संत श्रीरोहिदासांची पदे - २७ ते ४५

संत रोहिदास (इ.स. १३७६ - इ.स. १५२७) हे मध्ययुगीन भारतातील हिंदू संत होते. यांच्या गुरूंचे नाव रामानंद स्वामी होते. कबीर यांचे समकालीन होत; तर मीराबाई यांच्या शिष्या होत्या.


राग गौड
२७.
आज दिवस लेऊं बलिहारा । मेरे घर आया राम का प्यारा ॥टेक॥ ऑंगन बॅंगला भवन भयो पवन । हरिजन बैठे हरिजस गावन ॥१॥
करूं डंडवत चरन पखारूं । तन मन धन उन ऊपरि वारूं ॥२॥
कथा कहैं अरू अर्थ बिचारैं । आप तरैं औरन को तारैं ॥३॥
कह रैदास मिलैं निज दास । जनम जनम कै काटै पास ॥४॥

२८.
सो कहा जानै पीर पराई । जाके दिलमें दरद न आई ॥टेक॥ दुखी दुहागिनि होइ पियहीना, नेह निरति करि सेव न कीना । स्याम प्रेमका पंथ दुहेला, चलन अकेला कोइ संग न हेला ॥१॥
सुख की सार सुहागिनी जानै, तन मन देय अंतर नहिं आनै । आन सुनाय और नहिं भाषै, रामरसायन रसना चाखै ॥२॥
खालिक दरदमंद, दर आया, बहुत उमेद जवाब न पाया । कह रैदास कवन गति मेरी, सेवा बंदगी न जानूं तेरी ॥३॥

२९.
गोबिंदे तुम्हारे से समाधि लागी, उर भुअंग भस्म अंग संतत बैरागी ॥टेक॥ जाके तीन नैन अमृत बैन, सीस जटाधारी । कोटिकलप ध्यान अलप, मदन अंतकरी ॥१॥
जाके नील बरन अकल ब्रह्म, गले रुंडमाला । प्रेम मगन फिरत नगन संग सखा बाला ॥२॥
अस महेस बिकट भेस, अजहूं दरस आसा । कैसे राम मिलैं तोहि, गावै रैदासा ॥३॥

३०.
ज्यों तुम कारन केसवे, अंतर लवलागी । एक अनुपम अनुभवी, किमि होइ विभागी ॥टेक॥ इक अभिमानी चातृगा बिचरत जग माही । यद्यपि जल पूरन मही कहूं वा रुचि नाहीं ॥१॥
जैसे कामी देखि कामिनी, हृदय सूल उपजाई । कोटी बैद विधि ऊचरै, वा की पिया न जाई ॥२॥
जो तेहि चाहैं सो मिलै, आरत गति होई । कह रैसाद यह गोप नहिं, जानै सब कोई ॥३॥

३१.
अब मैं हार्‍यो रे भाई । थकित भयों सब हालचालते, लोक न बेद बडाई ॥टेक॥ थकित भयो गायन अरू नाचन, थाकी सेवा पूजा । काम क्रोध ते देह थकित भइ, कहौं कहॉं लौं दूजा ॥१॥
राम जनहुं ना भगत कहाऊं, चरन पखारूं न देवा । जोइ जोइ करौं उलटि मोहिं बांधें , ता तें निकट न भेवा ॥२॥
पहिले ज्ञान क किया चॉंदना, पाछे दिया बुझाई । सुन्न सहज मैं देऊ त्यागे, राम न कहुं दुखदाई ॥३॥
दूर बसे षटकर्म सकल अरु, दूर उ कीन्हे सेऊ ॥ ज्ञान ध्यान दूर देउ कीन्हे, दुरिउ छाडे तेऊ ॥४॥
पॉंचो थकित भये हैं जहॅं तहॅं जहॉं तहॉं थिति पाई । जा कारन मैं दौरो फिरतो, सो अब घतमें आई ॥५॥
पॉंचो मेरी सखी सहेली, तिन निधि दई दिखाई । अब मन फूलि भयो जग महियॉं, आप में उलटि समाई ॥६॥
चलत चलत मेरो निज मन थाक्यो, अब मोसे चलो न जाई । साई सहज मिलौ सोइ सनमुख कह रैदास बडाई ॥७॥

३२.
हरि बिन नहिं कोइ पतित पावन, आनहिं ध्यावे रे । हम अपूज्य पूज्य भये हरि ते, नाम अनूपम गावे रे ॥टेक॥ अष्टादस व्याकरन बखानैं, तीन काल षट् जीता रे । प्रेम भगति अंतर गति नाहीं, ता ते धानुका नीका रे ॥१॥
ता ते भलो स्वान को सत्रू, हरि चरनन चित लावै रे । मूआ मुक्त बैकुंठ बास, जिवत यहॉं जस पावै रे ॥२॥
हम अपराधी नीच घर जनमे, कुटुंब लोक करै हॉंसी रे । कह रैदास राम जपु रसना, कटै जनम की फॉंसी रे ॥३॥

३३.
हरि हरि हरि हरि हरि हरे । हरि सुमिरत जन नस्तरे ॥टेक॥ हरि के नाम कबीर उजागर । जनम जनम के काटे कागर ॥१॥
नमत नामदेव दूध पिआया । तौ जग - जन्म संकट नहिं आया ॥२॥
‘ जन - रविदास ’ राम रॅंग राता । गुरु प्रसादि नक नहिं जाता ॥३॥

३४.
भाई रे सहज बंदो लोइ, बिन सहज सिद्धि न होई । लौ लीन मन जो जानिये, तब कीट भृंगी होई ॥टेक॥ आपा पर चीन्हे नहीं रे, और को उपदेस । कहॉं ते तुम आयो रे भाई, जाहुगे किस देस ॥१॥
कहिये तो कहिये काहि कहिये, कहॉं कौन पतियाइ । रैदास दास अजान ह्वै करि, रह्यो सहज समाइ ॥२॥

३५.
इह अंदेस सोच जिय मेरे । निसिबासर गुन गाऊं ॥टेक॥ तुम चिंतत मेरी चिंतहु जाई । तुम चिंतामनि हो इक साई ॥१॥
भगति हेत का का नहिं कीन्हा । हमरी ब्रे भये बलहीना ॥२॥
कह रैदास दास अपराधी । जेहि तुम द्रवौ सो भगति न साधि ॥३॥

३६.
रामराय का कहिये यह ऐसी, जन की जानत हो जैसी तैसी ॥टेक॥ मीन पकरि काट्यो अरू फट्यो, बॉंटि कियो बहु धानी । खंड खंड करि भोजन कौन्हो, तहउं न बिसर्‍यो पानी ॥१॥
तैं हमैं बॉंधे मोह फॉंसीसे, हम तोको प्रेम जेवरिया बॉंधे । अपने छुटन कै जतन हॉं, हम छूटे तोको आराधे ॥२॥
कह रैदास भगति दक बाढी, अब का की डर डरिये । जौ डरको हम तुमको सेंवौं, सो सुख अजहुं मरिये ॥३॥

३७.
जो तुम तारो राम मैं नहि तोरौं । तुम से तोरि कवन से जोरौं ॥टेक॥ तीरथ बरत न करौं अंदेसा । तुम्हरे चरन कमल का भरोसा ॥१॥
जहॅं जहॅं जाओं तुम्हरी पूजा । तुम सा देव और नहिं दूजा ॥२॥
मैं अपनो मन हरि से जोर्‍यों हरि से जोरि सबन ते तोर्‍यों ॥३॥
सबही पहर तुम्हारी आसा । मन क्रम बचन कहैं रैदासा ॥४॥

३८.
थोथो जनि पछोरी रे कोई । जोइ रे पछौरा जा में निज कन होई ॥टेक॥ थोथी काया थोथी माया । थोथा हरि बिन जनम गॅंवाया ॥१॥
थोथा पंडित थोथी बानी । थोथी हरि बिन सबै सहानी ॥२॥
थोथा मंदिर भोग बिलासा । थोथी आन देव की आसा ॥३॥
साचा सुमिरन नाम बिसासा । मन बच कर्म कहै रैदासा ॥४॥

३९.
भेष लियो पै भेद न जान्यो । अमृत लेइ विषै सो मान्यौ ॥टेक॥ काम क्रोध में जनम गॅंवायो । साधु संगति मिलि राम न गायो ॥१॥
तिलक द्यो पै तपनि न जाई । माला फैरे धनेरी लाई ॥।२॥
कह रैदास मरम जो पाऊं । देव निरंजन सत कर ध्याऊं ॥३॥

४०.
गोविंदे भवजल व्याधि अपारा । ता में सूझै वार न पारा ॥टेक॥ अगम घर दूर उरतर, बोलि भरोस न देहू । तेरी भगति अरोहन संत अरोहन, मोहिं चढइ न लेहू ॥१॥
लोह की नाव परवा न बोझी, सुकिरित भाव विहीना । लोभ तरंग मोह भयो काला, मीन भयो मन लीना ॥२॥
दीनानाथ सुनहु मम विनती, कवने हेत विलंब करीजै । रैदास दास संत चरनन, मोहिं अब अवलंबन दीजै ॥३॥

४१.
है सब आतम सुख परकास सॉंचो । निरंतर निराहार कलपित यै पॉंचो ॥टेक॥ आदि मध्य औसान एक रस, तार बन्यो हो भाई । थावर जंगम कीट पतंगा, पूरि रह्यो हरिराई ॥१॥
सर्वेस्वर सर्वांगी सब गति, करता नासा । दृष्टि अदृष्टि गेय अरू ज्ञाना, एकमेक रैदासा ॥३॥

४२.
देवा हमन पास करंत अनंता, पतितपावन तेरा बिरद क्यों कहंता ॥टेक॥ तोहिं मोहिं मोहिं तोहिं अंतर ऐसा । कनक कतक जल तरंग जैसा ॥१॥
मैं केई नर तुहिं अंतरजामी । ठाकुर थैं जन जानिये जन थैं स्वामी ॥२॥
तुम सबनमें सब तुम माहीं । रैदास दास असमझि सी कहौं कहॉं हीं ॥३॥

४३.
संत तुझी तन संगति प्रान, सत् गुरु ज्ञान जानै संत देवादेव ॥१॥
संत ही संगति संत कथा - रस, संत - प्रेम मोहि दीजै देवादेव ॥२॥
संत आचरण, संत सो मारग, संत ही लागै लगनि ॥३॥
और इक भाव भगति चिंतामणि, जनि लागै असंत पापी सनि ॥४॥
‘ रविदास ’ भनै जो जानै सो जान, संत अंतरहिं अंतर नाहिं ॥५॥

४४.
दारिद देखि सब कोइ हॅंसे, ऐसी दशा हमारी । अष्टादस सिद्धि कर तले, सब कृपा तुम्हारी ॥१॥
तू जानत मै कछु नहीं, भव - खण्डन है राम । सकल जीव शरनागती, प्रभु से पूरन काम ॥२॥
जो तेरी शरनागती, तिन नाही कछु भार । ऊंच - नीच तुम ते तरे, आलज है संसार ॥३॥
कहि ‘ रविदास ’ अकथ कथा बहु काह कहीजै । जैसा तू तैसा तुही क्या उपमा दीजै ॥४॥

४५.
गाइ गाइ अब का कहि गाऊं । गावनहार को निकट बताऊं ॥टेक॥ जब लग है या तनकी आसा, तब लग करै पुकारा । जब मन मिल्यौ आस नहि तनकी, तब को गावनहारा ॥१॥
जब लग नदी न समुद समावै, तब लग बढैं हॅंकारा । जब मन मिल्यौ रामसागर सों, तब यह मिटी पुकारा ॥२॥
जब लग भगति मुकति की आसा, पदमतत्त्व सुनि गावै ॥ जहॅं जहॅं आस धरत है यह मन, तहॅं तहॅं कछु न पावै ॥३॥
छाडै आस निरास परम पद, तब सुख सतिकार होई । कर रैदास जासों और करत है, परम तत्त्व अब सोई ॥४॥

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Last Updated : December 23, 2016

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