संत श्रीरोहिदासांची पदे - ४६ ते ५५

संत रोहिदास (इ.स. १३७६ - इ.स. १५२७) हे मध्ययुगीन भारतातील हिंदू संत होते. यांच्या गुरूंचे नाव रामानंद स्वामी होते. कबीर यांचे समकालीन होत; तर मीराबाई यांच्या शिष्या होत्या.

राग टोडी
४६.
पावन जस माधो तेरा, तुम दारुन अघमोचन मेरा ॥टेक॥ कीरति तेरी पाप बिनासे, लोक बेद यों गावै । जों हम पाप करत नहिं भूधर, तौ तूं कहा नसावै ॥१॥
जब लग अंक पंक नहि परसै, तौ जल कहा पखारै । मन मलीन विषया रस लंपट, तौ हरि नाम सॅंभारै ॥२॥
जो हम बिमल हृदय चित अंतर, दोष कौन पर धरि हौ । कह रैदास प्रभु तुम दयाल हौ, अबॅंध मुक्ति का करि हौ ॥३॥

४७.
अब कैसे छूटै नाम रट लागी ॥टेक॥ प्रभुजी तुम चंदन हम पानी । जाकी अंग अंग बास समानी ॥१॥
प्रभुजी तुम घन बन हम मोरा । जैसे चितवत चंद चकोरा ॥२॥
प्रभुजी तुम दीपक हम बाती । जीकी ज्योति बरै दिनराती ॥३॥
प्रभुजी तुम मोती हम धागा । जैसे सोनहिं मिलत सुहागा ॥४॥
प्रभुजी तुम स्वामी हम दासा । ऐसी भक्ती करै रैदासा ॥५॥

४८.
त्राहि त्राहि त्रिभुवनपति पावन । अतिसय सूल सकल बलि जावन ॥टेक॥ काम क्रोध लंपट मन मोर । कैसे भजन करूं मैं तोर ॥१॥
विषम बिहंगम दुंद नकारी । असरनसरन सरत भौहारी ॥२॥
देव देव दरबार दुआरै । राम राम रैदास पुकारै ॥३॥

४९.
तेरा जन काहे को बोलै । बोलि बोलि अपनी भगति को खोलै ॥टेक॥ बोलत बोतल बढै वियाधी, बोल अबोलै जाई । बोलौ बोल अबोल कोप करै, बोल, बोल को खाई ॥१॥
बोलै ज्ञान मान परि बौलै, बोलै बेद बडाई । उर मैं धरि जब ही बोलै, तबही मूळ गॅंवाई ॥२॥
बोलि बोलि औरहि समाजवै, तब लटि समझन भाई । बोलि बोलि समझी जब बूझी, काल सहित सब खाई ॥३॥
बोले गुरु अरु बोलै चेला, बोल बोल की परतिति आई । कह रैदास मगन भयो जबही, तबही परमनिधि पाई ॥४॥

५०.
दरसन दीजै राम दरसन दीजै । दीरसन दीजै विलंब न कीजै ॥टेक॥ दरसन तोरा जीवन मोरा । बिन दरसन क्यों जिवै चकोरा ॥१॥
माधो सतगुरु सब जग चेला । अबके बिउरे मिलन दुहेला ॥२॥
धन जोबन की झूठी आसा । सत सत भाषै जन रैदासा ॥३॥

५१.
जन को तारि बाप रमइया कठिन फंद पंय्यो पंच जमइया तुम बिन सकल देव मुनि ढुंढूं । कहूं न पाऊं जमपास छुडइया ॥१॥
हम से दीन दयाल न तुमसे । चरन सरन रैदास चमइया ॥२॥

५२.
मेरी प्रीति गोपाल सों जनि घटै हो । मैं मोलि महॅंगै लई तन सटै हो हृदय सुमिरन करूं नैन अवलोकनो, स्रवनों हरि कथा पूरि राखूं । मन मधुकर करौं चित्त चरना धरौं, रामरसायन रसना चाखूं ॥१॥
साधुसंगत बिना भाव नहिं उपजै, भाव भगति क्यों होइ तेरी । बंदत रैदास रघुनाथ सुनु बीनती, गुरूपरसाद कृपा करौ मेरी ॥२॥

५३.
रथ को चतुर चलावनहारो । खिन हॉंकै खित उभटै राखै, नहीं आनको सारो जब रथ थकै सारथी थाकै, तब को रथहि चलावै । नाद बिंद ये सबही थाके, मन मंगल नहिं गावै ॥१॥
पांच तत्त को रह रथ साज्यो, अरधै उरध निवासा । चरनकमल लव लाइ रह्यो है, गुन गावे रैदासा ॥२॥

५४.
संतो आनिन भगति यह नाहीं । जब लग सिरजत मन पॉंचो गुन, व्यापक है या माहीं सोई आन अंतर करि हरि सो, अपमारग को आनै । काम क्रोध मद लोभ मोह की, पल पल पूजा ठानै ॥१॥
सत्य सनेह इष्ट अंग लावै, अस्थल अस्थल खेले । जो कछु मिलै आन आखत सो, सुत दारा सिर मेलै ॥२॥
हरिजन हरिहि और ना जानै, तजै आन तन त्यागी । कह रैदास सोई जन निर्मल, निसि दिन जो अनुरागी ॥३॥

५५.
पार गया चाहै सब कोई, रहि उर वार पार नहिं होई पार कहै उर वार से पारा । बिन पद परचे भ्रमै गॅंवारा ॥१॥
पार परम पद मंझ मुरारी । ता में आप रमै बनवारी ॥२॥
पूरन ब्रह्म बसै सब ठाई । कह रैदास मिलै सुख साई ॥३॥

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Last Updated : December 26, 2016

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