना । परंतु व्यर्थ गवांना । यह धर्म नहीं ॥१॥
वैसे तृप्त होये ज्ञान से । वही ज्ञान कहे जनों से । तैराक डूबने न दे । डूबनेवालों को ॥२॥
उत्तम गुण स्वयं लें । वे बहुतों से कहें । आचरण बिना बोले । वे शब्द मिथ्या ॥३॥
स्नानसंध्या देवार्चन । एकाग्र हो करें जपध्यान । हरिकथा निरूपण । करना चाहिये ॥४॥
शरीर परोपकार में लगायें । बहुतों के काम आयें । न्यून ना पडने दें । किसी के भी प्रति ॥५॥
दुःखी कष्टी को जानें । यथाशक्ति उनके काम आयें । मृदु वचन कहते रहें । किसी एक से ॥६॥
दूसरों के दुःख से दुःखी होयें । परसतोष से सुखी होयें । प्राणिमात्रों से मेल बढ़ाये । अच्छे शब्दों से ॥७॥
बहुतों के अन्याय क्षमा करें । बहुर्तों के कार्यभाग करें । अपने समान करें । पराये जन ॥८॥
दूसरों का जानें अंतःकरण । तदनुसार ही करें आचरण । लोगों का करते रहें परीक्षण । नाना प्रकार से ॥९॥
नेमक ही बोलें । तत्काल ही प्रतिवचन दें । कदापि क्रोध में न आयें । रहे क्षमारूप ॥१०॥
आलस सारा ही त्यागें । यत्न उदड ही करें । शब्द मत्सर न करें । किसी एक का ॥११॥
उत्तम पदार्थ दूसरों को दें । शब्द चुनकर बोलें । सावधानी से करते रहें । ससार अपना ॥१२॥
मरण का स्मरण रहें । हरिभक्ति प्रति सादर रहें । मरकर भी कीर्तिरूप रहें । इस तरह से ॥१३॥
नियमबद्ध हो जिसका वर्तन । उसे जानने लगे बहुत जन । चाहने लगते उसे तब । क्या कमी है ॥१४॥
ऐसा उत्तम गुणों से विशेष । उसे कहिये पुरुष । जिसके भजन से जगदीश । तृप्त होये ॥१५॥
उदंड धि:कार कर बोलते । फिर भी शांति से विचलित ना होते । दुर्जनों से मिल जाते । धन्य वे साधु ॥१६॥
उत्तम गुणों से श्रृंगारित । ज्ञान वैराग्य से सुशोभित । वही एक जानिये उचित । भूमंडलमें ॥१७॥
स्वतः स्वयं कष्ट करें । बहुतों को सहन करें । जूझकर कीर्ति रूप रह जायें । नाना प्रकार से ॥१८॥
कीर्ति देखने जाओ तो सुख नही । सुख देखें तो कीर्ति नहीं । विचार बिन कहीं भी नहीं । समाधान ॥१९॥
परांतर को धक्का लगने न दे । कदापि गैरकृत्य होने न दें । महानता को क्षमाशील के । हानि नहीं ॥२०॥
अपने अथवा पराये । कार्य सारे ही करें । प्रसंग आये तो काम टाल दें । यह विहित नहीं ॥२१॥
अच्छा बोलो तो लगता सुख । यह तो समझता प्रत्यक्ष । पराये वो आत्मवत । मानते जायें ॥२२॥
कठोर शब्दों से बुरा लगता । यह तो प्रत्यय में आता । फिर बुरा बोलना । किस कारण ॥२३॥
स्वयं को चिमटा लिया । उससे व्यथित हुआ । स्वय के अनुभव से दूसरों का । विचार रखें ॥२४॥
जो दुसरों को दुःखकारी । वह अपवित्र वैखरी । अपने लिये ही घातकारी । किसी एक प्रसंग में ॥२५॥
बोया वह उगता । बोले वैसा उत्तर मिलता । तो फिर वचनों में कर्कशता । क्यों हों ॥२६॥
अपने पुरुषार्थ वैभव से । बहुतों को सुखी करें । परंतु दुःखी करें । यह राक्षसी क्रिया ॥२७॥
दभ दर्प अभिमान । क्रोध और कठिन वचन । ये अज्ञान के लक्षण । कहे हैं भगवद्गीता में ॥२८॥
जो उत्तम गुणो से शोभित हुआ । वही पुरुष महाभला । कई लोग उसका । पता ढूंढते फिरते ॥२९॥
क्रियाबिन शब्दज्ञान । वहीं श्वान का वमन । अच्छे लोग वहां अवलोकन । कदापि न करते ॥३०॥
मनःपूर्वक भक्ति करें । उत्तम गुण अगत्य धरें । उस महापुरुष के लिये । ढूंढते आते ॥३१॥
ऐसा जो महानुभाव । वह करें समुदाय । भक्तियोग से देवाधिदेव । अपना बनायें ॥३२॥
स्वय अकस्मात् मर जायें। फिर भजन कौन करें । इस कारण भजन मे लगायें । बहुत जन ॥३३॥
हमारी प्रतिज्ञा ऐसे । कुछ भी न मांगे शिष्य से । हमारे पीछे भजते रहें । जगदीश को ॥३४॥
इस कारण से समुदाय । होना चाहिये महोत्सव । देखते देखते देवाधिदेव । प्रसन्न करें ॥३५॥
अब समुदाय के कारण । चाहिये दो लक्षण । श्रोताओं यहां मन । लगायें सावधानी से ॥३६॥
जिससे हो बहुतों को भक्ति । वह ये रोकडी प्रबोधशक्ति । बहुतों की मन की स्थिति । हांथ में लेना चाहिये ॥३७॥
पीछे कहे हैं उत्तम गुण । उन्हें मानते प्रमाण । प्रबोधनशक्ति के लक्षण । चलते आगे ॥३८॥
बोले वैसा आचरण । स्वयं करके कहे वचन । उनके बचनों को प्रमाण । मानते जन ॥३९॥
जो जो जनो को माने ना । उन्हें जन भी मानेना । हम अकेले जन नाना । सृष्टि में ॥४०॥
इस कारण संगत में रहें । मानते मनाते सिखलायें । धीरे धीरे अंत तक ले जायें । विवेक से ॥४१॥
परंतु ये विवेक के काम हैं । विवेकी ही करते नियमसे । अन्य वे बेचारे भ्रम से । झगड़ने लगते ॥४२॥
बहुतों से लड़ता एक । सेना के बिना अपर्याप्त । इस कारण लोग बहुत । राजी रखें ॥४३॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे उत्तमपुरुषनिरूपणनाम समास दसवां ॥१०॥

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Last Updated : December 08, 2023

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